मातम व शोक मनाने का है त्योहार: ईस्माइल कादरी
शिवहर : जिले में मुस्लिम समुदाय के लोग सितंबर माह के 10वीं तारीख को मुहर्रम पर्व इमाम हसन/हुसैन की याद में मनाते हैं. रविवार आठवीं तारीख को शहर के थाना रोड स्थित कर्मचारी भवन के पास इमामबाड़ा में विभिन्न मोहल्लों के लोग फातिहा खानी कराने पहुंचते हैं. जहां इमामबाड़े पर मौलाना के द्वारा नजरों नियाज […]
शिवहर : जिले में मुस्लिम समुदाय के लोग सितंबर माह के 10वीं तारीख को मुहर्रम पर्व इमाम हसन/हुसैन की याद में मनाते हैं. रविवार आठवीं तारीख को शहर के थाना रोड स्थित कर्मचारी भवन के पास इमामबाड़ा में विभिन्न मोहल्लों के लोग फातिहा खानी कराने पहुंचते हैं. जहां इमामबाड़े पर मौलाना के द्वारा नजरों नियाज वो फातिहा पढ़ा गया.
सितंबर माह के पहली तारीख से इस्लाम धर्म का नया साल शुरु हो गया है, जो इसी महीने की 10 वीं तारीख को रोज ए आशुरा यानी अंग्रेजी कैलेंडर में मुहर्रम कहा जाता है. लेकिन मुहर्रम खुशियों का त्योहार नहीं, बल्कि मातम व शोक मनाने का पर्व है. इस अवसर पर रविवार की रात्रि से सोमवार की सुबह तक शहर के विभिन्न चौक चौराहों पर मुस्लिम समुदाय के लोगों ने जुलूस निकालने के साथ इमाम हसन/हुसैन की याद में तरह-तरह के करतब करते देखा गया.
दुनिया में दास्तान ए करबला शहादत की है मिसाल: शिवहर. उक्त जानकारी देते हुए शहर के गुदरी बाजार स्थित जामे मस्जिद के इमाम मौलाना मोहम्मद इस्माइल कादरी ने इमामबाड़ा पर लोगों को कहा कि इस्लाम धर्म में एक ऐसी घटना है. जिसे दुनिया (दास्तान ए करबला) के नाम से जानती है. इराक के करबला नामक स्थान पर घटित हुई करबला की दास्तान जहां सच्चाई, त्याग, सहनशक्ति, कर्तव्य, धर्मपरायणता व वफादारी की मिसाल पेश करती हैं.जबकि दूसरे पक्ष में जुल्म, बर्बरता, अधर्म व हैवानियत तथा सत्ता लोभ का चरमोत्कर्ष नजर आता है. मौलाना ने यह भी कहा कि लगभग 1400 वर्ष पूर्व हजरत मोहम्मद के नवासे हजरत हुसैन ने यजीद जैसे दुष्ट, क्रूर व अत्याचारी सीरियाई शासक को एक इस्लामी राष्ट्र के मुस्लिम बादशाह के रूप में मान्यता देने से इंकार कर दिया था.
हालांकि हजरत इमाम हुसैन ने यजीद जैसी मजबूत व भारी भरकम सेना अपने पास न होने के बावजूद अपने परिवार के छह माह के बच्चे अली असगर से लेकर 80 वर्ष के पारिवारिक बुजुर्ग मित्र हबीब इबने मजाहिर जैसे वफादार साथियों की मात्र 72 लोगों की जांबाज टोली के साथ करबला के मैदान में विशाल यजीदी लश्कर का सामना करते हुए अपना व अपने साथियों का बलिदान देकर इस्लाम धर्म की रक्षा की थी. जिसमें मात्र 72 लोगों ने अपनी कुर्बानी देकर यजीदी के विशाल सेना को परास्त कर दिया था.साथ ही उसे नैतिक पतन की उस मंजिल तक पहुंचा दिया था कि आज भी अजीद न केवल जुल्मों/सितम, क्रूरता व बर्बरता की एक मिसाल बन चुका है.
बल्कि आज कोई भी माता-पिता अपने बच्चे का नाम (यजीद) नहीं रखते हैं. हजरत इमाम हुसैन ने 10 मोहर्रम यानी रोजे आशूरा की एक दिन की करबला की लड़ाई में अपनी व अपने परजिनों की कुर्बानी देकर एक एैसा इतिहास लिख दिया. जो दुनिया में एक मिसाल के तौर पर याद किया जाता रहा है.उसी वक्त से यह कहावत प्रचलित हो चली है कि (मरो हुसैन की सूरत जियो अली की तरह) गोया सच्चाई की राह पर चलने वालों को हिंसा, जुल्म, अन्याय व अधर्म के विरुद्ध हर हाल में अपनी आवाज बुलंद करनी चाहिए. जिसको लेकर 10 सितंबर को मुस्लिम समुदाय के लोग आज ही के दिन हुसैन की याद में मुहर्रम पर्व को मनाते हैं.
