आदिवासियों के इतिहास की खोज करायेगी सरकार

सुनील चौधरी, रांची : झारखंड के आदिवासियों का मूल कहां था? हजारों साल पहले ये कैसे थे? इनका जीवन क्या था, कहां से आये और कैसे आये? क्या थी शासन प्रणाली और जीवनशैली? इन सारी बातों का अध्ययन झारखंड सरकार कराने जा रही है. कहा जा रहा है कि आदिवासियों के संदर्भ में अबतक 1819 […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | October 6, 2019 2:15 AM

सुनील चौधरी, रांची : झारखंड के आदिवासियों का मूल कहां था? हजारों साल पहले ये कैसे थे? इनका जीवन क्या था, कहां से आये और कैसे आये? क्या थी शासन प्रणाली और जीवनशैली? इन सारी बातों का अध्ययन झारखंड सरकार कराने जा रही है. कहा जा रहा है कि आदिवासियों के संदर्भ में अबतक 1819 और उसके बाद के ही लिखित दस्तावेज हैं.

इसके पहले चेरो राजवंश से लेकर कई शासक हुए हैं, पर प्रमाणिक दस्तावेज तैयार नहीं है. इन दस्तावेजों को तैयार करने के लिए झारखंड सरकार वृहत स्तर पर शोध कराने जा रही है. डॉ रामदयाल मुंडा ट्राइबल वेलफेयर रिसर्च इंस्टीट्यूट (टीआरआइ) को शोध कराने की जिम्मेवारी दी गयी है. टीआरअाइ द्वारा विज्ञापन जारी कर इतिहासकारों, शोधकर्ताओं से आवेदन मांगे गये हैं.
शोध में ट्राइबल हिस्ट्री अॉफ जंगल महल, झारग्राम, बर्द्धवान, मिदनापुर, बांकुरा, पंचेत, मानभूम, सिंहभूम, धालभूम आदि क्षेत्र के आदिवासियों पर प्राचीन काल से लेकर ब्रिटिश काल तक का अध्ययन किया जायेगा.
देशभर की यूनिवर्सिटी से इतिहास के जानकारों के नेतृत्व में अलग-अलग टीम बनायी जायेगी. जो अलग-अलग जगह जाकर मौखिक इतिहास का अभिलेखागारों के दस्तावेज से मिलान कर आदिवासियों का इतिहास लिखेंगे. टीआरअाइ के निदेशक डॉ रणेंद्र कहते हैं कि यह अबतक का सबसे बड़ा शोध होगा.
राजमहल से लेकर जंगल महल तक आदिवासियों का महान शासनकाल रहा है. झारखंड अलग राज्य बना, पर झारखंड का इतिहास ब्रिटिश काल के दौरान ही मिलते हैं. जबकि एक सुनहरा इतिहास ब्रिटिश काल से पहले भी रहा है. इसका प्रामाणिक दस्तावेज नहीं है. ब्रिटिश काल के पूर्व के आदिवासी शासनकाल का शोध कर प्रामाणिक दस्तावेज तैयार कराया जायेगा.
आदिवासियों का रहा है स्वर्णिम इतिहास
डॉ रणेंद्र कहते हैं कि जनजातीय इतिहास पर जो शोध कार्य अबतक हुए हैं, वो मुख्यत: ब्रिटिश शासन के बाद के हैं. इतिहासकार सरकारी दस्तावेज को ही मानते हैं. उस हिसाब से तो ब्रिटिश काल के बाद ही आदिवासी समुदाय का इतिहास रहा है, जिसमें केवल युद्ध आदि का जिक्र है. जनजातीय समाज पर कोई बात शुरू करता है, तो अत्यंत कमजोर जनजातीय समूह बिरहोर-बिरिजिया से होते हुए संताल-हूल और भगवान बिरसा मुंडा तक पहुंचता है. अकादमिक विमर्शों का दायरा भी यही है.
यहां बिरहोर-परहिया का भ्रमणशील, बिरिजिया-पहाड़िया जैसी झूम खेती वाले समुदायों के साथ अगर संताल-मुंडा-हो-खड़िया-उरांव-बेदिया जैसे व्यवस्थित कृषक समुदाय हैं, तो चेरो-खेरवार, भूमिज जैसे शासक-राजवंशीय समुदाय भी हैं. इन समुदायों में राजा बहुत हुए हैं, बहुत लंबा शासन रहा है. जैसे चेरो राजवंश का शासन पलामू से पूरा रोहतास, भोजपुर, चंपारण तक 1200 ईस्वी से 1857 ईस्वी तक रहा है.
इनका इतना लंबा शासन रहा है पर कुछ लोग ही मेदिनीराय या अन्य शासक का नाम जानते हैं. इसी तरह से राजगोंड का मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, ओड़िशा के कुछ हिस्सों में शासन रहा है. इतिहासकारों द्वारा एक दूसरी छवि बनायी गयी है आदिम जनजाति की, जो केवल जंगलों में घूमते रहते हैं. जैसे बिरहोर आदि. जबकि इतिहासकारों को जनजाति राजवंशों के बारे में जानकारी ही नहीं है.
हाल के दिनों में केवल भगवान बिरसा मुंडा का ही लिखित दस्तावेज व इतिहास मिलता है. डॉ रणेंद्र ने बताया कि यही वजह है कि सरकार ने शोध कराने का फैसला किया है और यह शोध वृहत स्तर पर प्रमाणिक दस्तावेज होगा. आदिवासियों के स्वर्णिम इतिहास को लिपिबद्ध किया जायेगा.