अप्रतिम ज्ञान, पहचान व सहजता की प्रतिमूर्ति

कुछ छात्रों ने डॉ राधाकृष्णन का जन्मदिन मनाना चाहा, तो उन्होंने इच्छा जतायी कि उनके जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाए.

By कृष्ण प्रताप | September 5, 2022 8:22 AM

‘जब ज्ञान इतना घमंडी हो जाए कि रो न सके, इतना गंभीर बन जाये कि हंस न सके और इतना आत्मकेंद्रित बन जाये कि अपने सिवा और किसी की चिंता न करे, तो वह ज्ञान अज्ञान से भी ज्यादा खतरनाक होता है.’ दार्शनिक खलील जिब्रान ने जब ज्ञान की यह कसौटी बनायी, तो उन्हें शायद ही उम्मीद रही हो कि कोई इस कसौटी को अपनी जीवन यात्रा का आदर्श बनायेगा.

भारत के इकलौते दार्शनिक राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने उक्त स्थापना में नयी कड़ी जोड़ी- ‘जब हम मानने लगें कि हम सब कुछ जान गये हैं, तो समझ लेना चाहिए कि हम खुद सीखना बंद कर अपने ज्ञानार्जन के रास्ते में अलंध्य दीवारें खड़ी करने लगे हैं, क्योंकि शिक्षा का लक्ष्य है ज्ञान के प्रति समर्पण की भावना और निरंतर सीखते रहने की प्रवृत्ति तथा करुणा, प्रेम और श्रेष्ठ परंपराओं का विकास.’ यूनानी दार्शनिक सुकरात का भी यही मानना था कि आपको इसका ज्ञान हो जाना ही सत्य का ज्ञान हो जाना है कि आप कुछ नहीं जानते.

डॉ राधाकृष्णन की बेमिसाल सहजता सादगी के मणिकांचन सहयोग से उनके व्यक्तित्व को मनुष्यता की ऐसी आभा प्रदान करती थी, जिसके लिए घमंडी होना संभव ही नहीं था. वे अपने छात्रों के बीच बहुत लोकप्रिय थे क्योंकि शिक्षण के दौरान वे दर्शनशास्त्र की नीरस बौद्धिक व्याख्याओं को भी अपनी आनंदमय अभिव्यक्तियों और गुनगुनाने वाली कहानियों से ओतप्रोत कर उन्हें मंत्रमुग्ध कर देते थे.

उनके छात्र उन्हें कितना चाहते थे, इसकी एक मिसाल यह है कि 1921 में मैसूर विश्वविद्यालय से जब वे कलकत्ता विश्वविद्यालय जाने लगे, तो महाराजा कॉलेज मैसूर के छात्रों ने उनकी फूलों से सजी बग्घी को खुद अपने हाथों से खींचकर रेलवे स्टेशन पहुंचाया था. साल 1926 में वे हार्वर्ड विश्वविद्यालय की इंटरनेशनल फिलॉसफी कांग्रेस को संबोधित करने गये, तो पश्चिम के दर्शनशास्त्रियों को हैरान कर दिया. अनंतर राधाकृष्णन ने पश्चिमी दुनिया को उसी की भाषा में भारतीय दर्शन समझाया. उनकी ख्याति ऐसी फैली कि उन्हें सोलह बार साहित्य व ग्यारह बार शांति के नोबेल पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया.

वे 13 मई, 1962 को देश के दूसरे राष्ट्रपति बने, तो दुनियाभर के दार्शनिकों ने उसे अपने सम्मान से जोड़ा था. बर्ट्रेंड रसेल तो खुद को उनके इस पद के ग्रहण को प्लेटो की दार्शनिकों को राजा बनाने की इच्छा के साकार होने के रूप में देखने से भी नहीं रोक पाये थे. बाद में कुछ छात्रों ने डॉ राधाकृष्णन का जन्मदिन मनाना चाहा, तो उन्होंने इच्छा जतायी कि उनके जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाये,

तो वे कहीं ज्यादा गौरवान्वित अनुभव करेंगे. पूर्ववर्ती राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद के नक्श-ए-कदम पर चलते हुए उन्होंने अपने वेतन से तीन-चौथाई की कटौती करा ली थी, जो प्रधानमंत्री के राष्ट्रीय सुरक्षा कोष में दे दी जाती थी. उन्होंने दोबारा राष्ट्रपति नहीं बनने की इच्छा भी जाहिर कर दी थी. उनके राष्ट्रपति रहते कोई भी व्यक्ति सप्ताह में दो दिन पूर्व में समय लिये बिना भी उनसे मिल सकता था.

दार्शनिक होने के बावजूद उनका सेंस आफ ह्यूमर गजब का था. वर्ष 1962 में यूनान के राजा भारत के दौरे पर आये, तो उन्होंने कहा था, ‘महाराज, आप यूनान के पहले राजा हैं, जो भारत में अतिथि की तरह आये हैं. सिकंदर तो यहां बिन बुलाये मेहमान बनकर आये थे.’ राष्ट्रपति बनने से पहले वे देश-विदेश के कई विश्वविद्यालयों में प्रोफेसर, सोवियत संघ व यूनेस्को में भारत के राजदूत और दो बार उपराष्ट्रपति व राज्यसभा के पदेन सभापति रहे. उन्होंने इन सभी पदों के दायित्वों का कुशलतापूर्वक निर्वहन किया.

उनके पुत्र डॉ एस गोपाल ने उनकी जीवनी में लिखा है कि 1957 में उपराष्ट्रपति के रूप में वे चीन गये, तो वहां के शीर्ष नेता माओ के घर चुग नाना हाई भी गये. वहां उन्होंने देखा कि माओ उनकी अगवानी के लिए आंगन में खड़े हैं. थोड़ी चर्चा के बाद जाने डॉ राधाकृष्णन को क्या सूझा कि उन्होंने माओ के गाल थपथपा दिये. जब उन्होंने देखा कि उनके इर्द-गिर्द खड़े लोगों को यह अजीब लगा है,

तो कह दिया कि वे ऐसे ही स्टालिन और पोप के गाल भी थपथपा चुके हैं. भोजन के दौरान माओ ने भी अपनापन दर्शाने के लिए अपनी प्लेट से मांसाहारी व्यंजन का एक टुकड़ा उठाकर राधाकृष्णन की प्लेट में रख दिया. तब राधाकृष्णन ने शाकाहारी होने के बावजूद उनके स्नेह का सम्मान किया. अंग्रेजी शासन में 1931 में उन्हें नाइटहुड बैचलर और आजादी के बाद 1954 में भारतरत्न से नवाजा गया था.

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