विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस : देश का बंटवारा और सांप्रदायिक दंगों का दंश
Vibhajan Vibhishika Divas : भारत का विभाजन हुए एक लंबा अरसा गुजर गया है, पर अब भी हमारे आसपास ऐसे तमाम लोग मौजूद हैं, जिन्होंने उस दौर में हुए दंगों में अपनों को खोया. स्वीडन में रहने वाले पाकिस्तान मूल के राजनीतिक चिंतक डॉ इश्तियाक अहमद अपनी किताब 'द पंजाब ब्लडीड, पार्टिशंड एंड क्लींज्ड' में लिखते हैं कि मोहम्मद अली जिन्ना की बयानबाजी ने सांप्रदायिक तनाव को और बढ़ाया.
Vibhajan Vibhishika Divas : मोहम्मद अली जिन्ना सात अगस्त,1947 को दिल्ली से कराची के लिए रवाना हो रहे थे. उनके साथ उनकी बहन फातिमा जिन्ना भी थीं. तब यहां पहाड़गंज, करोल बाग, किशनगंज, सब्जी मंडी आदि में सांप्रदायिक दंगे भड़के हुए थे, पर मजाल है कि उन्होंने दिल्ली को हमेशा-हमेशा के लिए छोड़ने से पहले एक बार भी दंगाग्रस्त क्षेत्रों में जाकर शांति बहाली की जरूरत महसूस की हो. पाकिस्तान के 1970 के दशक के तेज गेंदबाज सिकंदर बख्त का परिवार करोल बाग में रहता था. वे कहते हैं कि दिल्ली में दंगे नहीं भड़कते, तो उनके पुरखे पाकिस्तान नहीं जाते.
हालांकि, जिन जिन्ना ने 16 अगस्त, 1946 को ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ का आह्वान किया था, उनसे इस तरह की उम्मीद नहीं की जा सकती थी कि वह नफरत की आग को बुझाने का काम करेंगे. जिन्ना के आह्वान के चलते कोलकाता में इस दिन शुरू हुई हिंसा में हजारों बेगुनाह मारे गये. इसे ‘ग्रेट कलकत्ता किलिंग्स’ कहा गया. जिन्ना या मुस्लिम लीग ने खून-खराबे को रोकने के बजाय आग में घी डालने का ही काम किया था. जब कलकत्ता जल रहा था, तब हुसैन शहीद सुहरावर्दी बंगाल के मुख्यमंत्री थे. उन पर आरोप लगे कि उन्होंने पुलिस को निर्देश दे दिये थे कि वे आंखें बंद कर बैठी रहे. इन दंगों में हिंदुओं को विशेष रूप से भारी नुकसान उठाना पड़ा. सुहरावर्दी आगे चलकर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री भी बने.
वरिष्ठ लेखक त्रिलोक दीप 1947 के बंटवारे पर बातें करने से बचते हैं. उन्हें बंटवारे ने बहुत गहरे घाव दिये हैं, पर इसरार करने पर बताने लगते हैं कि ‘मैं तब दसेक साल का था और अपने माता-पिता के साथ अगस्त, 1947 से कुछ पहले ही रावलपिंडी से लाहौर होता हुआ लखनऊ पहुंच गया था. रावलपिंडी के हालात लगातार खराब हो रहे थे.’ भारत का विभाजन हुए एक लंबा अरसा गुजर गया है, पर अब भी हमारे आसपास ऐसे तमाम लोग मौजूद हैं, जिन्होंने उस दौर में हुए दंगों में अपनों को खोया. स्वीडन में रहने वाले पाकिस्तान मूल के राजनीतिक चिंतक डॉ इश्तियाक अहमद अपनी किताब ‘द पंजाब ब्लडीड, पार्टिशंड एंड क्लींज्ड’ में लिखते हैं कि मोहम्मद अली जिन्ना की बयानबाजी ने सांप्रदायिक तनाव को और बढ़ाया. वे कभी सांप्रदायिक दंगों को रोकने के लिए दंगाइयों के बीच नहीं गये.
दरअसल, 1947 में जब विभाजन की प्रक्रिया शुरू हुई, तब पंजाब और बंगाल में हिंसा अपने चरम पर थी. तब जिन्ना का ध्यान मुख्य रूप से सत्ता पर काबिज होना था. उन्होंने 11 अगस्त, 1947 को कराची में दिये अपने भाषण में पाकिस्तान को धर्मनिरपेक्ष मुल्क बनाने का वादा किया, पर जब वे इस तरह का वादा कर रहे थे, तब कराची जल रही थी. वहां अल्पसंख्यकों का कत्लेआम हो रहा था. जिन्ना के पास दंगे रोकने की कोई इच्छाशक्ति नहीं थी. जिन्ना की तरह मुस्लिम लीग में उनके बाद नंबर दो समझे जाने वाले लियाकत अली खान और बाकी नेताओं का भी ध्यान दंगों को रोकने की ओर नहीं था.
पश्चिम दिल्ली के जनकपुरी में ‘सुखो खालसा’ स्कूल है. प्रख्यात रचानकार भीष्म साहनी ने ‘तमस’ में ‘सुखो’ का उल्लेख किया है. यह एक छोटी-सी तहसील है रावलपिंडी जिले की. सुखो बेहतरीन जगह थी. उसका चरित्र समावेशी था, पर देश के बंटवारे के समय आपसी नफरत का दौर था. जो दोस्त और पड़ोसी सदियों से एक-दूसरे के साथ रह रहे थे, वे भी एक-दूसरे की जान के प्यासे हो गये थे. आजादी के ठीक पहले सांप्रदायिकता की बैसाखियां लगाकर पाशविकता का जो नंगा नाच सुखो में खेला गया था, उसका मार्मिक चित्रण भीष्म साहनी ने तमस में किया है.
भीष्म साहनी का परिवार भी रावलपिंडी से ही था. वे बताते थे कि सुखो में मुस्लिम लीग का कोई भी नेता दंगों को रोकने के लिए आगे नहीं आया, पर जिन्ना के विपरीत, महात्मा गांधी हिंसाग्रस्त क्षेत्रों में जाकर शांति स्थापित करने की कोशिश कर रहे थे. वे नोआखाली (अब बांग्लादेश) में छह नवंबर, 1946 को पहुंचे. वहां सात सप्ताह रहे और जब वहां से निकले, तो हालात सामान्य हो चुके थे. जिन्ना के ‘डायरेक्ट एक्शन’ के आह्वान के बाद कोलकाता में भड़की हिंसा का असर नोआखाली में भी हुआ था. गांधी जी की नोआखाली की शांति यात्रा का मुस्लिम लीग के मंत्रियों, कार्यकर्ताओं और स्थानीय मौलवियों ने घोर विरोध किया था.
मुख्यमंत्री हुसैन शहीद सुहरावर्दी ने भी गांधी जी से नोआखाली छोड़ने के लिए कहा था. वे नोआखाली के बाद बिहार, कलकत्ता और अंत में दिल्ली के दंगे रोकने के लिए निकल पड़े.
गांधी जी सात सितंबर, 1947 को अंतिम बार कोलकाता से दिल्ली के शाहदरा रेलवे स्टेशन पर उतरे. दिल्ली सांप्रदायिक दंगों के कारण धू-धू कर जल रही थी. गांधी जी दंगा प्रभावित जगहों पर गये, सभाएं कीं और हिंदू, मुस्लिम तथा सिख समुदायों के बीच सुलह की अपील की. उन्होंने 13 जनवरी, 1948 को एक और अनशन शुरू किया, जिसका उद्देश्य दिल्ली में शांति स्थापित करना था. इस अनशन के चलते दिल्ली में अमन की बहाली हो गयी. गांधी जी के अलावा, नेहरू, सरदार पटेल, मौलाना आजाद आदि भी दंगों को रोकने के काम में दिन-रात लगे हुए थे. काश! जिन्ना और मुस्लिम लीग के नेताओं ने भी ऐसा किया होता. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)
