1857 की क्रांति के गुमनाम योद्धा: कुंवर सिंह के सेनापति काजी जुल्फिकार अली की कहानी, जो इतिहास में रह गए अनदेखे

Independence Day 2025: 1857 की आजादी की लड़ाई में जब बाबू कुंवर सिंह बिहार से अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा संभाल रहे थे, तब उनके सेनापति के रूप में काजी जुल्फिकार अली कंधे से कंधा मिलाकर लड़े. रणनीति, साहस और बलिदान के प्रतीक जुल्फिकार अली ने अपने प्राण मातृभूमि के लिए न्योछावर कर दिए, लेकिन अफसोस, इतिहास के पन्नों में उनका नाम कहीं खो गया.

By Abhinandan Pandey | August 7, 2025 12:02 PM

Independence Day 2025: इतिहास में अक्सर विजेताओं का नाम अमर हो जाता है, पर उनके पीछे खड़े असल नायकों की पहचान धुंधली रह जाती है. ऐसे ही एक नायक थे- काजी शेख मोहम्मद जुल्फिकार अली बल्खी, जो 1857 की क्रांति के महानायक बाबू कुंवर सिंह के सेनापति थे. बिहार की धरती पर अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ सबसे संगठित सैन्य प्रतिरोध में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही, फिर भी आज का समाज उनके नाम तक से अनजान है.

नेतृत्व में थे पर सम्मान से दूर

1857 का स्वतंत्रता संग्राम भारतीय इतिहास की पहली बड़ी जंग-ए-आज़ादी थी. इस संग्राम में जब देश के कई हिस्सों में विद्रोह की चिंगारियां सुलग रही थीं, तब बिहार में कुंवर सिंह ने नेतृत्व किया और उनके साथ खड़े हुए जुल्फिकार अली. जो एक कूटनीतिज्ञ, जांबाज योद्धा और रणनीति के माहिर थे. परंतु, इतिहास के पन्नों में उनका नाम कहीं नहीं मिलता.

वे वही योद्धा थे जो कुंवर सिंह की फौज के सेनापति बने, उन्होंने राजपूत रेजिमेंट का गठन किया और गुप्तचर तंत्र विकसित किया. उनके नेतृत्व में इस रेजिमेंट ने मेरठ, गाज़ीपुर, बलिया और अन्य स्थानों पर अंग्रेजों के खिलाफ छापामार युद्ध किया और उन्हें भारी क्षति पहुंचाई.

पूर्व तैयारी और गुप्त रणनीति

1857 से पहले ही, 1856 में बाबू कुंवर सिंह और जुल्फिकार अली के बीच पत्रों के माध्यम से क्रांति की योजनाएं बनाई गई थीं. इन पत्रों में युद्ध की रणनीतियों, गुप्त बैठकों और क्रांति के ठोस खाके की जानकारी मिलती है. इन पत्रों में यह भी स्पष्ट होता है कि विद्रोह कोई अचानक हुई घटना नहीं थी, बल्कि लंबे समय से चली आ रही रणनीतिक तैयारी का परिणाम था.

एक पत्र में बाबू कुंवर सिंह लिखते हैं-

“भारत को अब हमारे खून की जरूरत है. तुम्हारी मदद से हम लोग बेफिकर हैं. यह पत्र तुम्हें कहां से लिखा गया है, यह पत्रवाहक बताएगा.”

यह पत्र जुल्फिकार अली की महत्ता और उनके ऊपर कुंवर सिंह के विश्वास का प्रमाण है.

जुल्फिकार अली का शौर्य और शहादत

जुल्फिकार अली ने 1856 में मेरठ कूच किया, जहां उन्हें अंग्रेजों का सामना करना पड़ा. परिस्थितियां अनुकूल नहीं थीं, और उन्हें पीछे हटकर पुनः तैयारी करनी पड़ी. जनवरी 1857 में उन्होंने दोबारा युद्ध में कदम रखा, इस बार पीछे हटने का विकल्प नहीं था. वे दिल्ली प्रस्थान के दौरान रास्ते में अंग्रेजी सेना से भिड़ गए और वहीं वीरगति को प्राप्त हुए.

उनकी शहादत के बाद भी अंग्रेजों ने उन्हें मृत मानने से इनकार किया और उन पर मरणोपरांत मुकदमा चलाया. गया जिले के अभिलेखों के अनुसार, अंग्रेजों ने उनके नाम पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया, उनकी संपत्ति जब्त की और उनके परिवार को दर-ब-दर कर दिया.

मुकदमे और परिवार का उत्पीड़न

1857 से 1858 के बीच, ब्रिटिश प्रशासन ने जुल्फिकार अली और उनके सहयोगियों पर “एक्ट 14 ऑफ 1857” के तहत मुकदमा चलाया. दिलचस्प यह है कि शहीद हो चुके जुल्फिकार अली को अंग्रेजों ने “फरार विद्रोही” घोषित किया और उनकी सम्पत्ति जब्त कर नीलाम कर दी गई.

गया अभिलेखागार के दस्तावेज, जिसमें ई. जे. लौटोर को मजिस्ट्रेट डब्लू. बल्टर द्वारा भेजा गया पत्र मौजूद है, यह स्पष्ट करता है कि ब्रिटिश शासन ने जुल्फिकार अली की मौत को स्वीकार नहीं किया, क्योंकि उनका शव नहीं मिला था.

परिवार की दशा और संघर्ष

अंग्रेजों के जुल्म से परेशान होकर जुल्फिकार अली का परिवार अपने ही नौकर महादेव दास के घर भूमिगत रहने को मजबूर हो गया. यह परिवार 1900 तक गुमनामी में रहा. जब महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता संग्राम को नई दिशा दी, तब जाकर उनके वंशज स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रूप से शामिल हुए.

आज उनके वंशज काजी अनवर अहमद बताते हैं कि जुल्फिकार अली ने अपने जीवन के अंतिम वर्षों में धर्म, जाति, वर्ग से ऊपर उठकर देश के लिए काम किया. वे एक मुस्लिम सेनापति थे जिन्होंने हिंदू योद्धा कुंवर सिंह के नेतृत्व में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी और धर्मनिरपेक्ष भारत का असली उदाहरण पेश किया.

ऐतिहासिक पहचान की दरकार

पत्रकार संजय कुमार की पुस्तक “जुल्फिकार अली – 1857 के गुमनाम योद्धा” में पहली बार उनकी वीरता और संघर्ष को सार्वजनिक मंच पर लाया गया है. यह पुस्तक एक ऐसे योद्धा की कहानी कहती है, जिसे इतिहास ने भुला दिया था. जुल्फिकार अली न केवल कुंवर सिंह के सेनापति थे, बल्कि रणनीति, जासूसी और संगठन में महारत रखने वाले सच्चे देशभक्त थे. उन्होंने न केवल अंग्रेजों से लोहा लिया, बल्कि प्रतिकूल परिस्थिति में सेना का संचालन किया और अंत में मातृभूमि के लिए प्राण न्योछावर कर दिए.

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