Bihar Election 2025: बिहार की राजनीति में ‘परिवार बनाम पार्टी’, चुनावी मैदान में वंशवाद की जंग

Bihar Election 2025: बिहार की राजनीति में विचारधारा पीछे है, परिवार आगे. इस चुनाव में भी सियासी गलियारों में सबसे जोर से गूंजा नारा है — ‘फैमिली फर्स्ट, पार्टी बाद में!’”

By Pratyush Prashant | October 23, 2025 12:24 PM

Bihar Election 2025: बिहार में विधानसभा चुनाव का मौसम आते ही एक पुरानी परंपरा फिर लौट आई है.नेताओं के घरों में टिकटों की बंदरबांट. अब परिवारवाद का दायरा बेटे और बेटियों तक सीमित नहीं है, वह भांजा, बहू, भतीजा, पत्नी, समधन तक हर रिश्ते तक फैल रहा है.

कहने को तो लोकतंत्र जनता का है, लेकिन हकीकत यह है कि बिहार की राजनीति में परिवार ही असली वोट बैंक बन गया है. हर दल में वही चेहरे, वही खानदान, बस झंडा अलग. कांग्रेस से लेकर राजद, जदयू, भाजपा, लोजपा या हम — किसी पार्टी में पारिवारिक राजनीति की पकड़ ढीली नहीं पड़ी.

“वंशवाद” की जड़ें कांग्रेस से निकलीं, बिहार में गहराईं

भारत में राजनीतिक वंशवाद की कहानी कांग्रेस से शुरू हुई थी. देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इंदिरा गांधी को पार्टी की कमान सौंपी, (यहां इस तथ्य पर भी ध्यान देने की जरूरत है जब तक पंडित नेहरू जीवित रहे, इंदिरा गांधी चुनावी राजनीति में सक्रिय नहीं रही) फिर वही विरासत राजीव गांधी, सोनिया गांधी, राहुल गांधी और अब प्रियंका गांधी तक पहुंची.

बिहार भी इस परंपरा से अछूता नहीं रहा.1957 में चंपारण के कुछ कांग्रेस नेताओं ने बिहार के पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण बाबू के बेटे शिवशंकर सिन्हा को विधानसभा चुनाव में उतारने का प्रस्ताव रखा. लेकिन श्री बाबू ने साफ कहा, ‘अगर मेरा बेटा चुनाव लड़ेगा, तो मैं खुद चुनाव नहीं लडूंगा. एक परिवार से एक ही व्यक्ति को टिकट मिलना चाहिए.’ इस सिद्धांत के चलते उनके बेटे को उनके जीवित रहते टिकट नहीं मिला. उनके निधन के बाद 1961 में उनके निधन के बाद ही शिवशंकर विधायक बन सके.

यह परंपरा अधिक दिनों तक नहीं चली. बाद के दौर में “राजनीति = परिवार” का समीकरण मजबूत हुआ. बिहार विभूति अनुग्रह नारायण सिंह के पुत्र सत्येंद्र नारायण सिंह मुख्यमंत्री बने. बाद में उनके पुत्र निखिल कुमार औरंगाबाद से सांसद और राज्यपाल तक बने. उनकी पत्नी श्यामा सिन्हा भी सांसद रहीं.

इंदिरा गांधी और जवाहरलाल नेहरू

ललित नारायण मिश्र का परिवार भी बिहार सियासत में गूंजता रहा. उनके भाई जगन्नाथ मिश्र दो बार मुख्यमंत्री बने, पुत्र नीतीश मिश्र आज मंत्री हैं, तो पोते ऋषि मिश्र विधायक रह चुके हैं. कांग्रेस के एक और नेता एलपी शाही की बहू वीणा शाही भी मंत्री बनीं. यानी कांग्रेस ने जो वंशवाद बोया, बिहार ने उसी को सहेज कर पाला.

मौजूदा विधानसभा चुनाव में भी कुटुंबा से राजेश राम पूर्व मंत्री दिलकेश्वर राम के बेटे हैं, नरकटियागंह से पूर्व सीएम केदार पांडेय के पौत्र शाश्वत केदार व हिसुआ से पूर्व मंत्री आदित्य सिंह की बहू नीतू सिंह प्रत्याशी हैं.

“जननायक” भी न बच सके परिवारवाद से

जननायक कर्पूरी ठाकुर और बिहार के पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह ने अपने जीवनकाल में अपने पुत्रों को राजनीति से दूर रखा, लेकिन उनके निधन के बाद परिवार की परछाई फिर सियासत में लौट आई. बंदीशंकर सिंह, श्रीकृष्ण सिंह के पुत्र, विधायक बने. वहीं रामनाथ ठाकुर, कर्पूरी ठाकुर के पुत्र, केंद्र सरकार में मंत्री बने. जिस समाजवादी राजनीति ने कभी वंशवाद का विरोध किया, वह भी अंततः उसी के आगे नतमस्तक दिखी. मौजूदा विधानसभा चुनाव में जननायक कर्पूरी ठाकुर कि पोती जागृति ठाकुर जनसुराज के टिकट पर चुनाव लड़ रही है.

लालू परिवार: जब राजनीति ‘घर की संपत्ति’ बन गई

बिहार के सबसे चर्चित राजनीतिक परिवार की बात करें तो लालू यादव और राबड़ी देवी का नाम सबसे ऊपर आता है. लालू दो बार मुख्यमंत्री रहे, जेल गए तो कुर्सी पत्नी राबड़ी देवी को थमा दी. अब वही परिवार तीन पीढ़ियों तक फैला राजनीतिक साम्राज्य बन चुका है.

राबड़ी देवी विधान परिषद में नेता प्रतिपक्ष हैं, छोटे पुत्र तेजस्वी यादव विधानसभा में विपक्ष के नेता हैं, बड़े पुत्र तेज प्रताप यादव विधायक हैं, तो बड़ी बेटी डॉ. मीसा भारती राज्यसभा सांसद.

राजद की राजनीति लालू परिवार के इर्द-गिर्द घूमती है — टिकट से लेकर प्रचार रणनीति तक, हर फैसले पर ‘परिवार की मुहर’ लगती है.

बिहार की राजनीति में परिवार

पासवान परिवार: लोजपा में रिश्तेदारी की राजनीति

रामविलास पासवान की पार्टी लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) को भी परिवारवादी ढांचे का सटीक उदाहरण कहा जा सकता है. जीते जी पासवान के परिवार में हर किसी को पार्टी में पद या टिकट मिला — भाई पशुपति पारस, दूसरे भाई रामचंद्र पासवान, बेटे चिराग पासवान, भतीजे प्रिंस पासवान, सभी सांसद बने.

रामविलास पासवान के निधन के बाद लोजपा दो हिस्सों में बंटी — एक धड़े का नेतृत्व पारस ने किया, दूसरे का चिराग पासवान ने.

अब चिराग पासवान केंद्रीय मंत्री हैं और इस चुनाव में उन्होंने अपने भांजे सीमांत मृणाल को गरखा विधानसभा से उम्मीदवार बनाया है. उनके बहनोई अरुण भारती पहले से जमुई से सांसद हैं.

जीतन राम मांझी: ‘हम’ में भी घर-घर टिकट

पूर्व मुख्यमंत्री और हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (हम) के संरक्षक जीतन राम मांझी ने भी परिवार को राजनीति में जमाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. उनके पुत्र डॉ. संतोष सुमन मंत्री हैं, बहू दीपा मांझी विधायक हैं, और समधन ज्योति देवी भी टिकट पा चुकी हैं.

इस बार भी मांझी ने बहू और समधन दोनों को मैदान में उतारा है. यानी “हम” पार्टी में भी “घर” पहले है, जनता बाद में.

भाजपा: विचारधारा के साथ वंशवाद का तालमेल

भले भाजपा खुद को परिवारवाद से दूर बताती रही हो, लेकिन बिहार की राजनीति में उसका चेहरा कुछ और दिखता है.

भाजपा ने तारापुर से पूर्व मंत्री शकुनी चौधरी के बेटे, झंझारपुर से पूर्व सीएम जगन्नाथ मिश्रा के बेटे, जमुई से पूर्व मंत्री दिग्विजय सिंह की बेटी, औरंगाबाद से पूर्व सांसद गोपाल नारायण सिंह के बेटे, बांकीपुर से पूर्व विधायक नवीन किशोर सिन्हा के बेटे, औराई से पूर्व सांसद अजय निषाद की पत्नी, तरारी से पूर्व विधायक सुनील पांडेय के बेटे को टिकट दिया है. प्राणपुर से निशा सिंह, परिहार से गायत्री देवी, बड़हरा से राघवेंद्र प्रताप सिंह, दीघा से संजीव चौरसिया, मधुबन से राणा रणधीर, गोरियाकोठी से देवेशकांत सिंह भी राजनीति घरानों से हैं.
भाजपा का दावा भले ‘विचारधारा आधारित पार्टी’ का हो, लेकिन टिकट वितरण में पारिवारिक समीकरण साफ झलकते हैं.

जदयू का हाल भी कुछ अलग नहीं.

बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में जदयू ने टिकट बंटवारे के दौरान वंशवाद को खुलकर बढ़ावा दिया है. एनडीए के घटक दल के रूप में जदयू ने इस बार लगभग हर क्षेत्र में राजनीतिक परिवारों के वारिसों पर भरोसा जताया है.

नवीनगर से सांसद लवली आनंद के बेटे को टिकट दिया गया है, वहीं पूर्व मंत्री मंजू वर्मा के बेटे को चेरिया बरियारपुर से उम्मीदवार बनाया गया है. इसी तरह, पूर्व सांसद अरुण कुमार के बेटे को घोसी सीट से प्रत्याशी बनाया गया है. गायघाट से कोमल सिंह जदयू प्रत्याशी हैं, जबकि उनकी मां वीणा सिंह लोजपा से सांसद हैं — यानी मां-बेटे अलग-अलग दलों से मैदान में हैं. चकाई से पूर्व मंत्री नरेंद्र सिंह के बेटे को, मांझी से पूर्व सांसद प्रभुनाथ सिंह के बेटे को और जमालपुर से पूर्व सांसद ब्रह्मानंद मंडल के बेटे को टिकट दिया गया है.

मोरवा से पूर्व विधायक रामचंद्र सहनी के पुत्र, अमरपुर से पूर्व विधायक जनार्दन मांझी के पुत्र, इस्लामपुर से पूर्व विधायक राजीव रंजन के पुत्र और राजगीर से पूर्व राज्यपाल सत्यदेव नारायण आर्य के पुत्र को उम्मीदवार बनाया गया है. वारिसनगर से विधायक अशोक सिंह के बेटे, बरौली से पूर्व मंत्री ब्रजकिशोर सिंह के बेटे, कुशेश्वरस्थान से पूर्व मंत्री डॉ. अशोक राम के बेटे, सकरा से मंत्री अशोक चौधरी के बेटे, मीनापुर से पूर्व मंत्री दिनेश कुशवाहा के बेटे और बरबीघा से पूर्व विधायक आर.पी. शर्मा के बेटे को टिकट दिया गया है.

वहीं, विभूतिपुर से पूर्व विधायक रामबालक सिंह की पत्नी रवीना कुशवाहा को मैदान में उतारा गया है.जदयू की प्रत्याशी सूची में लगभग हर दूसरे नाम के पीछे किसी न किसी राजनीतिक परिवार का संबंध नजर आ रहा है.

बिहार की राजनीति में परिवार

छोटे दल, बड़े रिश्तेदार

“छोटे दल” कहे जाने वाले वीआईपी और रालोमो भी इस ‘फैमिली फर्स्ट’ फार्मूले से अछूते नहीं हैं. वीआईपी प्रमुख मुकेश सहनी ने अपने भाई संतोष सहनी को गौड़ा-बौराम से उम्मीदवार बनाया है. बाबूबरही से गुलाब यादब की बेटी प्रत्याशी है.
भाकपा के राज्य सचिव रामनरेश पांडेय के बेटे राकेश पांडेय हरलाखी से लड़ रहे है. रालोमो के प्रमुख उपेंद्र कुशवाहा ने पत्नी स्नेहलता कुशवाहा को सासाराम से टिकट दिया. रालोजपा के नेता पशुपति पारस के पुत्र यशराज पासवान भी उम्मीदवार बने.

बिहार में यह परंपरा इतनी आम हो चुकी है कि इसे “वंशवाद” कहना अब शायद “सामान्य” ही लगता है.

जन सुराज में ‘परिवारवाद’ की एंट्री? उम्मीदवारों की सूची पर उठे सवाल

जन सुराज आंदोलन ने जब बिहार चुनाव 2025 के लिए अपने उम्मीदवारों की सूची जारी की, तो राजनीति के गलियारों में नई चर्चा छिड़ गई. ‘नई राजनीति’ का दावा करने वाले प्रशांत किशोर (पीके) के इस प्रयोग पर अब वही पुराना आरोप लग रहा है — परिवारवाद का. पार्टी के कई उम्मीदवार ऐसे हैं, जिनकी पृष्ठभूमि सीधे तौर पर सियासी घरानों से जुड़ी है.

अस्थावां सीट से उम्मीदवार लता सिंह का नाम भी इसी वजह से चर्चा में है. वे जदयू के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष आरसीपी सिंह की बेटी हैं. पिछले विधानसभा चुनाव में उनके प्रत्याशी बनने की अटकलें थीं, जो अब जाकर सच साबित हुईं. जन सुराज ने उन्हें टिकट दिया .

मोरवा सीट से पार्टी ने डॉ. जागृति ठाकुर को उम्मीदवार बनाया है, जो बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर की पोती हैं.

वहीं खगड़िया से जयंती पटेल का नाम सूची में है. वे भी जदयू से जुड़ी रही हैं और एक सफल महिला उद्यमी के रूप में पहचान रखती हैं. आरसीपी सिंह की करीबी मानी जाने वाली जयंती अब जन सुराज के टिकट पर मैदान में हैं.

फैमिली फर्स्ट’ का समाजशास्त्र: क्यों टिकाऊ है यह मॉडल?

बिहार की राजनीति जातीय समीकरणों पर टिकी है. ऐसे में “परिवार” सिर्फ खून का रिश्ता नहीं, बल्कि वोट का भरोसा भी है. मतदाता पहचानता है नाम, चेहरे, और खानदान. यही वजह है कि नेता अपने परिवार को टिकट देकर “पहचाने हुए ब्रांड” का फायदा उठाते हैं. वंशवाद अब सिर्फ नैतिक बहस नहीं, बल्कि “इलेक्टोरल स्ट्रैटेजी” बन चुका है. इस रणनीति ने राजनीति को जनसेवा से हटाकर वंश रक्षा अभियान बना दिया है.

राजद से लेकर भाजपा, जदयू से हम तक, लगभग हर दल में दर्जनों ऐसे उम्मीदवार हैं जो किसी न किसी नेता के रिश्तेदार हैं. राजद में तेजस्वी, तेज प्रताप, मीसा, स्मिता पूर्वे, राहुल तिवारी से लेकर राघोपुर तक रिश्तों की भरमार है. जदयू में चेतन आनंद, सुमित सिंह, रणधीर सिंह, कोमल सिंह जैसे नाम गूंज रहे हैं. भाजपा में सम्राट चौधरी, श्रेयसी सिंह और नितिन नवीन प्रमुख चेहरे हैं. यह तस्वीर बताती है कि “परिवार” अब हर दल की साझा पहचान बन चुका है.

बिहार की राजनीति में परिवार

इतिहास दोहराता है और बिहार में तो हर बार

1952 के पहले चुनाव में बिहार से ऐसे परिवारवादी चेहरे नाममात्र थे. लेकिन जैसे-जैसे राजनीति में सत्ता और संसाधनों का केंद्रीकरण बढ़ा, वैसे-वैसे “पारिवारिक हस्तांतरण” तेज हुआ.

बिहार की सियासत इस सूत्र को बार-बार तोड़ती है. यहां जनता वोट देती है, लेकिन सत्ता परिवारों के पास लौट आती है. वंशवाद का यह जाल इतना गहरा है कि अब उसे तोड़ना किसी एक पार्टी या नेता के बूते की बात नहीं रही.

सवाल यह है कि क्या बिहार के मतदाता कभी “परिवार” से आगे जाकर “प्रदर्शन” पर वोट देंगे? क्योंकि जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक बिहार की सियासत में “फैमिली फर्स्ट” ही रहेगा और लोकतंत्र, दूर कहीं पीछे.

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