बर्थडे : Google ने Doodle बनाकर किया केएल सहगल को याद, ऐसा था ”देवदास” का दिलचस्प सफर
‘एक बंगला बने न्यारा, रहे कुनबा जिसमें सारा’ से रिश्तों को एक सूत्र में पिरोया तो दूसरी ओर अपनी आवाज में दर्द को बयां करते हुए ‘हाय हाय ये जालिम जमाना’ से दुनिया की कड़वी सच्चाई को सामने रखा. ‘बाबुल मोरा नैहर छूटो जाये’ से जहां उन्होंने घर छूटने के ग़म को सुनाया तो ‘बालम […]
‘एक बंगला बने न्यारा, रहे कुनबा जिसमें सारा’ से रिश्तों को एक सूत्र में पिरोया तो दूसरी ओर अपनी आवाज में दर्द को बयां करते हुए ‘हाय हाय ये जालिम जमाना’ से दुनिया की कड़वी सच्चाई को सामने रखा. ‘बाबुल मोरा नैहर छूटो जाये’ से जहां उन्होंने घर छूटने के ग़म को सुनाया तो ‘बालम आये बसो मेरे मन में’ से मुहब्बत की किलकारियों को गूंज दी. हम बात कर रहे हैं भारतीय सिनेमा जगत के पहले महानायक कहे जाने वाले के एल सहगल की.
गूगल ने दिग्गज गायक-अभिनेता को आज उनके 114वें जन्मदिन पर एक शानदार डूडल बनाकर याद किया है. आज का डूडल विद्या नागराजन ने बनाया है जिसमें सहगल को कोलकाता की पृष्ठभूमि में गाना गाते हुए दिखाया गया है.
बचपन से संगीत में रूचि
केएल सहगल का बचपन से ही गीत-संगीत की ओर रूझान था. उनकी मां धार्मिक कार्यक्रमों के साथ-साथ गीत-संगीत में भी काफी रूचि रखती थी. सहगल अक्सर अपनी मां के साथ भजन-कीर्तन जैसे धार्मिक कार्यक्रमों में जाया करते थे और अपने शहर में हो रही रामलीला में भी हिस्सा लेते थे. उन्हें बचपन से ही संगीत की गहरी समझ थी और एक बार सुने हुए गानों की लय को वह एक बार में पकड़ लेते थे
रेलवे की नौकरी और संगीत
सबसे पहले केएल सहगल ने संगीत के गुर एक सूफी संत सलमान युसूफ से सीखे. सहगल को अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ देनी पड़ी थी. उन्होंने जीवनयापन करने के लिए रेलवे में टाइमकीपर की छोटी सी नौकरी भी की थी. बाद में उन्होंने रेमिंगटन नामक टाइपराइटिंग मशीन की कंपनी में सेल्समैन की नौकरी भी की.
‘मोहब्बत के आंसू’
साल 1930 में कोलकाता के न्यू थियेटर शास्त्रीय संगीतकार और संगीत निर्देशक हरिश्चंद्र बाली ने कलकत्ता में उन्हें आर.सी बोराल से मिलवाया. वे सहगल की प्रतिभा से काफी प्रभावित हुए. कोलकाता के न्यू थियेटर के बी.एन.सरकार ने उन्हें 200 रुपये मासिक पर अपने यहां काम करने का मौका दिया. शुरूआती दौर में उन्हें बतौर अभिनेता साल 1932 में प्रदर्शित एक उर्दू फ़िल्म ‘मोहब्बत के आंसू’ में काम करने का मौका मिला. इसी साल उन्होंने दो और फ़िल्में ‘सुबह का सितारा’ और ‘ज़िन्दा लाश’ में काम किया. साल 1933 में प्रदर्शित फ़िल्म ‘पुराण भगत’ की कामयाबी के बाद बतौर गायक कुछ हद तक फ़िल्म उद्योग में उनकी पहचान होने लगी.
‘देवदास’, ‘सूरदास’ और ‘तानसेन’
साल 1935 में शरतचंद्र चटर्जी के लोकप्रिय उपन्यास पर आधारित पी.सी.बरूआ निर्देशित फ़िल्म ‘देवदास’ की सफलता के बाद सहगल बतौर गायक-अभिनेता शोहरत की बुंलदियों पर जा पहुंचे. इस फ़िल्म में उनके गाये गीत काफी लोकप्रिय हुये. बंगला फ़िल्मों के साथ-साथ उन्होंने न्यू थियेटर के लिये ‘प्रेसिडेट’, ‘साथी’, ‘स्ट्रीट सिंगर’ और‘ज़िंदगी’ जैसी कई कामयाब फ़िल्मों अभिनय और गायकी को लोहा मनवाया. साल 1941 में सहगल मुंबई के रणजीत स्टूडियो से जुड़ गये. साल 1942 में आई उनकी फिल्म ‘सूरदास’ और 1943 में ‘तानसेन’ ने टिकट खिड़की पर सफलता का नया इतिहास रच दिया
अंतिम समय और ‘अमर सहगल’
अपने दो दशकके सिने करियर में सहगल ने लगभग 36 फिल्मों में अभिनय किया. हिंदी के अलावा उन्होने उर्दू, बंगला, तमिल फ़िल्मों में भी अभिनय किया. सहगल ने अपने पूरे सिने करियर के दौरान लगभग 185 गीत गाये. जिनमें 142 फ़िल्मी और 43 गैर फिल्मी हैं. अपनी दिलकश आवाज़ से लोगों के दिलों की धड़कन बनने वाले के.एल. सहगल ने 18 जनवरी 1947 को इस संसार को अलविदा कह दिया. सहगल की मौत के बाद बी.एन.सरकार ने उन्हे श्रद्धांजलि देते हुये उनके जीवन पर एक वृत्तचित्र ‘अमर सहगल’ का निर्माण किया. इस फ़िल्म में सहगल के गायेए गीतों में से 19 गीत को शामिल किया गया.
