केआइएफएफ में फिल्म निर्माता गुरुदत्त के जीवन व कृतित्व पर भी हुई चर्चा

देश के नामी भारतीय फिल्म निर्माता की 100वीं जयंती के उपलक्ष्य में एक वार्ता और गुरुदत्त की एक फोटोग्राफिक प्रदर्शनी का आयोजन भी किया गया है.

By GANESH MAHTO | November 11, 2025 1:42 AM

कोलकाता. कोलकाता इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल (केआइएफएफ) में प्रतिष्ठित फिल्म निर्माता गुरुदत्त को शताब्दी श्रद्धांजलि के रूप में याद किया गया. इस महान फिल्मकार के जीवन और कृतित्व पर प्रख्यात फिल्म लेखकों और हस्तियों द्वारा एक वार्ता का आयोजन शिशिर मंच में किया गया. देश के नामी भारतीय फिल्म निर्माता की 100वीं जयंती के उपलक्ष्य में एक वार्ता और गुरुदत्त की एक फोटोग्राफिक प्रदर्शनी का आयोजन भी किया गया है. ””गुरु दत्त: द मेलानचोलिक मावरिक”” शीर्षक से आयोजित इस परिचर्चा में फिल्म स्कॉलर शोमा ए चटर्जी, मोइनक विश्वास, फिल्म निर्माता रमेश शर्मा और फिल्म पत्रकार रोशमिला भट्टाचार्य व सत्य सरन जैसी हस्तियों ने गुरु दत्त के जीवन और कृतित्व पर अपनी बातें रखीं. सत्र का संचालन फिल्म पत्रकार रत्नोत्तमा सेनगुप्ता ने किया. कोलकाता के शिशिर मंच में आयोजित इस संगोष्ठी में पुरस्कार विजेता फिल्म निर्माता रमेश शर्मा ने कहा कि वह एक साहसी व्यक्ति थे जिन्होंने प्रयोग किये, लगभग ऑर्सन वेल्स की तरह. उन्होंने लेंस और प्रकाश व्यवस्था के साथ प्रयोग किये. वह अपनी फिल्मों को वास्तविक सिनेमा के रूप में ढाल रहे थे. वह उदासी का जश्न मनाते थे. दर्द और पीड़ा का द्वंद्व उनकी फिल्मों का एक अहम हिस्सा था. गुरु दत्त, जिनका जन्म 9 जुलाई, 1925 को वसंत कुमार शिवशंकर पादुकोण के रूप में हुआ था. भारत के अग्रणी फिल्म निर्माताओं में से एक माने जाते हैं, जिन्होंने अक्सर अभिनेता, निर्माता, कोरियोग्राफर और लेखक की भूमिका भी निभायी. उन्होंने अपनी युवावस्था के कुछ साल कोलकाता में बिताये. उनकी कुछ प्रमुख फिल्मों में प्यासा (1957), कागज़ के फूल (1959) और साहिब बीबी और गुलाम (1962) हैं.

उन्होंने आगे कहा कि ‘गुरु दत्त की यह लगभग एक संपादकीय टिप्पणी थी कि जब तक आप एक सरल, सहज व्यावसायिक फ़िल्म नहीं बनाते, तब तक आप सफल नहीं हो सकते. गुरु दत्त अपने समय से आगे थे. वह आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने उस समय थे. हमारे फिल्म निर्माता अब ऐसी फ़िल्में नहीं बनाते जो समाज पर सवाल उठाती हों.

उन्होंने दत्त की फ़िल्मों में उर्दू शायरी की भूमिका और उस समय के देश के अग्रणी उर्दू शायरों, जैसे कैफ़ी आज़मी और साहिर लुधियानवी, और गुरुदत्त की फिल्मोग्राफी के बीच के संबंध पर भी प्रकाश डाला. फिल्म विद्वान मोइनक विश्वास ने उस संदर्भ के बारे में बात की जिसमें गुरुदत्ता ने 1950 के दशक में काम करना शुरू किया था, जिसे उन्होंने भारतीय सिनेमा में एक नये अध्याय की शुरुआत बताया, जिसमें नयी प्रदर्शन शैली, छायांकन, संगीत, पटकथा लेखन आदि शामिल थे. उस समय इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन और प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन के कई दिग्गज कलाकार गुरु दत्त के साथ मिलकर काम कर रहे थे, जिनमें पटकथा लेखक, कोरियोग्राफर और कवि शामिल थे. सुश्री सरन ने कहा कि फिल्म प्यासा पर भी दो दिमाग काम कर रहे थे, दो रचनात्मक दिमाग एक से बेहतर होते हैं. गुरु दत्त की फ़िल्मों में महिला किरदार भावनात्मक दृढ़ता, शक्ति और जटिलता को दर्शाते थे.

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