Folk Song: ‘कजरी’ में जीवित है बिहार की लोकसंस्कृति, गिरिजा देवी की आवाज ने दी इसे नई पहचान

Folk Song: कजरी बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश की वह लोकधुन है, जो सावन-भादो में प्रेम, विरह और प्रकृति की भावनाओं को जीवंत करती है. ढोलक-मंजीरे की ताल और सरल नृत्य मुद्राओं के साथ गाई-बजाई जाने वाली कजरी गांव की मिट्टी, लोकआस्था और सांस्कृतिक विरासत का अनमोल प्रतीक है.

By Abhinandan Pandey | September 10, 2025 6:38 PM

Folk Song: (रिया रानी की रिपोर्ट) बिहार की पहचान सिर्फ इतिहास और आध्यात्मिक धरोहर तक सीमित नहीं है, बल्कि यहां की लोककला, गीत और नृत्य शैलियां इसकी असली आत्मा हैं. इन्हीं में से एक है कजरी, जो सावन-भादो के मानसून का स्वागत करती है. कजरी में प्रेम, विरह और प्रकृति की सुंदर अभिव्यक्ति मिलती है. ढोलक, मंजीरा और हारमोनियम की ताल पर गाए जाने वाले ये गीत गांव की मिट्टी, लोकजीवन और भावनाओं को जीवंत कर देते हैं. कजरी आज भी बिहार की सांस्कृतिक धरोहर का अहम हिस्सा है.

‘कजर’ या ‘कालिमा’ से बना है कजरी

कजरी उत्तर प्रदेश और बिहार की लोक परंपरा से जुड़ा एक प्रसिद्ध गीत और नृत्य है. जिसे खासतौर पर बरसात के मौसम में गाया और प्रस्तुत किया जाता है. यें गीत प्रेम, विरह और प्रकृति की भावनाओं से जुड़े होते हैं. ‘कजरी’ शब्द ‘कजर’ या ‘कालिमा’ से बना है, जिसका संबंध सावन में उमड़ते काले बादलों और उस समय प्रेमियों के जुदाई से गाए जाने वाले गीतों से है. इसकी उत्पत्ति मिर्जापुर क्षेत्र से मानी जाती है.

सावन में गूंजती बिहार की लोकधुन

कजरी, जो कि सावन और भादो के महीनों में गाई और नाची जाने वाली लोकशैली है. कजरी को बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश की लोक परंपरा का अभिन्न हिस्सा माना जाता है. लेकिन, गया, भोजपुर और मिथिला क्षेत्र में इसका विशेष महत्व है. यह लोकशैली सावन के मौसम में तब गाई जाती है जब चारों ओर हरियाली छाई होती है और बादल उमड़-घुमड़ कर आए होते है. गीतों में अक्सर प्रेम, विरह, सामाजिक जीवन और प्रकृति की झलक मिलती है. महिलाएं ग्रुप में इकट्ठा होकर कजरी गाती और नृत्य करती हैं. जिससे वातावरण और भी हंसमुख हो जाता है.

गिरिजा देवी को कहा जाता है कजरी क्वीन

कजरी गायकों ने लोकसंगीत की परंपरा को न केवल जीवित रखा है बल्कि उसे लोकप्रिय भी बनाया है. गिरिजा देवी, जिन्हें “कजरी क्वीन” कहा जाता है, उन्होनें “बरसन लागल सावनवा” और “आइह नी सजना हमार अंगना” जैसे गीतों से कजरी को अर्ध-शास्त्रीय रूप में नई पहचान दी. शारदा सिन्हा ने अपनी मधुर आवाज़ से “बरसन लागल ननदी के आंगना” और “सावन में भिजवले” जैसे गीतों को घर-घर तक पहुंचाया.

वहीं भिखारी ठाकुर, जिन्हें बिहार का शेक्सपियर कहा जाता है, उन्होनें अपनी लोकनाटको और गीतों में कजरी की छाप छोड़ी. इनके अलावा गोपाल मिश्रा और चंदा देवी जैसे गायकों ने भी कजरी के कई लोकप्रिय गीत गाकर इस शैली को और अधिक जीवंत बनाया. इस तरह कजरी, सावन में लोकप्रिय भावनाओं की अनमोल धरोहर बनकर आज भी लोगों के दिलों में गूंजती है.

स्वर और लय की खासियत

कजरी गीतों की धुनें सीधी-सादी होती हैं, लेकिन मन को छू जाती हैं. इन्हें ढोलक, मंजीरा और हारमोनियम की ताल पर गाया जाता है. गीत गाने का तरीका अक्सर बातचीत जैसा लगता है. कजरी नृत्य की हरकतें भी बहुत सहज होती हैं और गांव के जीवन की झलक दिखाती हैं. इसलिए लोग इन्हें आसानी से समझ लेते हैं और जुड़ जाते हैं.

लोकधरोहर की पहचान

आज जब पश्चिमी संगीत और आधुनिक मनोरंजन गांव-गांव तक पहुंच गया है, तब भी कजरी की लोकप्रियता बनी हुई है. कई सांस्कृतिक मंचों और लोक उत्सवों में कजरी को विशेष स्थान दिया जाता है. सरकार और सांस्कृतिक संस्थाएं भी इस लोकनृत्य को सहेजने और नई पीढ़ी तक पहुंचाने का प्रयास कर रही हैं. कजरी केवल एक लोकगीत या नृत्य शैली नहीं, बल्कि बिहार की लोकआस्था और भावनाओं का प्रतीक है. यह सावन की बारिश में भावनाओं को सुरों और थिरकनों में पिरोकर पीढ़ी-दर-पीढ़ी जीवित रखती है.

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