Mithila Tradition : गुम होता जा रहा मिथिला का मिलन स्थल कंसार, भूंजा भुंजवाने के लिए जुटते थे लोग

Mithila Tradition : मिथिला के ग्रामीण इलाकों में कुछ शब्द गुम होते जा रहे हैं. इनमें कंसार, हाट, मचान ऐसे कई शब्द हैं. कंसार, हटिया और मचान भी कुछ ऐसी जगह हुआ करती थी, जहां जीवन के रंगों का सम्मिश्रण परिलक्षित होता था.

By Prabhat Khabar Print Desk | April 17, 2022 3:01 PM

Mithila Tradition : (सहरसा से बिष्णु स्वरूप) : मैथिली साहित्य और इतिहास का वास्ता यूं तो जनक नंदिनी सीता के समय से चला आ रहा है. लेकिन, साहित्य बोली और व्याकरण में काफी सारे बदलाव भी हुए. मिथिला के ग्रामीण इलाकों में कुछ शब्द अर्थ सहित गुम होते जा रहे हैं, जिनका व्यावहारिक और महत्वपूर्ण स्थान रोजमर्रा की जिंदगी में था, उनमें से कंसार, हाट, मचान ऐसे कई शब्द हैं. इनमें से कुछ शेष हैं, कुछ लुप्तप्राय होते जा रहे हैं.

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कंसार के साथ हटिया और मचान भी कुछ ऐसी जगह हुआ करती थी, जहां जीवन के रंगों का सम्मिश्रण परिलक्षित होता था. उसकी उपयोगिता थी और यह समाज के सभी वर्गों और वर्णों में सौहार्द बनानेवाला एक मिलन स्थल भी था. यहां धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक सौहार्द की गंगा बहा करती थी.

समय के थपेड़ों और आपाधापी से भरी जिंदगी में इन स्थलों ने अपना ऐतिहासिक महत्व खोया है, जिसे वर्तमान पीढ़ी मात्र किस्से कहानी या कुछ किताबों से जान पायेंगी. क्योंकि, वह पुरानी पीढ़ियां अब अवसान पर है, पर शब्द अपने अर्थ के साथ बरकरार रहें, इसकी कोशिश विभिन्न मीडिया के वाल पर की जाती है.

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मकई का लावा, अब बन गया ‘पॉपकॉर्न’

मैथिली साहित्य की विद्वान पूर्व प्राचार्या प्रो माधुरी झा कहती हैं कि व्यवहार और बोली से जुड़ी मैथिली भाषा कर्णप्रिय तो है ही, लेकिन कई ऐसे शब्द जिसके मात्र मायने नहीं, एक विस्तृत दृश्य सामने से लुप्त होने लगा है. उन शब्दों और उनकी प्रासंगिकता को सहेजने के लिए अब समाज के दायरे सीमित हो गये हैं या सीधे शब्दों में कहें, तो बिल्कुल संकीर्ण हो गये हैं. वे कहती हैं कि इन शब्दों में कंसार एक ऐसा स्थल था, जो मिथिला के प्रत्येक गांव में हुआ करता था, जहां भूंजा भुंजवाने लोग आते थे.

ग्रामीण नाश्ते के लिए भूंजा सबसे मनपसंद आइटम हुआ करता था. इसमें चावल, चना, चूड़ा, मूढ़ी, मकई का लावा अर्थात पॉपकॉर्न जो अब महानगरों की शान बन गया है, जिसके साथ विशेषकर सिनेमाघरों में आनंद लेना जरूरी समझा जाता है. यह सब उसी कंसार में तैयार होता था. यह महिलाओं और बच्चों का विशेष मिलन स्थल था.

पैसा नहीं, थोड़ा अनाज था पारिश्रमिक

मैथिली की कई कहानियों के नायक-नायिका के जीवन सूत्र की डोर यहां से जुड़ी हुई है. प्रो माधुरी झा कहती हैं कि बिहार और विशेषकर मिथिला में भूंजा का प्रचलन अब भी है. इक्के-दुक्के कंसार अब भी हैं. अपने पुराने दिनों में कंसार के साथ संबंधों को याद करते हुए वे कहती हैं कि स्कूल से लौटने के बाद प्रत्येक दिन कंसार जाना एक बहाना हुआ करता था. ऐसा सभी बच्चे करते थे. चावल, चूड़ा, चना कुछ भी लिया और चल दिये कंसार की ओर. वहां भीड़ में पहले हम की पहले आप भी खूब हुआ करता था.

भूजा भूंजने वाली अधिकतर महिलाएं ही हुआ करती थी, जो मूल्य के रूप में मात्र भूने गये अनाज में से थोड़ा हिस्सा ले लेती थी. वह लगभग तय था. प्रो झा कहती है कि वर्तमान में पुरानी पीढ़ियों के लिए भूंजा का अब भी अपना महत्व है. लेकिन, नयी पीढ़ियों के लिए केक, पिज्जा, बर्गर ही पहली पसंद है. वे कहती हैं कि कक्षा छह में चाइबासा के बंगला स्कूल में पहली बार क्रिसमस में केक देखकर वह आश्चर्यचकित थीं, अब बिल्कुल उल्टा समय है. केक अब रोज ही दिखता है. भूजा के शौकीनों की संख्या घटी है, तो मिथिला की मिलन स्थली कंसार भी लुप्त होने लगा है.

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