वैचारिक समन्वय के पक्षधर थे मधु लिमये

डॉ लोहिया अपने राजनीतिक प्रयोग में वामपंथ को शामिल किये होते और डॉ आंबेडकर का असमय निधन न हुआ होता, तो स्वतंत्रता और समता का आश्वासन देने वाली समाजवादी व्यवस्था के निर्माण की मजबूत आधार भूमि तैयार हो गयी होती.

By नरेंद्र पाठक | April 29, 2022 9:31 AM

नरेंद्र पाठक, लेखक एवं टिप्पणीकार

narendrapathak1965@gmail.com

मधु लिमये ने मुझे अपनी एक किताब 20 नवंबर, 1994 को दी थी. वह किताब थी ‘डॉ आंबेडकर एक चिंतन.’ मेरी राय में डॉ आंबेडकर के विचारों पर सबसे प्रामाणिक किताब है. उस किताब को पढ़ते हुए उसके पन्नों पर ही मैं अपनी राय लिखता गया. दो दिन बाद उनसे मिलने गया. तब उन्होंने उस किताब पर मेरी राय जाननी चाही. उस किताब को उनकी ओर बढ़ा दिया. कुछ देर तक पूरी किताब पर सरसरी निगाह डाल कर उन्होंने आलमारी से एक दूसरी किताब निकाल कर मुझे दी. उन्होंने कहा कि ‘स्वतंत्रता आंदोलन की विचारधारा’ नाम से प्रकाशित इस पुस्तक का संपादन कर पुनः प्रकाशित करवाओ.

उन्होंने कहा कि डॉ आंबेडकर के विचारों पर लिखी मेरी किताब में जो टिप्पणी तुमने की है, चाहो तो अपनी टिप्पणियों के साथ उस किताब को पुनःप्रकाशित करवा सकते हो, पर ध्यान रखना, डॉ आंबेडकर की मूर्ति की पूजा करनेवाले तो बहुत हैं, उनकी बातों को ग्रहण करनेवाले बहुत कम हैं. इससे तुम्हारे लिए आलोचना के कई मुहाने खुलने की आशंका है. मैंने कहा कि आपने जिस प्रमाणिकता के साथ डॉ आंबेडकर के विचार-प्रवाह की व्याख्या की है, उसे पुनः प्रकाशित करना आपकी कलम पर ऊंगली उठाने जैसा होगा. चंपा लिमये जी मेरी बात से सहमत थीं, पर उन्होंने कहा कि ‘मधु’ को तो यह अच्छा लगेगा कि तुम इनकी बात की आलोचनात्मक व्याख्या करोगे.’

उस दिन पंडारा पार्क, नयी दिल्ली के उसे छोटे से घर में मधु जी और चंपा जी का जो स्नेह मिला, उसकी गरमाहट मेरे जीवन की धरोहर है. कर्पूरी ठाकुर के बहाने मैं समाजवादी आंदोलन का जितना अध्ययन कर पाया, उसमें मधु जी ही मेरे मार्गदर्शक, साथी और आलोचक सब कुछ थे. उनकी नजर से ही मैं बिहार और पिछड़ी जातियों की गोलबंदी में कर्पूरी ठाकुर की भूमिका को समझ पाया. दुर्भाग्यवश, उनके जीवनकाल में मेरी वह किताब प्रकाशित नहीं हो सकी, किंतु चंपा जी ने किताब के पन्नों पर अपनी राय लिख कर क्षतिपूर्ति कर दी.

एक दिन गैर-कांग्रेसवाद के संदर्भ में और उसके सुफल पर बात शुरू करनी चाही, तो मधुजी आवेश में आ गये और कहे कि ‘मेरी बात को रिकॉर्ड करो’ और अपनी किताब में जरूर लिखो कि गैर-कांग्रेसवाद एक नकारात्मक प्रयोग था. मैं शुरू से ही इसके समर्थन में नहीं था, क्योंकि तब उस प्रयोग का ठीक से मूल्यांकन नहीं हुआ. जब नेहरू की आर्थिक नीतियां विफल हो रही थीं, हर तरफ असंतोष बढ़ रहा था, विदेश नीति के स्तर पर गुटनिरपेक्ष आंदोलन भले सफल दिख रहा था, लेकिन धीरे-धीरे चीन हमारी जमीन हड़प रहा था. तब समाजवादी आंदोलन को राजनीतिक गोलबंदी की प्रयोगशाला बनना चाहिए था. वाम और हर प्रकार के संघर्ष के मित्रों को अपना मंच बनना चाहिए था.

उन्होंने आगे कहा, डॉक्टर लोहिया से इस पर मेरी और अन्य साथियों की लंबी बात हुई थी, किंतु वे अपने निर्णय से पीछे नहीं हटना चाहते थे. तब मैंने चुप रहना ही ठीक समझा,लेकिन ध्यान रखना कि किसी राष्ट्र या समाज के जीवन में जब कोई निर्णय प्रतिद्वंद्विता के आधार पर लिया जाता है, तब ठीक से मूल्यांकन नहीं हो पाता है. इतिहास की वह बड़ी भूल थी जो हिंदुस्तान के सबसे बेहतरीन आदमी के द्वारा हुई. मधु जी अगले तीन-चार दिन तक अपनी बात को कई संदर्भ में समझाते रहे. सारांश यह था कि ‘1953 में वाम धारा और कर्पूरी ठाकुर जैसे सबसे बड़े जनाधार वाले साथी से पहले दूरी बना कर संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा) बना ली. फिर, जनसंघ से समझौता कर लिया.

आखिर वैचारिकी के किस प्लेटफॉर्म को हम तैयार कर रहे थे? क्या सिर्फ नेहरू विरोध ही हमारी राजनीति का लक्ष्य था. क्या हमें अपनी जमीन तैयार नहीं करनी चाहिए थी. आखिर कांग्रेस का निर्माण एक दिन में तो हुआ नहीं था. गुलामी के हर प्रकार के बंधनों को तोड़ कर स्वतंत्रचेता समाज व राष्ट्र के निर्माण के लक्ष्य को सामने रख कर विभिन्न तबको के बेहतरीन लोगों ने कांग्रेस नामक स्वतंत्रता आंदोलन की पार्टी निर्मित की थी. क्या कुछ ही वर्षों में उसका विकल्प बनाने का अहंकार नहीं पाल बैठे थे? उन्होंने कहा था कि ‘ध्यान रखना कि जब वैचारिकी से समझौता होगा, तब उद्देश्य का सुफल प्राप्त नहीं हो सकता.’

मधु लिमये के चिंतन को मैं जितना समझ पाया हूं, उसका सारांश यही है कि डॉ लोहिया अपने राजनीतिक प्रयोग में वामपंथ को शामिल किये होते और डॉ आंबेडकर का असमय निधन नहीं हुआ होता, तो ‘स्वतंत्रता और समता का आश्वासन देने वाली समाजवादी व्यवस्था के निर्माण की मजबूत आधार भूमि तैयार हो गयी होती.’

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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