Bhagalpur news धर्म स्थापना करने के लिए प्रभु का होता है अवतार

भगवान के अवतार लेने का मुख्य प्रयोजन भक्तों पर कृपा करना है और दुष्टों का संघार कर धर्म की स्थापना करना है.

By JITENDRA TOMAR | October 17, 2025 1:22 AM

कहलगांव काली पूजा सेवा समिति की ओर से आयोजित खुटहरी मंदिर परिसर में सात दिवसीय संगीतमय श्रीमद् भागवत कथा के चौथे दिन कथा व्यास आचार्य शुभम रामानुज श्री बैष्णवाचार्य जी महाराज ने कहा कि भगवान बैकुंठ में रह कर दुष्ट आदि का अंत कर सकते हैं, फिर भी भगवान के अवतार लेने का मुख्य प्रयोजन भक्तों पर कृपा करना है और दुष्टों का संघार कर धर्म की स्थापना करना है. प्रत्येक प्राणी उस धर्म को अपने जीवन में उतार कर भगवान की शाश्वत प्राप्ति कर सकता है. जीव के अंदर भगवान के श्री चरणों के प्रति विश्वास है. सच्चा प्रेम है, तो परमात्मा उस जीव की रक्षा करने के लिए सहर्ष ही दौड़ कर के आते हैं, और प्रेम के वशीभूत होकर भक्त जो भी बनना चाहता है मेरे प्रभु उस भक्त के लिए वही बन जाते हैं. मौके पर काली पूजा सेवा समिति के सदस्यों सहित भारी संख्या में धर्म परायण लोग उपस्थित थे.

परमात्मा हरण नहीं ग्रहण करते हैं : स्वामी ज्ञानानंद सरस्वती

कहलगांव हटिया रोड में चल रहे श्रीमद्भागवत कथा सह श्री लक्ष्मीनारायण महायज्ञ के सातवें दिन कथाव्यास परमहंस परिव्राजकाचार्य स्वामी ज्ञानानंद सरस्वती जी महाराज ने रुक्मिणी परिणयोत्सव प्रसंग में कहा कि परमात्मा हरण नहीं ग्रहण करते हैं. रुक्मिणी हरण नहीं, लीला पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण चंद्र जी की ग्रहण लीला है. रुक्मिणी महारानी ने सुंदर प्रार्थना की प्रभो! आपके त्रिभुवन में सुंदर गुणों को जबसे हमने श्रवण किया है. आपके सौंदर्य माधुर्य पान करने के लिए हमारी एक-एक श्वास चित्त मन प्राण आप में प्रविष्ट हो गया है. मेरी आत्मा आपको समर्पित हो चुकी है. आत्मर्पितश्च! प्रभो यदि जन्म जन्मांतर के मेरे कुछ भी पुण्य! दान नियम-व्रत देव गुरु विप्र पूजन आदि के द्वारा परमेश्वर की आराधना की गयी हो, तो आप गदाग्रज भगवान श्री द्वारकाधीश स्वयं आकर मेरा पाणिग्रहण करें पाणिं ग्रहणातु में कोई अन्य शिशुपाल आदि मेरा स्पर्श न कर सके! श्री स्वामी जी महाराज ने कहा कि माता रुक्मिणी के ईश्वरार्पित सत्य संकल्प को पूर्ण करने के लिए रथारूढ़ गरुणध्वज भगवान का आगमन हो गया है और मित्थ्याभिमानी नरपतियों के मद को चूर्ण करते हुए रुक्मिणी महारानी को ग्रहण कर लिया.

विदर्भराज कुमारी रुक्मिणी जी को द्वारका में लाकर श्री भगवान कृष्ण चंद्र ने उनका विधिपूर्वक पाणिग्रहण किया. द्वारका पुरी के प्रत्येक द्वार पर केलों के खम्भे, सुपारी के मांगलिक पौधे, चित्र विचित्र मालाएं, ध्वजा पताकाएं, आम्र अशोक तमाल- कुशा के तोरण वंदनवार, विल्व, दूर्वा, तुलसी, खील, हरिद्रा, अक्षत, चन्दन, पुष्प, धूप-दीप वैदिक ध्वनि मन्त्रनाद, मंगलकलश लिए चार- चार दांतों वाले हाथियों के समूह, उछलती-कूदती सागर की तरंगो से द्वारकापुरी अपूर्व शोभा सम्पन्न होने लगी. द्वारकावासी महालक्ष्मी को साक्षात रुक्मिणी के रूप में और द्वारकाधीश भगवान श्रीकृष्ण चंद्र जी को चतुर्भुज महाविष्णु के रूप में देख कर परम आनंदित हो उठे. महामोदः पुरोकसाम. मौके पर भगवान शालिग्राम और तुलसी महारानी का मांगलिक परिणय उत्सव और वैदिक आचार्यों ने मंत्र पाठ व संगीतज्ञ बंधुओं ने अपने भजन माधुरी से श्रद्धालुओं को मंत्र मुग्ध कर दिया. गुरुपीठ पूजन के उपरांत श्री भागवत कथा जी को विश्राम दिया गया.

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