खुद की पहचान बनाने के जज्बे ने मंजू रानी को सफल बनाया

नयी दिल्ली : भारतीय मुक्केबाज मंजू रानी को खुद की पहचान बनाने की ललक ने मुक्केबाजी दस्ताने पहनने को प्रेरित किया और रिंग में उतरने के बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा. पहली बार महिला विश्व चैम्पियनशिप में भाग लेने वाली उन्नीस साल की मंजू को रविवार को उलान उदे में हुए फाइनल में पराजय […]

By Prabhat Khabar Print Desk | October 13, 2019 4:26 PM

नयी दिल्ली : भारतीय मुक्केबाज मंजू रानी को खुद की पहचान बनाने की ललक ने मुक्केबाजी दस्ताने पहनने को प्रेरित किया और रिंग में उतरने के बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा.

पहली बार महिला विश्व चैम्पियनशिप में भाग लेने वाली उन्नीस साल की मंजू को रविवार को उलान उदे में हुए फाइनल में पराजय के बाद रजत पदक से संतोष करना पड़ा. इस मुक्केबाज को लाइट फ्लायवेट (48 किलो) वर्ग के फाइनल में रूस की एकातेरिना पाल्सेवा ने 4-1 से हराया.

गृह राज्य हरियाणा से मौका नहीं मिलने पर राष्ट्रीय चैम्पियनशिप में पंजाब का प्रतिनिधित्व करने वाली मंजू विश्व चैम्पियनशिप के फाइनल में जगह बनाने वाली एकमात्र भारतीय थी. इससे पहले छह बार की चैम्पियन एम सी मेरीकोम (51 किलो), जमुना बोरो (54 किलो) और लवलीना बोरगोहेन (69 किलो) को कांस्य पदक से संतोष करना पड़ा.

बोरगोहेन का यह लगातार दूसरा कांस्य पदक था. शनिवार को 20 बरस की होने जा रही मंजू ने कहा, मेरे यह जन्मदिन का समय से पहले मिलने वाले तोहफे की तरह हैं.

रोहतक के रिठाल फोगाट गांव की रहने वाली मंजू के लिए चीजें इतनी आसान नहीं थी. सीमा सुरक्षा बल में अधिकारी के पद पर तैनात उनके पिता का कैंसर के कारण 2010 में निधन हो गया था. इसके बाद उनकी मां इशवंती देवी ने उनके चार भाई-बहनों का लालन पालन किया.

मंजू ने कहा, मैंने करियर की शुरुआत कबड्डी खिलाड़ी के तौर पर की थी, लेकिन वह टीम खेल है. मुक्केबाजी ने मुझे आकर्षित किया क्योंकि यह व्यक्तिगत खेल है. यहां जीत का श्रेय सिर्फ आपको मिलता है.

उन्होंने कहा, मां ने कैरियर चयन के मामले में मेरा पूरा समर्थन किया. उन्होंने हर समय मेरा साथ दिया. मंजू को ओलंपिक पदक विजेता विजेंदर सिंह और एम सी मेरीकोम से प्रेरणा मिलती है. उन्होंने कहा, विजेन्द्र भईया और मेरीकोम दीदी ने कई लोगों को प्रेरित किया है और मैं भी उनमें से एक हूं. उनकी उपलब्धियों को देखकर आपको और मेहनत करने की प्रेरणा मिलती है. मैं उनके खेल को देखती थी और फिर इससे जुड़ने के बारे में सोचा.

मंजू ने इस मौके पर आपने चाचा साहेब सिंह के योगदान को याद करते हुए कहा वह उनके कारण ही आक्रामक मुक्केबाज बनी. उन्होंने कहा, मजेदार बात यह है कि वह (साहेब सिंह) मुक्केबाजी के बारे में ज्यादा कुछ नहीं जानते थे. ऐसे में मुझे सिखाने के लिए वह पहने खुद सीखते थे, लेकिन इस खेल का सीखना मेरे लिए अच्छा रहा.

उन्होंने बताया कि खेल को सीखने के बाद उन्हें मौके की तलाश थी और हरियाणा से मौका नहीं मिलने पर उन्होंने कही और से खेलने का फैसला किया. मंजू ने कहा, मैंने पंजाब विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया और प्रतियोगिता में भाग लेना शुरू किया.

राज्य टीम में जगह बनाने के बाद राष्ट्रीय चैम्पियनशिप में जगह पक्की की और जनवरी में भारतीय शिविर का हिस्सा बनी. उन्होंने इस साल पहली बार स्ट्रांजा मेमोरियल टूर्नामेंट खेलते हुए रजत पदक जीता.

Next Article

Exit mobile version