Bihar Elections 2025: बिहार चुनाव में आधी आबादी पर अधूरा भरोसा, 35% सीटों पर महिला उम्मीदवार नहीं
Bihar Elections 2025: बिहार में महिलाएं हर चुनाव में बूथों तक पहले पहुंचती हैं, लेकिन नामांकन के पन्नों पर उनका नाम कहीं खो जाता है. 243 सीटों वाले विधानसभा चुनाव में 83 सीटें ऐसी हैं जहां एक भी महिला उम्मीदवार नहीं है. यानी हर तीसरी सीट से आधी आबादी गायब है
Bihar Elections 2025: व्हील चेयर पर बैठी बुजुर्ग महिला, सिर पर पल्लू संभालती नौजवान महिला मतदाता और चुनावी रैलियों में महिलाएं हर ओर दिखाई देती हैं. जब उम्मीदवारों की सूची खुलती है,तब तस्वीर बदल जाती है.
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में राजनीतिक दलों ने आधी आबादी को एक बात फिर नजरअंदाज किया गया है. पहले चरण की 121 सीटों में से 83 सीटों पर कोई महिला उम्मीदवार नहीं है, जबकि बिहार में मतदान आंकड़े बताते हैं कि महिलाओं की भागीदारी पुरुषों से लगातार ज्यादा रही है.
जहां नहीं है कोई महिला उम्मीदवार
पहले चरण की 121 सीटों में से अगियांव, अलौली, आरा, बछवाड़ा, बैकुंठपुर, बख्तियारपुर, बरबीघा, विक्रम, ब्रह्मपुर, चेरिया बरियारपुर, दरौली, दरभंगा ग्रामीण, एकमा, गोरायकोठी, हरनौत, हिलसा, जमालपुर, कुचायकोट, लखीसराय, महाराजगंज, मुंगेर, परबत्ता, सहरसा, सरायरंजन, सोनपुर, सूर्यगढ़ा और जीरादेई जैसी सीटों पर कोई भी महिला उम्मीदवार मैदान में नहीं है.
यह आंकड़ा बताता है कि बिहार की राजनीति में अब भी ‘टिकट वितरण’ एक पुराना पितृसत्तात्मक गणित है, जिसमें महिला नेतृत्व को मौके के बजाय प्रतीकात्मकता तक सीमित कर दिया गया है.
दिलचस्प बात यह भी है कि भोरे विधानसभा सीट पर इस बार एक शादीशुदा ट्रांसजेंडर प्रत्याशी मैदान में हैं, जो सामाजिक विविधता का संकेत तो देती हैं, लेकिन महिला प्रतिनिधित्व की कमी को पूरा नहीं कर पातीं.
दूसरे चरण में भी वही कहानी दोहराई गई
दूसरे फेज की सीटों पर भी महिलाओं की अनुपस्थिति चौंकाने वाली है. बांका, बरारी, भभुआ, बिस्फी, डेहरी, धौरैया, गोविंदगंज, हरलाखी, करगहर, कुर्था, मोतिहारी, नरकटियागंज, पिपरा, रामनगर, रीगा, रक्सौल, सुगौली, सुल्तानगंज और वाल्मीकिनगर जैसे क्षेत्रों में भी एक भी महिला उम्मीदवार नहीं है.
इस तरह पहले और दूसरे चरण को मिलाकर यह साफ हो जाता है कि राजनीतिक दलों ने महिला उम्मीदवारों को सिर्फ औपचारिकता तक सीमित रखा है जबकि मैदान में वही मतदाता निर्णायक हैं.
आंकड़े बताते हैं असमानता की कहानी
2020 के विधानसभा चुनाव में भी स्थिति निराशाजनक थी. कुल 243 विधायकों में केवल 26 महिलाएं विजेता रहीं, जो 2015 (28 महिलाएं) और 2010 (34 महिलाएं) की तुलना में और कम है. यानी आधी आबादी राजनीति में लगातार सिमटती जा रही है.
इसके विपरीत, मतदान प्रतिशत की बात करें तो महिलाएं पुरुषों से आगे रही हैं. 2010 में पुरुषों का वोट प्रतिशत 51.12 रहा जबकि महिलाओं का 54.49 प्रतिशत. 2015 में महिलाओं का वोटिंग प्रतिशत 60 फीसदी से ऊपर गया. 2020 में 59.69 प्रतिशत महिलाओं ने मतदान किया, जबकि पुरुषों का आंकड़ा 54.45 प्रतिशत रहा.
यह अंतर बिहार की सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना और दलों की प्राथमिकताओं दोनों को कटघरे में खड़ा करता है.
राजनीतिक प्रतिनिधित्व की गिरावट चिंताजनक
बिहार के राजनीति में महिलाओं की संख्या लगातार घट रही है. 2010 में 34 महिलाएं विधायक बनी थीं. 2015 में यह संख्या घटकर 28 रह गई. 2020 में सिर्फ 26 महिला विधायक विधानसभा तक पहुंच सकीं. यह आंकड़ा बताता है कि ‘महिला सशक्तिकरण’ के नारे और वास्तविक प्रतिनिधित्व के बीच गहरी खाई है.
महिलाओं के राजनीतिक सशक्तिकरण के बिना सामाजिक बराबरी अधूरी है. सरकारी नौकरियों और पंचायत स्तर पर बढ़ती महिला भागीदारी के बावजूद विधानसभा में उनका असर लगातार घटा है, जिससे नीतिगत स्तर पर महिला मुद्दे हाशिए पर चले जाते हैं.
महिलाओं को राजनीति में बराबर अवसर मिले, इसके लिए 33 प्रतिशत आरक्षण की मांग दो दशक से चर्चा में है, लेकिन बिहार में अब तक इसे लेकर कोई ठोस राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं दिखी. इस बार भी किसी दल ने अपने उम्मीदवारों में महिलाओं की संख्या घोषित नहीं की है.
क्या बदलेगा समीकरण
राजनीति में लगातार घटती महिला प्रतिनिधित्व की यह प्रवृत्ति तब और विडंबनापूर्ण लगती है जब बिहार की महिलाएं शिक्षा, पंचायत और रोजगार क्षेत्रों में आगे बढ़ रही हैं. पंचायत चुनावों में 50 प्रतिशत आरक्षण ने नेतृत्व की स्थानीय संस्कृति को बदला, लेकिन वही प्रभाव विधानसभा स्तर पर अब तक नहीं दिखा.
मतदान में आगे रहने वाली महिलाएं आज भी ‘उम्मीदवार सूची’ में पीछे हैं. जब तक राजनीतिक दल टिकट वितरण में लिंग-समानता को जगह नहीं देंगे, तब तक ‘आधी आबादी’ का सशक्तिकरण सिर्फ भाषणों में रहेगा, हकीकत में नहीं.
