1857 की स्वतंत्रता क्रांति से जानें बिहार के वीरों को, कई लटकाये गये फांसी पर, तो कई को भेजा गया कालापानी…

independence day 2020, Bihar freedom fighter, independence day 2020 bihar : (पटना) 1857 को जंग-ए-आजादी की शुरुआत का साल माना जाता है. अंग्रेजी हुकूमत ने होनेवाली बगावतों को बेरहमी से कुचल दिया. आंदोलन को दबाने की हुकूमत की फितरत काम न आ सकी. आगे नब्बे साल तक सत्ता और जनता के बीच संघर्ष चलता रहा. 1857 में बाबू कुंवर सिंह के विद्रोह की कहानियां प्रचलित हैं. हम ऐसे ही दूसरे विद्रोहियों पर नजर डालते हैं.

By Prabhat Khabar | August 15, 2020 5:21 AM

independence day 2020, Bihar freedom fighter, independence day 2020 bihar : (पटना) 1857 को जंग-ए-आजादी की शुरुआत का साल माना जाता है. अंग्रेजी हुकूमत ने होनेवाली बगावतों को बेरहमी से कुचल दिया. आंदोलन को दबाने की हुकूमत की फितरत काम न आ सकी. आगे नब्बे साल तक सत्ता और जनता के बीच संघर्ष चलता रहा. 1857 में बाबू कुंवर सिंह के विद्रोह की कहानियां प्रचलित हैं. हम ऐसे ही दूसरे विद्रोहियों पर नजर डालते हैं.

पीर अली ने कहा- हमें फांसी पर लटका सकते हो, पर हमारे आदर्शों को फांसी नहीं दे सकते

पटना में अंग्रेजी सत्ता के विरोध में निकलने वाले जुलूस का उन्होंने नेतृत्व किया. सरकार की नजर टेढ़ी हुई और उन्हें पकड़ लिया गया. सत्ता के खिलाफ विद्रोह के आरोप में उन्हें सात जुलाई 1857 को फांसी पर लटका दिया गया. मादर-ए-वतन से प्यार करने वाले पीर अली से पटना के पहले कमिश्नर विलियम टेलर ने कहा-अपनी जिंदगी चाहते हो, तो दूसरे आंदोलनकारियों का नाम बताओ. जवाब में पीर अली ने कहा- हमें फांसी पर लटका सकते हो, पर हमारे आदर्शों को फांसी नहीं दे सकते. विलियम हैरान था. यह किस मिट्टी का बना है. पीर अली ने यह कहकर उसके होश उड़ा दिये- कई मौके आते हैं जब जान बचाना अक्लमंदी होती है. लेकिन ऐसे मौके भी आते हैं जब जान की परवाह किये बगैर उसूल के लिए जान कुर्बान कर दिया जाता है.

 अरवल के जिवधर सिंह को फांसी पर चढ़ाया

सरकारी दस्तावेजों में इस शख्स का जिक्र बार-बार आता है. उनके नाम का उल्लेख जिस तरह आया है, उससे लगता है कि अंग्रेजी सत्ता उन्हें विद्रोह की महत्वपूर्ण कड़ी मान रही थी. वह अरवल के खुमैनी गांव के रहने वाले थे. दस्तावेजों के मुताबिक जिवधर सिंह के साथ सात सौ विद्रोही थे. वे सत्ता के लिए चुनौती बने हुए थे. उनके भाई हेतम सिंह का नाम अरवल और बिक्रम थाने में उत्पाती के तौर पर दर्ज था. बहरहाल, जिवधर सिंह पर जहानाबाद में दारोगा की हत्या के आरोप थे. उन पर दो हजार रुपये का इनाम भी रखा गया था. उन्हें गया के बिशुन दयाल सिंह ने पकड़वा दिया. अंग्रेजों ने उसे दो हजार रुपये का इनाम दिया. जिवधर सिंह को फांसी पर चढ़ा दिया गया.

सासाराम के निशान सिंह को फौजी अदालत में मुकदमा चलाकर गोली मारी गई

सासाराम के बड्डी गांव रहने वाले निशान सिंह कुंवर सिंह के प्रधान सहयोगी थे.मिर्जापुर हो या जौनपुर, विद्रोह के दौरान वह साये की तरह कुंवर सिंह के साथ रहे. प्रसिद्ध लांग मार्च के वह हिस्सेदार थे. गोली से उड़ाये जाने के पहले निशान सिंह ने बताया था कि वह लड़ाई के दौरान ही बीमार हो गये थे. सासाराम के बड्डी में उन्हें पकड़ा गया था. सासाराम के कर्नल स्ट्रेन ने उन्हें फौजी अदालत के हवाले कर दिया. उन पर मुकदमा चला और सात जून 1857 को उन्हें गोली से उड़ा दिया गया. इसके पहले निशान सिंह को आरा जेल में रखा गया था. जेल में ही उन्होंने विद्रोह के बारे में किताब लिखी थी. पर वह छप नहीं सकी. वह कुंवर सिंह के साथ अंतिम समय तक डटे रहे ताकि अंग्रेजी राज का सूर्य अस्त हो सके.

भोजपुर के रंजीत ग्वाला को कालापानी की सजा

रंजीत ग्वाला भोजपुर के शाहपुर के रहने वाले थे. वह 40 वीं पैदल कंपनी में वेतन बांटने वाले हलवदार थे. दानापुर में जब सिपाहियों ने बगावत की, तो उसमें रंजीत भी शामिल हो गये थे. वह कुंवर सिंह के साथ नौ महीने रहे.उन्हें बैरकपुर डिविजन विद्रोही फौज का कमांडर बना दिया गया था. बाद में उन्हें पकड़ लिया गया और उन्हें कालापानी की सजा हुई. पकड़े जाने के बाद उन्होंने बयान दिया: हमलोगों को अंग्रेजी फौज से मुकाबले के लिए दुल्लेपुर जाना पड़ा. वहां हमलोगों की हार हुई. बाबू कुंवर सिंह और अमर सिंह हमारे सरदार थे. हमलोग सासाराम से तिलौथू और अकबरपुर होते हुए रोहतासगढ़ किले में गये. वहां से पहाड़ी रास्ता पकड़े राबर्ट्सगंज और दारागंज होते हुए रीवां की ओर बढ़े.

5. राजगीर के भुट्टो दुसाध को हुई थी 14 साल की सजा

राजगीर के रहने वाले भुट्टो दुसाध को 14 साल की सजा हुई थी. उन पर राजगीर पुलिस चौकी पर एक हजार लोगों के साथ मिलकर हमला करने का आरोप था. राजगीर में जब हैदर अली ने विद्रोह किया तो भुट्टो का भी उन्हें साथ मिला. विद्रोह के समय उनकी उम्र करीब 35 साल थी. उनके साथ इस मामले में सजा पाने वाले थे, मोहम्मद बख्श, ओरम पांडेय, दाउद अली, सुधो धुनिया, सोहराई रजवार, जंगली कहार, शेख जिन्ना, सुकन पांडेय, देगन रजवार और डुमरी जोगी वगैरह. लेकिन 21 जून 1858 को जब गया जेल टूटा, तो वे वहां से भाग निकले. करीब तीन साल बाद उन्होंने सरेंडर कर दिया. तब तक विद्रोह की धमक कम हो गयी थी. ऐसे में कैदियों को जेल में रखना मुश्किल हो रहा था. सरकार ने माफी मांगने वालों को छोड़ना शुरू कर दिया था.

Posted by : Thakur Shaktilochan Shandilya

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