बापू का नीलहा आंदोलन बना आजादी का आधार, शास्त्री जी की हरित क्रांति बनी भारत की आर्थिक ताकत

Gandhi Jayanti and Shastri Jayanti 2025: भारत में 2 अक्टूबर 2025 को विजयदशमी के साथ गांधी जयंती और शास्त्री जयंती का दुर्लभ संगम है. महात्मा गांधी का चंपारण नीलहा आंदोलन स्वतंत्रता संग्राम का आधार बना, जबकि लाल बहादुर शास्त्री की हरित क्रांति ने भारत की आर्थिक ताकत और कृषि आत्मनिर्भरता की नींव रखी. इस अवसर पर गांधीजी और शास्त्रीजी की क्रांतियों का इतिहास, उनके योगदान, और कैसे इन महान आंदोलनों ने भारत के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक विकास काफी महत्व रखती हैं.

By KumarVishwat Sen | October 2, 2025 2:28 PM

Gandhi Jayanti 2025: आज पूरा देश विजयदशमी यानी दशहरा का त्योहार मना रहा है, तो आज ही राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का जन्मदिवस भी है. यह एक दुर्लभ संयोग ही है कि आज 2 अक्टूबर 2025 को भारत के लोग तीन महत्वपूर्ण उत्सव एक साथ मना रहा है. इन उत्सवों में सबसे पहला दशहरा का पर्व, दूसरा मानवता के लिए विनाशकारी रावण का पुतला दहन, तीसरा महात्मा गांधी यानी बापू और लाल बहादुर शास्त्री जन्मदिवस शामिल है. इन तीनों में समानता यह है कि ये तीनों उत्सव असत्य पर सत्य के विजय के प्रतीक हैं.

दशहरा, रावण का पुतला दहन और बापू के आंदोलन प्रत्यक्ष तौर पर असत्य पर सत्य के साथ जुड़े हैं, लेकिन लाल बहादुर शास्त्री की हरित क्रांति भूख, गरीबी और आर्थिक विपन्नता जैसे महाराक्षस के खिलाफ एक आंदोलन था. अगर हम गांधी जी और शास्त्री जी के बारे में बात करें, तो इन दोनों महापुरुषों में गांधी जी के नीलहा आंदोलन ने अगर भारत की आजादी का आधार रखा, तो शास्त्री जी की हरित क्रांति ने भारत की आर्थिक ताकत और प्रगति की बुनियाद रखी. आइए, आज इस दुर्लभ संयोग पर जानते हैं कि गांधी जी और शास्त्री जी की क्रांतियों ने भारत के भविष्य की नींव रखी.

भारत के इतिहास की दो महान क्रांतियां

वर्ष 1917 में महात्मा गांधी का चंपारण नील सत्याग्रह और 1960 के दशक की लाल बहादुर शास्त्री की हरित क्रांति भारत का आधुनिक इतिहास दो महान क्रांतियों से जुड़े हैं. गांधीजी का आंदोलन ब्रिटिश साम्राज्यवाद की जड़ों को हिलाने वाला पहला बड़ा अहिंसक सत्याग्रह था, जबकि शास्त्रीजी की हरित क्रांति ने भारत को खाद्यान्न संकट से उबारकर आत्मनिर्भरता की दिशा में बढ़ाया. ये दोनों घटनाएं केवल ऐतिहासिक ही नहीं, बल्कि भारत के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक पुनर्निर्माण की आधारशिला रहीं.

चंपारण का नीलहा आंदोलन: ब्रिटिश हुकूमत को पहली चुनौती

बंगाल टेनेंसी एक्ट, 1885 के अनुसार, वर्ष 1793 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने स्थायी बंदोबस्त लागू किया. इसके तहत जमींदारों को किसानों से जबरन नील की खेती कराने का अधिकार मिला. भारत के इतिहास में इसे तिनकठिया प्रथा कहा गया, जो किसानों को अपनी 20 में से 3 कठ्ठा जमीन पर नील उगाना पड़ता था. यह बेहद अलाभकारी और शोषणकारी व्यवस्था थी. भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद अपनी पुस्तक “सत्याग्रह इन चंपारण” (1949) में लिखते हैं कि यह आंदोलन केवल कृषि शोषण नहीं, बल्कि किसानों की आर्थिक गुलामी का प्रतीक था.

शुरुआती विद्रोह और गांधीजी का प्रवेश

वर्ष 1859 से 1861 तक में बंगाल में नील विद्रोह हुआ, जो चंपारण तक फैला. किसानों ने नील की खेती का बहिष्कार किया, लेकिन ब्रिटिश दमन ने इसे दबा दिया. इतिहासकार अमेश चंद्र सेनगुप्ता 1924 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘नील विद्रोह: ए हिस्ट्री’ में इसे ‘किसान जागरण की पहली चिंगारी’ कहा है. इसके बाद वर्ष 1914 में चंपारण में पहला प्रमुख विद्रोह पिपरा गांव में हुआ, जहां किसानों ने नील प्लांटेशन का विरोध किया. ब्रिटिश अधिकारियों ने पुरजोर तरीके से दमन किया, जिससे चंपारण के किसानों में असंतोष भड़क गया. इसके बाद वर्ष 1916 चंपारण के किसानों का दूसरा विद्रोह तुर्कौलिया में हुआ. राजकुमार शुक्ला जैसे किसान नेताओं ने लखनऊ कांग्रेस अधिवेशन (26-30 दिसंबर 1916) में गांधीजी से मदद गुहार लगाई. इसी लखनऊ अधिवेशन में राजकुमार शुक्ला ने गांधीजी को चंपारण आने का न्योता दिया.

पटना के रास्ते चंपारण पहुंचे गांधी जी

अजय वर्मा संपादित पुस्तक ‘गांधी एंड चंपारण सत्याग्रह: सिलेक्ट रीडिंग्स’ में इस बात की चर्चा की गई है कि चंपारण के किसान राजकुमार शुक्ला की ओर से कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में न्योता दिए जाने के बाद महात्मा गांधी 10 अप्रैल 1917 को गांधीजी पटना पहुंचे. उनके साथ डॉ राजेंद्र प्रसाद, ब्रजकिशोर प्रसाद, मझारुल हक, महादेव देसाई और जेबी कृपलानी थे. ये सभी नेता मुजफ्फरपुर होते हुए चंपारण गए. 15 अप्रैल 1917 को मोतिहारी (चंपारण मुख्यालय) पहुंचकर गांधीजी ने जसौली गांव का दौरा शुरू किया. डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट ने उनके खिलाफ धारा 144 के तहत निषेधाज्ञा जारी की, लेकिन गांधीजी ने इसे ठुकरा दिया. 18 अप्रैल 1917 को गांधीजी को गिरफ्तार किया गया. हजारों किसानों ने अदालत का घेराव किया, जिससे ब्रिटिश अधिकारियों को झुकना पड़ा. गांधीजी रिहा किए गए और जांच कमिटी का सदस्य बने.

इतिहासकार शाहिद अमीन की ‘द स्मॉल वॉयसेस ऑफ हिस्ट्री’ में किसानों की गवाहियों को उद्धृत कर इसे ‘किसान आवाजों का पहला राष्ट्रीय मंच’ कहा गया. मई-जून 1917 के दौरान गांधीजी ने 2,000 से अधिक किसानों की गवाहियां दर्ज कीं. कमिटी ने तिनकठिया प्रथा की सिफारिशों को स्वीकार किया, जिसमें नील खेती वैकल्पिक और लगान में कमी शामिल थी. 29 नवंबर 1917 में विधान परिषद में चंपारण एग्रीकल्चर बिल पेश किया गया. डब्ल्यू. मॉड ने इसे ‘किसान न्याय का विजय’ बताया. 1 मई 1918 को चंपारण एग्रीकल्चर एक्ट पारित किया गया और तिनकठिया प्रथा समाप्त किया गया. चंपारण के नीलहा किसानों को 25% लगान छूट मिली. इसके बाद गांधीजी ने चंपारण में स्कूल और सफाई अभियान की शुरुआत की.

नीलहा आंदोलन का प्रभाव

महात्मा गांधी के नीलहा आंदोलन का प्रभाव यह रहा कि उसने ब्रिटिश हुकूमत की चूलें हिला दीं. इतिहासकार डीएन घोष ने अपनी पुस्तक ‘इंडियन नेशनलिज्म: ए हिस्ट्री’ (1952) में इसे ‘अहिंसा से साम्राज्यवाद को पहली चुनौती’ कहा है. गांधीजी के इस आंदोलन से किसानों में आत्मविश्वास जागा और गांधीजी राष्ट्रीय नेता बने. चंपारण के नील आंदोलन ने खेड़ा (1918) और अहमदाबाद (1918) सत्याग्रहों की नींव रखी, जो स्वतंत्रता संग्राम को जन-आंदोलन बना दिया.

आर्थिक प्रगति की नींव बनी शास्त्री जी की हरित क्रांति

हरित क्रांति भारत के खाद्यान्न संकट का समाधान थी, जो 1960 के दशक में लाल बहादुर शास्त्री के नेतृत्व में शुरू हुई. शास्त्रीजी ने ‘जय जवान, जय किसान’ का नारा देकर कृषि को प्राथमिकता दी, जिससे उच्च उपज वाली बीजों, उर्वरकों और सिंचाई ने उत्पादन दोगुना कर दिया. इतिहासकार विक्रम प्रकाश ने अपनी पुस्तक ‘ए हिस्ट्री ऑफ इंडियाज ग्रीन रेवोल्यूशन’ (2025) में इसे ‘शीत युद्ध के दौर में भारत की खाद्य सुरक्षा क्रांति’ कहा है. एमएस स्वामीनाथन की पुस्तक ‘फ्रॉम ग्रीन टू एवरग्रीन रेवोल्यूशन’ (2010) में शास्त्रीजी को ‘राजनीतिक इच्छाशक्ति का प्रतीक’ बताया गया.

हरित क्रांति की शुरुआत का उद्देश्य

वर्ष 2014 में प्रकाशित स्विस अर्थशास्त्री गिल्बर्ट एटिएन की पुस्तक ‘इंडियन विलेजेस’ के अनुसार, 1943 में बंगाल में अकाल से 30 लाख लोगों की मौत हो चुकी थी. प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के शासनकाल के दौरान भारत में कृषि सुधार की शुरुआत हुई, लेकिन 1960 तक भारत की खाद्यान्न आयात पर निर्भरता बनी रही. वर्ष 1964 में नेहरू के निधन के बाद 9 जून 1964 को लाल बहा्रदुर शास्त्री भारत के प्रधानमंत्री बने. उन्होंने कृषि मंत्री के तौर पर सी सुब्रह्मण्यम को नियुक्त किया. शास्त्रीजी ने कृषि को ‘राष्ट्रीय प्राथमिकता’ घोषित किया. इसके एक साल बाद 1965 में भारत-पाक युद्ध के साथ-साथ भयंकर सूखा हो गया. शास्त्रीजी ने 19 अक्टूबर को प्रयागराज के उरवा में ‘जय जवान, जय किसान’ नारा दिया. नॉर्मन बोरलॉग के एचवाईवी गेहूं बीज मंगवाए और यहीं से हरित क्रांति का बीजारोपण किया गया.

हरित क्रांति की शुरुआत

पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के अथक प्रयास के बाद वर्ष 1966 में हरित क्रांति की शुरुआत की गई. पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गेहूं के एचवाईवी बीज का परीक्षण किया गया. कृषि वैज्ञानिक एमएस स्वामीनाथन ने आईआर8 चावल बीज विकसित किया. शास्त्रीजी ने किसानों से ‘सप्ताह में एक भोजन त्याग’ की अपील की. हालांकि, 11 जनवरी 1966 को शास्त्रीजी की ताशकंद में मृत्यु हो गई और इंदिरा गांधी ने कार्यभार संभाला, लेकिन शास्त्रीजी की हरित क्रांति का नतीजा यह निकला कि वर्ष 1967 तक भारत में गेहूं उत्पादन 11 मिलियन टन से बढ़कर 16 मिलियन टन हो गया.

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हरित क्रांति का प्रभाव

हरित क्रांति ने भारत को ‘शिप-टू-माउथ’ से ‘फूड सरप्लस’ बनाया. इतिहासकार संजीव चोपड़ा ने शास्त्रीजी को ‘कृषि सुधारों का सूक्ष्म प्रशासक’ कहा.. हालांकि, पर्यावरणीय असर (जल संकट) भी उभरा, लेकिन इसी हरित क्रांति से भारत में आर्थिक प्रगति की नींव पड़ी.

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