बचपन में अखबार निकालने का सपना देखते थे बेनीपुरी

Ramvriksha Benipuri: रामवृक्ष बेनीपुरी हिंदी साहित्य के शुक्लोत्तर युग के प्रसिद्ध साहित्यकार थे. विशिष्ट प्रकार की अलंकृत भाषा तथा भावुकता प्रधान शैली के कारण हिंदी गद्य के इतिहास में उनका एक अलग स्थान रहा है. महात्मा गांधी के आह्वान पर वह बहुत कम उम्र में स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े थे. वे केवल साहित्य मनीषी ही नहीं, स्वतंत्रता सेनानी भी थे.

By मनोज मोहन | December 24, 2025 5:41 PM

Ramvriksha Benipuri: ‘मशाल-ज्योति का प्रतीक. वह ज्योति जो हमारी मुट्ठी में हो. हां, मशाल मनुष्य की उस विजय की सूचना है, जब उसने पंच प्रकृतियों- क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर- में सबसे भयानक पावक, अग्नि पर कब्जा किया, उसे मुट्ठी में लिया और विधाता को चुनौती दी. विधाता को चुनौती! लो, ओ विधाता, दिन बनाकर तुम्हें संतोष नहीं हुआ, तो तुमने रात बनायी- प्रकाश तुम्हारे लिए काफी नहीं था. तुमने अंधकार बनाया. अंधकार बनाया और हमें उसमें भटकने, तड़‌पने, बिलबिलाने, चिल्लाने को छोड़ दिया. हम चिल्लाते रहे- तमसो मा ज्योतिर्गमय. और तुम कभी तारे की झिलमिल, चांद की चकमक, बिजली की लुक-छिप और जुगनू की भुक-भुक के बहाने हम पर मुस्कराते रहे, हंसते रहे. ओहो, ठहाके मारते रहे. किंतु अब? अब हमारे हाथ में यह मशाल, यह ज्योतिर्लिंग है, अब? बोलो, लजाते क्यों हो! बुड्ढे!’ इन पंक्तियों के लेखक रामवृक्ष बेनीपुरी ने यह शब्दचित्र 1949 में खींचा था.

वह भारत के एक महान विचारक, चिंतक, मनन करने वाले क्रांतिकारी साहित्यकार, पत्रकार, संपादक के रूप में जाने जाते रहे हैं. वह हिंदी साहित्य के शुक्लोत्तर युग के प्रसिद्ध साहित्यकार थे. विशिष्ट प्रकार की अलंकृत भाषा तथा भावुकता प्रधान शैली के कारण हिंदी गद्य के इतिहास में रामवृक्ष बेनीपुरी का एक अलग स्थान रहा है. उनकी ‘माटी की मूरतें’ नामक कृति बहुत प्रसिद्ध है. इसमें संकलित विभिन्न रेखाचित्र (शब्दचित्र) प्रतिदिन के सामाजिक जीवन तथा व्यक्तियों की सहज-सरस अनुकृति हैं. इन व्यक्तिचित्रों के अंकन में बेनीपुरी के हृदय ने उनका साथ दिया. इसी कारण भारत में, हिंदी भाषा में सबसे ज्यादा बिकने वाली पुस्तक ‘माटी की मूरतें’ ही मानी जाती है. राष्ट्र निर्माण, समाज संगठन और मानवता के जयगान को लक्ष्य मानकर बेनीपुरी ने ललित निबंध, रेखाचित्र, संस्मरण, रिपोर्ताज, नाटक, उपन्यास, कहानी, बाल साहित्य आदि विविध गद्य विधाओं में जो महान रचनाएं प्रस्तुत की हैं, वे आज की युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणास्रोत हैं.

विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में संपादक की हैसियत से लिखी गयी उनकी टिप्पणियों तथा अग्रलेखों की संख्या भी कम नहीं है. उन्होंने कई ग्रंथों का संपादन भी किया है तथा कुछ टीकाएं भी लिखी हैं. उनकी रचनाओं में कहानी, उपन्यास, नाटक, रेखाचित्र, संस्मरण, जीवनी, यात्रा-वृत्तांत, डायरी आदि तो हैं ही, उन्होंने कीट्स, शेली, बायरन और वर्ड्सवर्थ की चुनी हुई कविताओं का अनुवाद भी किया है. उनके अनुवाद पर कवि और संस्कृतिकर्मी अशोक वाजपेयी का कहना है कि ‘मुझे याद नहीं आता कि किसी और व्यक्ति ने अंग्रेजी के इस कालजयी कवियों की कविताओं के हिंदी में ऐसे सुघड़ और पठनीय अनुवाद किये हों.’ अनुवाद में बेनीपुरी जी की क्षमता निश्चित ही असाधारण थी. ये सारे अनुवाद उन्होंने हजारीबाग सेंट्रल जेल में रहते हुए किये.

महात्मा गांधी के आह्वान पर बहुत कम उम्र में बेनीपुरी स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े थे. ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ में उन्होंने पूरी सक्रियता से भाग लिया और आठ वर्ष जेल में गुजारे. ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के दौरान पलायन की दो घटनाओं में उनका योगदान महत्वपूर्ण है. पहली घटना है हजारीबाग जेल से जयप्रकाश नारायण (जेपी) के फरार होने की और दूसरी है नेपाल के हनुमान नगर थाने से डॉ लोहिया को छुड़ाने की. दोनों घटनाओं के सूत्रधार कोई और नहीं, रामवृक्ष बेनीपुरी ही थे.

कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी बनाने के पहले उन्होंने साथियों के साथ बिहार सोशलिस्ट पार्टी बनायी थी. चुनाव भी लड़ा, हारे और जीते भी. पं नेहरू की आलोचना कर कई नुकसान भी उठाये. उन्होंने 1946 में जेपी की जीवनी तब लिख दी थी जब वह लोकनायक नहीं बने थे. पर जब आलोचना की बारी आयी, तब वह जेपी की भी आलोचना करने से बाज नहीं आये. इतने किरदारों के बाद भी उनके जीवन में पत्रकारिता संभवत: सर्वाधिक महत्वपूर्ण रही. उन्होंने बचपन में कविता लिखने के अतिरिक्त अखबार निकालने का भी सपना देखा था.

ऐसा सपना कि 14 वर्ष की उम्र में वह हर भाषा के उत्कृष्ट पत्रों को देखने की आकांक्षा में ‘मॉडर्न रिव्यू’ (अंग्रेजी), ‘जमाना’ (उर्दू) ‘भारतवर्ष’ (बांग्ला) आदि मासिक पत्र खरीदने लगे थे. हालांकि उस समय उन्‍हें न अच्छी तरह अंग्रेजी आती थी, न ही उर्दू या बांग्ला. साथी इस पर हंसते, तो कहते, ‘मुझे संपादक बनना है, इसलिए देख लेता हूं कि दूसरी भाषाओं में कैसी पत्र-पत्रिकाएं निकलती हैं.’ अपने जीवनकाल में उन्होंने ‘बालक’, ‘तरुण भारती’, ‘युवक’, ‘किसान मित्र’, ‘जनता’, ‘हिमालय’, ‘नई धारा’, ‘चुन्नू-मुन्नू’, ‘योगी’ आदि पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)