Bihar Politics: नेता फैक्ट्री बना है बिहार के इन नेताओं का परिवार, बेटा-बेटी, बहू-दामाद सब राजनीति में…
Bihar Politics: बिहार की राजनीति में परिवारवाद नई बहस नहीं, लेकिन हाल के घटनाक्रम ने इसे और गर्मा दिया है. नीतीश सरकार द्वारा मांझी, चौधरी और पासवान परिवार के रिश्तेदारों को आयोग-बोर्ड में जगह देने से सवाल उठे हैं. विडंबना यह कि आलोचना करने वाले भी खुद परिवारवाद से अछूते नहीं हैं. सत्ता और दलों में वंशवाद की पकड़ गहरी है.
Bihar Politics: बिहार की राजनीति में इन दिनों परिवारवाद पर बहस तेज है. वजह है मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सरकार द्वारा पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी और मंत्री अशोक चौधरी के दामादों तथा चिराग पासवान के बहनोई को विभिन्न आयोग और बोर्ड में मनोनयन देना. इस कदम के बाद विपक्ष ने सरकार को घेरने की कोशिश की, लेकिन विडंबना यह रही कि सवाल उठाने वालों का चेहरा भी परिवार से ही निकला.
असल में, बिहार की सियासत में ऐसे नेताओं की कमी है जो पूरी तरह अपने दम पर राजनीति की पहली पंक्ति तक पहुंचे हों. अगर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और आरएलएम प्रमुख उपेंद्र कुशवाहा को अलग कर दें तो गिने-चुने नाम ही बचते हैं जिन पर पारिवारिक राजनीति की मुहर नहीं लगी. बाकी तो या तो पिता की विरासत से आगे बढ़े हैं, या फिर किसी रिश्तेदार की ताक़त ने उन्हें राजनीति की सीढ़ी चढ़ाई.
पेशे का असर या राजनीति का खेल?
सवाल यह भी है कि आखिर नेता का बेटा नेता बने तो उसमें बुराई क्या है? जैसे जज का बेटा जज, डॉक्टर का बेटा डॉक्टर या कलाकार का बेटा कलाकार बन सकता है, वैसे ही नेता का बेटा क्यों नहीं? समाज का यह तर्क एक हद तक वाजिब लगता है. दरअसल, किसी पेशे का वातावरण और माहौल बचपन से ही बच्चों के जेहन में बैठ जाता है. उनके पास संसाधन, संपर्क और अनुभव की सहज पूंजी होती है. यही वजह है कि बिहार की राजनीति में तेजस्वी यादव, चिराग पासवान और सम्राट चौधरी जैसे नेता नीतीश कुमार के बाद “कौन?” के सवाल का जवाब देने की होड़ में हैं.
लेकिन फर्क यह है कि राजनीति सिर्फ पेशा नहीं बल्कि जनप्रतिनिधित्व और जनता की आकांक्षाओं का आईना है. यहां परिवारवाद सवालों के घेरे में आता है क्योंकि यह लोकतंत्र की उस बुनियाद को चोट करता है जहां जनता से निकले साधारण लोग भी नेता बनने का सपना देखते हैं.
नीतीश और कुशवाहा: परिवारवाद से दूरी
अगर पूरे बिहार में देखें तो शायद ही कोई बड़ा नेता ऐसा मिलेगा जिसने अपने बच्चों को राजनीति से पूरी तरह दूर रखा हो. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार उनमें अपवाद हैं. उनके बेटे निशांत कुमार कई बार चर्चा में आते हैं, लेकिन नीतीश खुद इस पर ब्रेक लगाकर बैठे रहते हैं. वे लालू यादव और राबड़ी देवी के परिवारवाद को हमेशा कटघरे में खड़ा करते रहे हैं. इसी तरह आरएलएम प्रमुख उपेंद्र कुशवाहा के दो बच्चे हैं- बेटा दीपक कुशवाहा और बेटी प्रीतिलता कुशवाहा. दोनों ने राजनीति से दूरी बना रखी है. बेटे का छोटा-मोटा व्यापार है और बेटी सरकारी नौकरी में हैं.
लालू यादव परिवार: सबसे बड़ा राजनीतिक घराना
बिहार में परिवारवाद की सबसे मजबूत मिसाल लालू यादव का परिवार है. कभी खुद मुख्यमंत्री रहे लालू ने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को भी मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाया. बड़ी बेटी मीसा भारती राज्यसभा से लेकर लोकसभा तक सांसद बनीं. बेटी रोहिणी आचार्या को लोकसभा का टिकट मिला, भले ही जीत न सकीं. लालू के बड़े बेटे तेज प्रताप यादव दो बार विधायक और मंत्री रहे, हालांकि हाल के विवादों के कारण पार्टी से दूर कर दिए गए हैं. छोटे बेटे तेजस्वी यादव पार्टी के वास्तविक सर्वेसर्वा बन चुके हैं और उन्हें महागठबंधन का भावी मुख्यमंत्री चेहरा माना जाता है.
दिलचस्प यह है कि लालू के दामाद भी बड़े राजनीतिक घरानों से आते हैं. कोई हरियाणा में मंत्री के बेटे हैं तो कोई मुलायम सिंह यादव के परिवार से ताल्लुक रखते हैं. यह नेटवर्किंग लालू परिवार की ताकत को और बढ़ा देती है.
रामविलास पासवान परिवार: टूटने के बाद भी मजबूत पकड़
रामविलास पासवान ने न सिर्फ खुद राजनीति में बड़ा मुकाम हासिल किया बल्कि अपने भाइयों और बेटों को भी आगे बढ़ाया. भाई पशुपति कुमार पारस आज भी केंद्र में मंत्री हैं. बेटे चिराग पासवान लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के चेहरा बनकर उभरे हैं. रामविलास के निधन के बाद पार्टी टूट गई लेकिन चिराग ने करिश्माई अंदाज में अपनी पकड़ बनाए रखी. वहीं प्रिंस पासवान जैसे नाम भी इस परिवार से संसद तक पहुंचे.
जीतन राम मांझी परिवार: छोटे समय में बड़ा विस्तार
पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी की राजनीति नीतीश के सहयोग से नई ऊंचाई पर पहुंची. खुद की पार्टी “हम” बनाई और फिर परिवार को राजनीति में उतारने का सिलसिला शुरू किया. समधन ज्योति मांझी विधायक बनीं, बेटा संतोष सुमन विधान परिषद और मंत्री बने. अब बहु दीपा मांझी भी विधायक हैं.
शकुनी चौधरी से सम्राट चौधरी तक
बिहार की राजनीति में शकुनी चौधरी एक बड़ा नाम रहे. उनके बेटे सम्राट चौधरी कई दल बदलते हुए आज भाजपा के सबसे बड़े चेहरों में गिने जाते हैं. शकुनी की पत्नी पार्वती देवी भी विधायक बनीं. अब अगली पीढ़ी यानी सम्राट के भाई और बेटे राजनीति में कदम बढ़ा रहे हैं.
महावीर चौधरी और अशोक चौधरी का घराना
महावीर चौधरी कांग्रेस के बड़े नेता रहे. उनके बेटे अशोक चौधरी ने पिता की विरासत संभाली और अब जेडीयू में मंत्री हैं. अशोक की बेटी शांभवी सांसद हैं और दामाद सायन कुणाल भी राजनीति में सक्रिय हैं.
हजारी, यादव, सिंह और अन्य घराने
- राम सेवक हजारी परिवार: बेटे महेश्वर हजारी, बहू मंजू हजारी, पोते तक राजनीतिक मैदान में.
- जगदानंद सिंह परिवार: बेटे सुधाकर सिंह विधायक बने, हालांकि कई बार विवादों में भी रहे.
- नवादा का यादव परिवार: राजबल्लभ यादव, पत्नी विभा देवी, भाई अशोक यादव, पूरा कुनबा राजनीति में.
- सूरजभान सिंह परिवार: अपराध से राजनीति में आए सूरजभान की पत्नी वीणा देवी सांसद बनीं, भाई और बेटे भी सक्रिय.
- दिलीप सिंह और अनंत सिंह परिवार: मोकामा की राजनीति इन घरानों के इर्द-गिर्द घूमती रही है.
- आनंद मोहन और लवली आनंद परिवार: हत्या के केस में सजायाफ्ता होने के बावजूद आनंद मोहन की राजनीतिक पकड़ मजबूत है, पत्नी और बेटे चुनाव लड़ते रहते हैं.
“वंशजों का जमावड़ा” और लोकतंत्र पर असर
बिहार की राजनीति में परिवारवाद सिर्फ टिकट दिलाने तक सीमित नहीं है. यह पार्टियों के फैसलों और सरकार की कार्यशैली को भी प्रभावित करता है. जब मंत्री और सांसद अपने बेटे-बेटियों के लिए टिकट की जुगाड़ में लगे रहते हैं तो जनता के मुद्दे पीछे छूट जाते हैं.
यह भी सच है कि परिवारवाद ने कई बार अनुभवी और सक्षम नेताओं को हाशिये पर धकेल दिया. स्थानीय स्तर के नेता, जो जनता से गहरा जुड़ाव रखते हैं, उन्हें अक्सर इस वजह से मौका नहीं मिलता क्योंकि “फला नेता का बेटा/बेटी” पहले से तैयार खड़ा है.
कई नेता अपने दम पर आगे बढ़े
फिर भी तस्वीर पूरी तरह निराशाजनक नहीं है. कुछ ऐसे नेता भी हैं जो अपने दम पर आगे बढ़े. जैसे जेडीयू के ललन सिंह, भाजपा के गिरिराज सिंह, मुकेश सहनी या नित्यानंद राय. इन्होंने परिवारवाद के बिना अपनी जगह बनाई और जनता के बीच पहचान कायम की.
