.. तब बैलगाड़ी से बूथ तक जाती थी महिलाएं
बात 70 और 80 के दशक की है. जब गांवों में चुनाव को त्योहार के रूम में मनाया जाता था. बैलगाड़ी से गीत गाते हुए महिलाएं पोलिंग बूथ तक जाती थीं. संसाधनों का अभाव था. बुजुर्ग और महिलाएं ट्रैक्टर-ट्रॉली और बैलगाड़ी से वोट देने जाते थे. युवा टोलियों में एक साथ बूथ तक पहुंचते थे. मेले जैसा माहौल गांव में हुआ करता था.
प्रतिनिधि, महाराजगंज. बात 70 और 80 के दशक की है. जब गांवों में चुनाव को त्योहार के रूम में मनाया जाता था. बैलगाड़ी से गीत गाते हुए महिलाएं पोलिंग बूथ तक जाती थीं. संसाधनों का अभाव था. बुजुर्ग और महिलाएं ट्रैक्टर-ट्रॉली और बैलगाड़ी से वोट देने जाते थे. युवा टोलियों में एक साथ बूथ तक पहुंचते थे. मेले जैसा माहौल गांव में हुआ करता था. यादों को साझा करते हुए 90 बसंत देख चुके स्वतंत्रता सेनानी मुंशी सिंह ने बताया कि अलग-अलग दलों के समर्थक होने के बावजूद बूथ के बाहर लोग मतदाताओं की मदद के लिए खड़े रहते थे. उनमें जरा भी कटुता का भाव नहीं होता था. सबको पता होता था कि कौन किस पार्टी का पक्षधर है, फिर भी आपस में द्वेष नहीं होता था. श्री सिंह ने बताया कि मेलजोल इतना होता था कि अलग-अलग दलों के होने के बावजूद साथ बैठकर खाना खाते थे. एक दूसरे के साथ खड़े रहते थे. अब इतना सामाजिक सौहार्द कहां,अब तो चुनाव कटुता भरे हो गए हैं. एक-दूसरे के दलों के समर्थक हर समय लड़ने को तैयार रहते हैं. बड़े नेताओं के भाषण सुनने सभी जाया करते थे. चाहे वह उस पार्टी से हो या न हो. स्वतंत्रता सेनानी मुंशी सिंह ने एक घटना के बारे में बताया कि सीवान में जवाहरलाल नेहरू आए थे. उनको सुनने इलाके के सभी लोग गए थे, चाहे वह कांग्रेस से जुड़े थे या नहीं. राजनीति पर बेहतरीन चर्चा होती थी. अच्छी-बुरी दोनों बातों पर वाद-विवाद होता था, फिर भी लोगों के बीच भाईचारा बना रहता था. लेकिन अब और कल में बहुत फर्क हो गया है.
डिस्क्लेमर: यह प्रभात खबर समाचार पत्र की ऑटोमेटेड न्यूज फीड है. इसे प्रभात खबर डॉट कॉम की टीम ने संपादित नहीं किया है
