भारतीय बच्चों में फुटबॉल के प्रति दिलचस्पी जगाने की जरूरत

जी राजारमन वरिष्ठ खेल विशेषज्ञ हम भारतीयों की सबसे बड़ी समस्या यह है कि हम फुटबॉल खेलने को बहुत कम समर्थन देते हैं. फीफा विश्वकप आता है, तो जग जाते हैं, या फिर कोई बड़ा यूरोपियन लीग हो रहा होता है, तो हम टीवी देखने लग जाते हैं, नहीं तो सालों-साल फुटबॉल की कोई चर्चा […]

By Prabhat Khabar Print Desk | July 15, 2018 8:39 AM

जी राजारमन

वरिष्ठ खेल विशेषज्ञ
हम भारतीयों की सबसे बड़ी समस्या यह है कि हम फुटबॉल खेलने को बहुत कम समर्थन देते हैं. फीफा विश्वकप आता है, तो जग जाते हैं, या फिर कोई बड़ा यूरोपियन लीग हो रहा होता है, तो हम टीवी देखने लग जाते हैं, नहीं तो सालों-साल फुटबॉल की कोई चर्चा नहीं करते. इन बड़े आयोजनों के दौरान हमारे अखबार और टीवी खबरों से भरे रहते हैं. लेकिन इनके इतर हमें यह पता भी नहीं चलता कि भारत में ‘संतोष ट्रॉफी’ कब है.
हमारे बच्चों के बदन पर विदेशी फुटबॉलरों, जैसे मेस्सी या रोनाल्डो की तस्वीरों वाले टीशर्ट तो नजर आते हैं, लेकिन भारतीय फुटबॉलरों, जैसे बाईचुंग भूटिया या सुनील छेत्री को देश में ज्यादातर लोग तो पहचानते ही नहीं. और ना ही हमारे देश में लोग अपने बच्चों को फुटबॉल खेलने के लिए प्रेरित ही करते हैं.
जाहिर है, जब तक हम अपने बच्चों का साथ नहीं देंगे, तब तक वे आगे कैसे बढ़ेंगे? इन सब विडंबनाओं के लिए बड़ा जिम्मेदार हमारा मीडिया है. भारत के खेल पत्रकार बड़े-बड़े विदेशी आयोजनों में दिलचस्पी तो रखते हैं, लेकिन अपने देश में कहां-कितना फुटबॉल खेला जा रहा है, इस पर वे जरा भी ध्यान नहीं देते. यही वजह है कि देश में फुटबॉल के आयोजन होते हुए भी वे आम लोगों की जानकारी से दूर होते हैं. इसलिए सबसे पहले तो भारतीय मीडिया को यह सीखना चाहिए कि फुटबॉल जैसे बेहतरीन खेल को लेकर तमाम खबरों को दिखाये और छापे.
पता नहीं हमारी यह कौन-सी समस्या है कि जब कोई खिलाड़ी विश्व स्तर पर कोई रिकॉर्ड बनाता है, हम तभी उसे छापते-दिखाते हैं, जबकि वही खिलाड़ी पिछले कई सालों से देश में शानदार प्रदर्शन कर रहा होता है. जब तक हम उनके खेल को अपनी पहचान के स्तर पर ग्लैमराइज नहीं करेंगे, तब तक कैसे उनका मनोबल बढ़ेगा? मसलन, कबड्डी को जब टीवी पर दिखाया जाने लगा, तो लोग कबड्डी खिलाड़ियों को जानने लगे और उनके फैन उनके ऑटोग्राफ के लिए बेचैन होने लगे. कोई खेल खुद ग्लैमरस नहीं होता, जब तक हम उसे ग्लैमराइज न करें. यही चीज हम भारतीय लोगों और मीडिया को सीखना चाहिए, प्रो-कबड्डी से भी और फीफा विश्वकप से भी.
जहां तक खिलाड़ियों की बात है, तो एक खिलाड़ी बहुत मेहनत करके अपना मुकाम बनाता है. भारत में फुटबॉलर किसी-न-किसी क्लब के लिए खेलते हैं. और जब उनके पास पैसे आने लगते हैं, तो वे केवल क्लब के लिए ही खेलते रह जाते हैं. जबकि उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेलने की कोशिश करनी चाहिए. इसलिए थोड़ी मेहनत फुटबॉलरों को भी करने की जरूरत है. हम हमेशा सरकार को दोष देकर चुप हो जाते हैं कि फुटबॉल पर सरकार ध्यान नहीं दे रही है, लेकिन खुद कुछ नहीं करते. हम अपने बच्चों को फुटबॉल खेलने के लिए प्रेरित करते, तो हमारे बच्चे भी बेहतरीन खिलाड़ी बनते.
यह हमारी कमी है कि हम अपनी दोष को दूसरे का दोष बताकर अपनी जिम्मेदारी से बच निकलते हैं. भारतीय मीडिया जिस तरह से यूरोपीय फुटबॉल और खेलों को बढ़ावा देता है, उससे कहीं ज्यादा जरूरी यह है कि वह भारतीय फुटबॉल को बढ़ावा दे. साथ ही, सुनील छेत्री या भूटिया की तस्वीरों वाले टी-शर्ट भी बाजार में उतारे जाने चाहिए, ताकि हमारे बच्चों में फुटबॉल को लेकर ललक बढ़े. दुनिया के हर देश में फुटबॉल का एक लीग होता है, लेकिन भारत में दो लीग हैं और ये दोनों आपस में ही प्रतियोगिता करते हैं.
ऑल इंडिया फुटबॉल फेडरेशन को चाहिए कि वह इन बातों पर ध्यान दे और भारत जैसे बड़े बाजार को समझते हुए फुटबॉल को आम लोगों के बीच लाने की कोशिश करे. तीन काम हमें अभी शुरू कर देने चाहिए. पहला, मीडिया फुटबॉल को खबरों में प्रमुखता दे. दूसरा, खिलाड़ी अपनी मेहनत बढ़ाएं और तीसरा, भारतीय फुटबॉल संघ एक लीग बनाकर अंतरराष्ट्रीय स्तर के लिए फुटबॉल खिलाड़ियों को तैयार करे.

Next Article

Exit mobile version