जानें क्या था पत्थलगड़ी आंदोलन, हेमंत सोरेन ने लिया मुकदमा वापस

रांची : मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने पहली कैबिनेट की बैठक की तो इसमें फैसला लिया गया कि राज्य में दो वर्षों पूर्व पत्थलगड़ी को लेकर हुए आंदोलन के दौरान दर्ज मामले वापस लिये जायेंगे. यह बेहद अहम फैसला था और इस फैसले को लेकर चर्चा शुरू हो गयी. इस आंदोलन में शामिल कई लोगों पर […]

By Prabhat Khabar Print Desk | December 30, 2019 5:43 PM

रांची : मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने पहली कैबिनेट की बैठक की तो इसमें फैसला लिया गया कि राज्य में दो वर्षों पूर्व पत्थलगड़ी को लेकर हुए आंदोलन के दौरान दर्ज मामले वापस लिये जायेंगे. यह बेहद अहम फैसला था और इस फैसले को लेकर चर्चा शुरू हो गयी. इस आंदोलन में शामिल कई लोगों पर देशद्रोह का मुकदमा दर्ज है. खूंटी के कई गांवों में लोगों पर मुकदमा दर्ज था. हेमंत सोरेन की सरकार ने उन सब पर लगे मुकदमे को वापस लेने का फैसला ले लिया. पत्थलगड़ी आंदोलन की खूब चर्चा रही. देशभर में इस आंदोलन को लेकर राष्ट्रीय- अंतरराष्ट्रीय मीडिया का जमावड़ा रहा. पत्थलगड़ी एक परंपरा थी जिसे नये सिरे से पेश कर दिया गया था. खूंटी के कई गांवों में पत्थरों में हरे रंग से पेंट कर सफेद अक्षरों में संविधान का जिक्र करते हुए लिखा गया था.

इस पूरे घटनाक्रम को आप बेहतर ढंग से समझ सकें और नयी सरकार के फैसले का आंकलन कर सकें इसके लिए जरूरी है कि समझ लीजिए पत्थलगड़ी आंदोलन क्या है. आदिवासी समुदायों में पत्थलगड़ी (बड़ा शिलालेख गाड़ने) की परंपरा पुरानी है. इसमें मौजा, सीमाना, ग्रामसभा और अधिकार की जानकारी लिखी जाती है. वंशावली, पुरखे तथा मरनी (मृत व्यक्ति) की याद में पत्थर पर पूरी जानकारी लिखी होती है. दुश्मनों के खिलाफ लड़कर शहीद होने वाले वीर सपूतों के सम्मान में भी पत्थलगड़ी होती रही है इसकी शुरुआत कब से हुई तो इसका जवाब है इंसानी समाज ने हजारों साल पहले की थी. यह एक पाषाणकालीन परंपरा है जो आदिवासियों में आज भी प्रचलित है.

झारखंड के मुंडा आदिवासी समुदाय इसकेे सबसे बड़ेे उदाहरण हैं, जिनमें कई अवसरों पर पत्थलगड़ी करने की प्रागैतिहासिक और पाषाणकालीन परंपरा आज भी प्रचलित है.
अगर यह परंपरा है तो क्यों उठे सवाल
पत्थलगड़ी अगर पुरानी परंपरा है तो इसका विरोध क्यों हुआ. आदिवासियों पर केस क्यों लादे गये ? इस सवाल का जवाब है पत्थलगड़ी के जरिए दावे किए जा रहे हैं कि आदिवासियों के स्वशासन व नियंत्रण वाले क्षेत्र में गैरआदिवासी प्रथा के व्यक्तियों के मौलिक अधिकार लागू नहीं है. साथ ही गैरआदिवासियों के प्रवेश पर भी रोक लगायी गयी. उनके स्वंतत्र भ्रमण, रोजगार-कारोबार करना या बस जाना, पूर्णतः प्रतिबंध लगाया गया.
इसमें लिखा गया, पांचवी अनुसूची क्षेत्रों में संसद या विधानमंडल का कोई भी सामान्य कानून लागू नहीं है. संविधान के अनुच्छेद 15 (पारा 1-5) के तहत ऐसे लोग जिनके गांव में आने से यहां की सुशासन शक्ति भंग होने की संभावना है, तो उनका आना-जाना, घूमना-फिरना वर्जित है.
वोटर कार्ड और आधार कार्ड आदिवासी विरोधी दस्तावेज हैं तथा आदिवासी लोग भारत देश के मालिक हैं, आम आदमी या नागरिक नहीं. संविधान के अनुच्छेद 13 (3) क के तहत रूढ़ी और प्रथा ही विधि का बल यानी संविधान की शक्ति है.

क्यों हुआ यह आंदोलन तेज
आदिवासियों को यह डर सता रहा था कि छोटा नागपुर काश्तकारी कानून में संशोधन कर उनकी जमीन छीनने की कोशिश हो रही है. बिरसा मुंडा की जन्मस्थली उलिहातू के लोग भी कई मौके पर सरकार के रुख पर नाराजगी जता रहे थे. साल 2016 में सरकार ने छोटानागपुर काश्तकारी कानून में संशोधन करने की कोशिश की लेकिन पूरे राज्य में बड़े पैमाने पर विरोध हुआ था और सरकार को अपने पैर पीछे करने पड़े थे. इसके बाद गांवों में किसी के आने-जाने पर सीधी रोक तो नहीं थी पर अनजान व्यक्ति को टोका जाने लगा. गांव की सुरक्षा के लिए तीर-कमान से लैस युवक, हर गतिविधियों पर पैनी नजर रखते थे धीरे- धीरे यह आंदोलन इतना तेज हुआ कि चर्चा में आ गया. सरकार ने इस पर नियंत्रण के लिए लोगों को गिरफ्तार करना शुरू किया लोगों पर केस दर्ज किया गया.

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