मांय माटी: झारखंड में अपनी जड़ें तलाशती असम की आदिवासी कवयित्री

झारखंड के रहने वाले कविता कर्मकार के पुरखे, सालों पहले चायबगान मजदूर के रूप में अंग्रेजों द्वारा विस्थापित होकर ऊपरी असम के सूदूर सेपन नामक जगह पर पहुंचे थे. कविता अपने पुरखों की चौथी पीढ़ी से हैं. बावजूद इसके वह अपनी जड़ों की तलाश के प्रति बहुत प्रतिबद्ध दीखती हैं.

By Prabhat Khabar Digital Desk | August 19, 2022 9:40 AM

मांय माटी: कविता कर्मकार समर्थ कवयित्री होने के साथ-साथ अनुवादक, कहानीकार, फोटोग्राफर और गायिका भी हैं. मूल रूप से असमिया भाषा में लिखने और पहचान बनाने वाली कविता कर्मकार बांग्ला, अंग्रेजी और हिंदी में भी लिखती-छपती हैं. झारखंड के रहने वाले कविता कर्मकार के पुरखे, सालों पहले चायबगान मजदूर के रूप में अंग्रेजों द्वारा विस्थापित होकर ऊपरी असम के सूदूर सेपन नामक जगह पर पहुंचे थे. कविता अपने पुरखों की चौथी पीढ़ी से हैं. बावजूद इसके वह अपनी जड़ों की तलाश के प्रति बहुत प्रतिबद्ध दीखती हैं.

एक बार उनके पिता इस तलाश में झारखंड आये थे. उन्हें अपनी आजी के मार्फत इतना पता था कि उनका गांव उस नदी के किनारे है, जो सोना देती है. जाहिर है, इतनी जानकारी बरसों पहले छूट चुके उस जगह को ढूंढ़ निकालने के लिए काफी नहीं थी. वह कहती हैं, हो सकता है बार-बार झारखंड आने के बावजूद वह जगह मुझे कभी न मिले, पर इस कोशिश में झारखंड के पहाड़, जंगल और नदियों से पुराना रिश्ता फिर से कायम हो रहा है. जड़ों की तलाश में वह जगह तो अब तक नहीं मिली है, पर जड़ों के विस्तार को उन्होंने बखूबी समझ लिया है.

कविता एक ऐसे परिवार से आती हैं, जहां गायकों की एक पूरी परंपरा है. उनके सामने एक बना-बनाया रास्ता था, पर उन्होंने लिखने का चुनौतीपूर्ण रास्ता चुना. कविता बहुत छोटी उम्र से लिखने-छपने लगी थीं और जल्द ही असम में नयी पीढ़ी के रचनाकारों में एक विशिष्ट पहचान भी बना ली. आज 35 वर्ष की कविता के पास अपनी उम्र से ज्यादा उपलब्धियां हैं. उनके तीन काव्यसंग्रह, अनुवाद की पंद्रह किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. ये किताबें नेशनल बुक ट्रस्ट, साहित्य अकादमी, असम पब्लिशिंग हाउस जैसे ख्यातिप्राप्त प्रकाशनों से हैं. उन्होंने सात किताबों का संपादन भी किया है. इनमें एक किताब इतिहास से निष्कासित कर दी गयीं असम की स्वाधीनता सेनानी मंगरी उरांव पर है. साहित्य के अलावा, कला, संस्कृति, पर्यटन से संबंधित उनके लेख असमिया भाषा में लगातार प्रकाशित होते रहते हैं.

हिंदी में वह नया ज्ञानोदय, समकालीन भारतीय साहित्य, किस्सा, वागर्थ आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं. उनकी कविताओं का अनुवाद हिंदी, अंग्रेजी, बांग्ला, मलयालम, तेलगु, गुजराती, ओड़िया जैसी भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त सर्बियन, स्पैनिश, अल्बेनियन, अरबी जैसी विदेशी भाषाओं में भी हो चुका है. असमिया कविताओं के विकास में योगदान के लिए 2010 में उन्हें बंशी गोगोई मेमोरियल प्रतिष्ठित पुरस्कार और उनकी पहली कहानी ‘आउल’ को गरीयसी चंद्र प्रसाद सायकिया पुरस्कार मिला है. इस कहानी पर फिल्म बनने की भी सूचना है. इसके अलावा वह साहित्यिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में शरीक होने के लिए कई देशों की यात्रा भी कर चुकी हैं.

इन सब व्यक्तिगत उपलब्धियों को वह बिल्कुल महत्त्व नहीं देतीं. इस बात का एक छोटा-सा प्रमाण यह है कि प्रकाशकों द्वारा लगातार अनुरोध के बावजूद उन्होंने अपना नया कोई कविता संग्रह पिछले सात सालों से छपने के लिए नहीं दिया. उनका कहना है कि बहुत-से लोग ऐसा मान रहे थे कि मुझे अतिरिक्त महत्त्व दिया जा रहा है. कविता लिखना मेरे लिए व्यक्तिगत उपलब्धि नहीं है, मैं तो बस बहुत सारे लोगों की अनसुनी आवाजों को अभिव्यक्ति और मंच देने की कोशिश करती हूं. दूसरे लोग भी अपनी उपस्थिति दर्ज कर सकें इसलिए मैंने संग्रह नहीं लाने का फैसला किया. इस बात को ऐसे समझिए कि छपने के लिए हर संभव जुगाड़-तिकड़म के इस युग में 29 साल की उम्र में तीन काव्य-संग्रह के बाद, उन्होंने दूसरों को मौका देने के लिए नहीं छपना चुना.

जड़ों की तलाश वही करता है, जिसे जड़ से बिछड़ जाने की तकलीफ पीढ़ी-दर-पीढ़ी सताती है. ‘इतिहास’ शीर्षक कविता में वह लिखती हैं, ‘शिरीष के जड़ों में दफ्न है हमारा इतिहास / दिल में निचोड़ दी गयी हैं चायपत्तियों की सुगंध…चाय का रंग है लाल/हमारे खून से.’ झारखंड से गये पुरखों की कठिन मेहनत से ही चायबागान अस्तित्व में आया. इसलिए यह भी जानना चाहिए कि हमारी प्यालियों तक पहुंची चाय में सिर्फ स्वाद ही नहीं होता, उसमें एक इतिहास भी बसा होता है. कविता कर्मकार की कविताएं हमें यह बखूबी बताती हैं.

आदिवासियत की गहरी समझ से निकली इनकी कविताएं हमें नये ढंग से सोचने पर मजबूर कर देती हैं. जैसे हम सबका जीवन पेड़ों के आस-पास गुजरता है, पेड़ों के बिना हमारा जीवन ही संभव नहीं है, पर क्या पेड़ों को देखतेहुए हमने कभी इस तरह से सोचा है- ‘कभी चिलचिलाती धूप में / किसी पेड़ के नीचे आकर बैठोगे/ तो जानोगे / कि किसी के लिए पेड़ बन जाना क्या होता है.’ कविता चाहती तो किसी भी बड़े शहर में रह सकती थीं. कम से कम गुवाहाटी में तो रह ही सकती थीं, पर उन्होंने गुवाहाटी से लगभग 450 किमी दूर अपने लोगों, उनके संघर्ष और गीतों के बीच सेपन नामक जगह पर ही रहना चुना. फिलहाल वह चायबागान के मजदूरों के जीवन पर आधारित एक डॉक्युमेंट्री बना रही हैं, जो जल्द ही प्रदर्शन के लिए तैयार होगी.

( सहायक प्रोफेसर, हिंदी विभाग, आरडी एंड डीजे कॉलेज, मुंगेर)

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