बिहार की धरती पर उम्मीद का सूरज, स्मार्ट खेती से ‘जीरो हंगर, जीरो कार्बन’ का लक्ष्य होगा हासिल
New hope For Bihar: बिहार की धरती पर एक ऐसा सफल शोध सामने आया है, जिससे न केवल किसानों की आय में वृद्धि होगी, बल्कि कार्बन उत्सर्जन में भी कमी आयेगी. इस शोध का लक्ष्य ‘जीरो हंगर, जीरो कार्बन’ है. यानी कार्बन उत्सर्जन को शून्य के स्तर पर लाना और धान के साथ-साथ अन्य वैकल्पिक खेती के जरिये किसानों की आय बढ़ाना.
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New hope For Bihar: बिहार की मिट्टी अब सिर्फ अन्न नहीं, बल्कि जलवायु-संतुलन की कहानी भी लिखेगी. ग्लोबल वार्मिंग और कृषि-प्रदूषण की दोहरी चुनौती के बीच, टाटा-कॉर्नेल इंस्टीट्यूट फॉर एग्रीकल्चर एंड न्यूट्रिशन ने 3 रास्ते बताये हैं, जो कृषि को अधिक उत्पादक और पर्यावरण के अनुकूल बना सकते हैं. समुदाय-आधारित एग्रिवोल्टिक्स, उन्नत पशु प्रजनन और बेहतर धान प्रबंधन. टीसीआई ने कहा है कि स्मार्ट खेती के दम पर बिहार ‘जीरो हंगर, जीरो कार्बन’ का लक्ष्य हासिल किया जा सकता है.
सरकारी अधिकारी और शोधकर्ता हुए कार्यक्रम में शामिल
कार्यक्रम में बिहार सरकार के अधिकारी, शोधकर्ता और निजी क्षेत्र के प्रतिनिधि शामिल हुए. टीसीआई के निदेशक प्रो प्रभु पिंगली ने कहा कि कृषि उत्पादन बढ़ाना और उत्सर्जन घटाना तभी संभव है, जब सरकारी विभाग, निजी क्षेत्र और अनुसंधान संस्थान मिलकर काम करें.
क्लाइमेट रिजिलिएंट एंड लो कार्बन डेवलपमेंट पाथ-वे
इस अवसर पर कृषि विभाग के प्रधान सचिव पंकज कुमार ने कहा कि राज्य की कृषि रोडमैप और जल जीवन मिशन के साथ एग्रिवोल्टिक्स और रेनवाटर हार्वेस्टिंग जैसे समाधान जोड़े जा सकते हैं. वहीं, पर्यावरण विभाग के एस चंद्रशेखर ने बताया कि वर्ष 2024 में मुख्यमंत्री ने UNEP के साथ मिलकर ‘क्लाइमेट रिजिलिएंट एंड लो कार्बन डेवलपमेंट पाथ-वे’ कार्यक्रम की शुरुआत की थी.
गया जिले में पहली बार एग्रिवोल्टिक्स मॉडल
टीसीआई के सॉयल साइंटिस्ट (मृदा वैज्ञानिक) डॉ हेरॉल्ड वैन एस ने बताया कि गया जिले में 6 किसानों के साथ सौर ऊर्जा आधारित सिंचाई प्रणाली तैयार की गयी है. 20 किलोवॉट का यह सौर संयंत्र ड्रिप और स्प्रिंकलर सिंचाई की मदद से किसानों के लिए जल और ऊर्जा दोनों की बचत कर रहा है. इस मॉडल से किसानों की उपज में सुधार और मीथेन उत्सर्जन में कमी आयी है.
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New hope For Bihar: ‘एग्रिवोल्टिक्स’ से दोहरी फसल
कॉर्नेल यूनिवर्सिटी में मिट्टी और जल प्रबंधन विशेषज्ञ वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ हेरॉल्ड वैन एस ने बताया कि गया जिले में 6 किसानों के साथ मिलकर पहला एग्रिवोल्टिक्स इंस्टॉलेशन तैयार किया गया. यह मॉडल दिखाता है कि सौर ऊर्जा का उत्पादन और खेती साथ-साथ हो सकते हैं. उन्होंने बताया कि 20 किलोवॉट के इस सोलर सेटअप से किसानों के खेतों में ड्रिप और स्प्रिंकलर विधि से सिंचाई होती है. पहले किसान अपने धान के खेतों को पानी में डुबो देते थे, अब नियंत्रित सिंचाई से मिट्टी की उर्वरता बढ़ी है और मीथेन उत्सर्जन घटा है.
डॉ हेरॉल्ड वैन कहते हैं, ‘गया का यह सौर संयंत्र साबित करता है कि छोटे किसान भी आधुनिक तकनीक के साथ जलवायु के हित में बदलाव ला सकते हैं. यह मॉडल बिहार ही नहीं, पूरे भारत में दोहराया जा सकता है. यह संयंत्र PRAN और जैन इरिगेशन सिस्टम्स (Jain Irrigation Systems) के सहयोग से विकसित किया गया था, जो ग्रामीण संसाधनों और ऊर्जा के कुशल उपयोग का उदाहरण बना.
पशुपालन और धान उत्पादन में नवाचार
टीसीआई की शोधकर्ता सुमेधा शुक्ला ने बताया कि ‘सेक्स-सॉर्टेड सीमेन’ तकनीक से मादा बछड़ों की संख्या बढ़ायी जा सकती है. इससे दूध उत्पादन और किसानों की आय दोनों बढ़ेंगे. इससे वर्ष 2050 तक 6.7 मीट्रिक टन कार्बन उत्सर्जन कम होने और 20.75 करोड़ रुपए की अतिरिक्त आय हो सकती है.
दूध और मुनाफा बढ़ाने का रास्ता
सुमेधा ने ‘सेक्स-सॉर्टेड सीमेन’ (Sex-Sorted Semen) तकनीक द्वारा उन्नत कृत्रिम गर्भाधान के परिणाम साझा किये. इस तकनीक से गायों में मादा बछड़ों की संख्या अधिक होने से दूध उत्पादन बढ़ता है और गैर-उत्पादक नर पशुओं की संख्या घटती है. उन्होंने बताया कि पारंपरिक तरीकों की जगह यह तकनीक अपनाने से वर्ष 2050 तक 6.7 मीट्रिक टन उत्सर्जन घटाया जा सकता है.
‘सेक्स-सॉर्टेड सीमेन’ में लागत है सबसे बड़ी बाधा
‘सेक्स-सॉर्टेड सीमेन’ तकनीक की सबसे बड़ी बाधा लागत है. इसे दूर करने के लिए TCI ने BAIF Development Research Foundation के साथ मिलकर जागरूकता अभियान चलाया. परिणामस्वरूप किसानों की इसे अपनाने की इच्छा 27 प्रतिशत और सेवा के लिए भुगतान की इच्छा 7 प्रतिशत बढ़ी. सुमेधा ने कहा कि जब किसानों के बीच भरोसा और जानकारियां बढ़ेंगी, तभी यह तकनीक व्यापक रूप से अपनायी जा सकेगी.
धान उत्पादन में नयी क्रांति : कम खाद, अधिक लाभ
कॉर्नेल यूनिवर्सिटी के डॉ एंड्रयू मैकडोनाल्ड ने बिहार और पूर्वी भारत के धान उत्पादन पर आधारित रिसर्च पेश की. उनका कहना था कि बिहार के किसान अगर नाइट्रोजन-आधारित उर्वरक का समझदारी से उपयोग करें, तो उपज घटेगी नहीं, बल्कि लाभ बढ़ेगा. उन्होंने कहा कि बिहार के करीब 50 फीसदी किसान नाइट्रोजन की मात्रा घटाकर भी उतना ही उत्पादन कर सकते हैं. साथ ही उन्होंने कहा कि उत्तर बिहार के कुछ हिस्सों में खाद बढ़ाने की जरूरत है.
मैकडोनाल्ड ने यह भी बताया कि धान की खेती से निकलने वाला मीथेन उत्सर्जन वैश्विक कृषि उत्सर्जन का लगभग 50 प्रतिशत है. लगातार जलभराव से उत्सर्जन बढ़ता है, लेकिन अब डेटा बता रहे हैं कि बिहार में जलस्तर की स्थिति एक समान नहीं है. इसलिए जरूरी है कि राज्य के ‘उत्सर्जन हॉटस्पॉट्स’ को चिह्नित कर स्थानीय परिस्थितियों के आधार पर समाधान लागू किये जायें.
विभिन्न मंत्रालय, निजी क्षेत्र और अनुसंधान संस्थान एक साथ करें
टीसीआई के निदेशक डॉ प्रभु पिंगली ने कहा कि बिहार के विकास और उत्सर्जन घटाने के लक्ष्य तभी पूरे होंगे, जब विभिन्न मंत्रालय, निजी क्षेत्र और अनुसंधान संस्थान एक साथ काम करें. उन्होंने कहा कि कृषि उत्पादन बढ़ाना और ग्रीनहाउस गैस कम करना दोनों कठिन लक्ष्य हैं. इसके लिए नीति निर्माण से लेकर मैदान की गतिविधियों तक, सबको एक दिशा में चलना होगा.
बिहार सरकार के कृषि विभाग के प्रधान सचिव पंकज कुमार ने भी स्वीकार किया कि अब खेती केवल अधिक उत्पादन का सवाल नहीं, बल्कि पर्यावरणीय संतुलन का भी विषय है. उन्होंने कहा कि राज्य के कृषि रोडमैप और जल जीवन मिशन को जल-संवर्धन, रेनवाटर हार्वेस्टिंग और एग्रिवोल्टिक्स जैसी तकनीकों से जोड़ा जा सकता है.
पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन विभाग के राज्य नोडल ऑफिसर एस चंद्रशेखर ने बताया कि वर्ष 2024 में मुख्यमंत्री ने ‘क्लाइमेट रिजिलिएंट एंड लो-कार्बन डेवलपमेंट पाथवे’ की शुरुआत की थी, जिसे UNEP के सहयोग से 38 जिलों में परामर्श के बाद तैयार किया गया.
5 सबसे खास बातें
- 3 तकनीकी हस्तक्षेप : एग्रिवोल्टिक्स, सेक्स-सॉर्टेड सीमेन और धान प्रबंधन
- सौर ऊर्जा पर आधारित सामुदायिक सिंचाई मॉडल : गया में 6 किसानों के लिए संचालित
- कृत्रिम गर्भाधान से संभावित 20.75 करोड़ रुपए की अतिरिक्त आय की संभावना
- धान से होने वाले कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए ऑल्टरनेट वेटिंग-ड्राइंग तकनीक का सुझाव
- UNEP के सहयोग से बिहार के 38 जिलों में क्लाइमेट-रेजिलिएंट डेवलपमेंट पाथ-वे पर चल रहा काम
अकादमिक शोध से नीति तक
टाटा-कॉर्नेल इंस्टिट्यूट एक दीर्घकालीन शोध पहल है, जिसका उद्देश्य भारत जैसे देशों में गरीबी कम करने और पोषण सुधारने के लिए फूड-सिस्टम आधारित समाधान विकसित करना है. न्यूयॉर्क के कॉर्नेल विश्वविद्यालय और नयी दिल्ली स्थित सेंटर ऑफ एक्सलेंस से जुड़े इसके शोधकर्ता मिट्टी, स्वास्थ्य, अर्थशास्त्र और सामाजिक विज्ञान सबको साथ लेकर कृषि विकास के नये मॉडल तैयार कर रहे हैं.
टीसीआई ने यह स्पष्ट किया है कि ‘जलवायु-स्मार्ट कृषि’ कोई अवधारणा नहीं है. बिहार जैसे सूखा-ग्रस्त और जनसंख्या-घनत्व वाले राज्य की आवश्यकता है. यह पहल न सिर्फ किसानों की आय बढ़ाने की दिशा में कदम है, बल्कि यह भारत की ‘नेट-जीरो’ यात्रा में भी योगदान दे सकती है.
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