आतंक के विरुद्ध हों एकजुट

हम भारतीयों की त्रासदी को बिहारी, गुजराती आदि में नहीं बांट सकते. गुजरात में बिहारी की रक्षा के लिए देश के दूसरे राज्य के नेताओं को भी आगे आना होगा.

By तरुण विजय | October 26, 2021 8:22 AM

टी ट्वेंटी के अजीब खुमार में बहकर यदि कोई यह कहे कि पंजाबी विराट कोहली या मराठी सचिन तेंदुलकर और कुमाऊंनी महेंद्र सिंह धौनी का जमाना भी क्या जमाना था, तो निश्चित ही त्योरियां चढ़ जायेंगी और भले-भले से दिखनेवाले मीडिया सायरन तथा सेक्युलर नेता कहेंगे कि यह क्या बेहूदगी है. ये सब हैं, मराठी, पहाड़ी, पंजाबी नहीं, लेकिन जब बिहार से गरीब मजदूर कश्मीर गये, जहां इस्लामी जिहादी पशुतुल्य आतंकवादियों ने उन्हें गोलियों का शिकार बनाया तथा उनको कश्मीर त्यागने पर मजबूर किया गया, तो उनके लटके उदास चेहरों के फोटो छापते हुए मीडिया और नेताओं ने उनको बिहारी कहा, मगर सच यह भी है कि ये भारतीय हैं.

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि कश्मीर में मारे गये लोग किसी-न-किसी प्रदेश से ताल्लुकत रखते हैं और वहां के लोगों के लिए ऐसी घटनाएं दुख पहुंचाने और गुस्सा देने वाली होती हैं. वहीं, ऐसे लोग भारत के हैं, जिनका दुख व संताप भारत का दुख और संताप है.

कश्मीर में कायर जिहादियों ने भारत को आहत करना चाहा था. यह ठीक वैसा ही है, जैसा कि जब सोमनाथ ध्वस्त करने गजनवी आया था, तो उसने हिंदुस्तान पर हमला किया था, बाबर हिंदुस्तान जलाने और लूटने आया था. अंग्रेजों ने बंगालियों या पंजाबियों पर हमला नहीं किया था, उनका हमला था हिंदुस्तान पर. इसलिए हमें इन आतंकियों के हमलोंं को पंडितों की समस्या और वहां मार डाले गये, पुनः निष्क्रमण को मजबूर कर दिये गये लोगों को भारतीय दृष्टि से देखना होगा.

तभी जिहादियों का के मनसूबे को तोड़ सकते हैं. भले इन घटनाओं में बिहार के लोग मारे गये हैं, लेकिन हम चाहे किसी भी अन्य प्रदेश के हों, हमें इसके खिलाफ आवाज बुलंद करनी ही होली. टुकड़ा-टुकड़ा राजनीति का विषवृक्ष हम तैयार नहीं कर सकते. तभी इसका परिणाम सफलता के रूप में मिलेगा, अमृत के रूप में मिलेगा. चार सौ साल पहले पंडित किरपा राम और ग्यारह कश्मीरी गुरु तेग बहादुर जी के पास अपनी धर्म रक्षा के लिए गुहार लगाने गये थे. हिंदू-मुस्लिम एकता का सूफी पाखंड रचनेवाले समझें कि वे अपनी रक्षा के लिए किसी सूफी या मौलवी के पास नहीं गये थे, जिस पर विश्वास था, उस महापुरुष के पास गये थे.

हम भारतीयों की त्रासदी को बिहारी, गुजराती आदि में नहीं बांट सकते. गुजरात में बिहारी की रक्षा के लिए देश के दूसरे राज्य के नेताओं को भी आगे आना होगा. ऐसा ही अन्य राज्यों के प्रभावित होने वाले लोगों के प्रति हमें करना होगा. सिख बिहार में हो या महाराष्ट्र में, पटना साहेब में माथा टेके या नांदेड़ साहेब में, उसकी पहचान यदि भारतीय के नाते है, तभी समानता, समरसता, सौमनस्य व सहअस्तित्व बचा रहेगा, वरना खंड-खंड मन देश की काया भी खंड- खंड बनायेगा.

समग्र भारत की दृष्टि थी, तो बाबू राजेंद्र प्रसाद या जेपी बिहारी नहीं, भारतीय थे. जब गुरु गोबिंद सिंह पटना आये, तो भारतीय के नाते आये, पंजाबी के नाते नहीं. अखबार और पत्रकारिता का कलेवर कभी अखिल भारतीय हुआ करता था. हमें अब भी अपनी राजनीति और पत्रकारिता को अखिल भारतीय सोच वाली बनाये रखने की जरूरत है.

राजनेता जितना ज्यादा संकुचित और सीमित दायरे में सोचते हैं, उतना ही उनको जमीन से जुड़ा हुआ नेता कहा जाता है. देश में एक भी ऐसी क्षेत्रीय पार्टी नहीं, जो अगर उत्तर प्रदेश से है, तो कश्मीर या नागालैंड पर भी विचार और चिंता व्यक्त करे अथवा यदि तमिलनाडु से है, तो बिहार, महाराष्ट्र या मिजोरम पर भी सोच रखे. एकाध पार्टियों के अलावा सभी पारिवारिक सामंतशाहियां हैं. उन्हें न कभी आंतरिक चुनाव करने हैं, न ही देश के उन हिस्सों के बारे में सोचना है, जहां उनके वोट नहीं.

तो, फिर वे उन लोगों को बिहारी मजदूर कहे जाने पर क्यों चिंतित हों, जो उनको वोट देने की स्थिति में शायद हैं नहीं. भारतीय पहचान के ऊपर बिहारी पहचान लादना अपनी जिम्मेदारी से हाथ झाड़ लेने जैसा ही है. वह पहला मजदूर, जिसे कायर इस्लामी जिहादियों ने कायरता दिखाते हुए मार डाला, बामियान के बुद्ध की तरह तालिबान नरपशुओं को सदा चुनौती देता रहेगा, लेकिन उसकी धर्मपत्नी के उस बयान कि ‘किसी ने उनसे संपर्क नहीं किया और वे अपने पति का अंतिम दर्शन तक नहीं कर पायीं’ पर कितनों ने संपादकीय लिखे या कितने नेता उसके आंसू पोंछने गये, जो वोट बैंक की खरीदारी के लिए लखीमपुर लाइन लगते रहे?

राजनीतिक जय-जयकारों और विरोध के मरियल नारों के बीच ये सब बातें दब जायेंगी. फिर टी-ट्वेंटी का भी तो जोर है. भारतीयों के कश्मीर से निर्वासन को वैसे ही भुला दिया जायेगा, जैसे दलित लखबीर की पैशाचिक हत्या के साथ हुआ.

किसी दुर्घटना पर फायदे के हिसाब से बोलना, चुप रहना बेईमानी की राजनीति है, मानवीयता की नहीं. केवल डरपोक और चुनावी बाजीगरी में उस्ताद लोग ऐसा करते हैं. सही नेता तो सही वक्त वह मानता है, जब चीत्कारों से वातावरण गूंजता हो और चुनावी जीत-हार, राजनीतिक समर्थन-विरोध आदि की परवाह किये बिना वह न्याय के पक्ष में बोल दे. बिहार में जन्म लेना गौरव है, लेकिन बिहारी को बेचारे गरीब, अनाथ मजदूर होने का पर्याय बताकर हीनता की ग्रंथि दिखाना भारतीयता के विचार का घोर उल्लंघन है.

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