स्मृति शेष : राम सुतार की बनायी हुई मूर्तियां बोलती थीं
Ram Sutar : पद्म भूषण से सम्मानित राम सुतार का निधन 17 दिसंबर, 2025 को नोएडा स्थित उनके आवास पर हो गया. उनकी कला यात्रा आगे भी लोगों को प्रेरित करती रहेगी. उनका जन्म 19 फरवरी, 1925 को महाराष्ट्र के धुले जिले के गोंदुर गांव में एक साधारण विश्वकर्मा परिवार में हुआ था.
Ram Sutar : दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमा ‘स्टैच्यू ऑफ यूनिटी’ के रचयिता के रूप में अमर हो चुके राम सुतार के निधन से भारतीय मूर्तिकला जगत के एक युग का अंत हो गया. उन्होंने 1959 में केंद्र सरकार की नौकरी छोड़ स्वतंत्र मूर्तिकार बनने का साहसिक फैसला लिया. यह निर्णय उनके जीवन का टर्निंग पॉइंट साबित हुआ. उनकी कला की खासियत उनकी यथार्थवादिता और भावपूर्ण अभिव्यक्ति थी. वह मूर्तियों में जीवंतता लाते थे, मानो पत्थर बोल उठे. उनकी बनायी मूर्तियां इतिहास, संस्कृति और राष्ट्रप्रेम को जीवंत करती हैं. उनसे मेरा दर्जनों बार मिलना हुआ.
वे उत्कृष्ट कलाकार के साथ बेहद विनम्र और सरल व्यक्ति थे. उनके पुत्र अनिल से भी मेरा आत्मीय संबंध है. अपनी व्यस्तता के बावजूद वे परिवार के साथ समय बिताते थे.
उनकी पहली बड़ी कृति 45 फुट ऊंची ‘चंबल माता’ की प्रतिमा थी, जो मध्य प्रदेश के गांधी सागर बांध पर स्थापित है. इसने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को इतना प्रभावित किया कि उन्होंने उन्हें भाखड़ा बांध के श्रमिकों की स्मृति में एक और विशाल स्मारक बनाने का कार्य सौंपा. इसके बाद सुतार जी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा. उन्होंने छह दशकों में 8,000 से अधिक मूर्तियां बनायीं, जिनमें से 50 से ज्यादा विशाल स्मारक हैं. उनके शिल्प भारत ही नहीं, विदेशों में भी स्थापित हैं.
पद्म भूषण से सम्मानित राम सुतार का निधन 17 दिसंबर, 2025 को नोएडा स्थित उनके आवास पर हो गया. उनकी कला यात्रा आगे भी लोगों को प्रेरित करती रहेगी. उनका जन्म 19 फरवरी, 1925 को महाराष्ट्र के धुले जिले के गोंदुर गांव में एक साधारण विश्वकर्मा परिवार में हुआ था. उनके पिता वनजी हंसराज एक बढ़ई और शिल्पकार थे. उनकी माता का नाम सीताबाई था. गरीबी और सादगी में पले-बढ़े राम सुतार के व्यक्तित्व को गांव की सादगी और परिवार की मेहनतकश जिंदगी ने विनम्रता और समर्पण का गुण प्रदान किया, जो उनमें जीवनभर रहा.
पिता के काम में सहायता करते हुए शिल्पकला के प्रति रुचि विकसित हुई. उनका जीवन बेहद सरल और कला के प्रति समर्पित रहा. उनकी प्रतिभा को उनके गुरु श्रीराम कृष्ण जोशी ने पहचाना और मुंबई के प्रसिद्ध सर जेजे स्कूल ऑफ आर्ट में दाखिला दिलवाया. वर्ष 1953 में उन्होंने मॉडलिंग में ‘मेयो गोल्ड मेडल’ जीता. इसके बाद अजंता-एलोरा की गुफाओं में पुरातत्व विभाग में मॉडलर के रूप में काम किया, जहां उन्होंने प्राचीन मूर्तियों की बहाली सीखी.
उनकी सबसे प्रसिद्ध रचना ‘स्टैच्यू ऑफ यूनिटी’ है- सरदार वल्लभभाई पटेल की 182 मीटर ऊंची कांस्य प्रतिमा, जो गुजरात के नर्मदा जिले में स्थित है. यह दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमा है. इस प्रतिमा ने उन्हें वैश्विक पहचान दी. राम सुतार को अपनी संसद भवन परिसर में ध्यानमग्न मुद्रा में स्थापित महात्मा गांधी की 17 फुट ऊंची प्रतिमा बेहद प्रिय थी. उन्होंने एक साक्षात्कार में इस लेखक से कहा था कि उन्हें इस कृति को देखकर बहुत शांति मिलती है. उन्होंने भारत और विदेशों में महात्मा गांधी की कई मूर्तियां बनायी हैं, जो उनकी सादगी और संदेश को दर्शाती हैं.
उन्होंने पटना के गांधी मैदान में स्थापित गांधी जी की मूर्ति भी तैयार की. गांधी जी की एक प्रतिमा राजघाट के पार्किंग क्षेत्र में स्थापित की गयी है. इसे भी राम सुतार ने ही डिजाइन किया था. यह ग्रेनाइट के साथ दो फीट ऊंची पेडस्टल पर स्थित है. संसद में छत्रपति शिवाजी महाराज की घुड़सवारी मुद्रा वाली प्रतिमा भी उनकी ही कृति है. अन्य उल्लेखनीय कार्यों में अमृतसर में महाराजा रणजीत सिंह की 21 फुट ऊंची प्रतिमा, कुरुक्षेत्र में कृष्ण-अर्जुन रथ स्मारक, बेंगलुरु में केंपेगौड़ा की 108 फुट ऊंची प्रतिमा और गोवा में भगवान राम की 77 फुट ऊंची कांस्य प्रतिमा शामिल हैं. उन्होंने बाबासाहेब आंबेडकर, गोविंद बल्लभ पंत, कर्पूरी ठाकुर जैसे नेताओं की मूर्तियां भी बनायीं.
वे कहते थे कि मूर्तिकला केवल कला नहीं, इतिहास को संरक्षित करने का माध्यम है. नब्बे की उम्र पार करने के बाद भी वे सक्रिय थे और अयोध्या में भगवान राम की प्रस्तावित विशाल प्रतिमा जैसे प्रोजेक्ट्स पर काम कर रहे थे. वे धुन के पक्के थे. उम्र के असर से बेखबर अपने काम में डूबे रहते थे. अपने आसपास की दुनिया को ध्यान से देखने और उसका निरीक्षण करने में सक्षम थे. उनका कहना था कि किसी भी मूर्तिकार से यह अपेक्षा नहीं करनी चाहिए कि वह तय समय सीमा पर हर हाल में काम पूरा कर लेगा. दरअसल, मूर्तिकला समय लेने वाली और श्रमसाध्य प्रक्रिया है. एक अच्छे मूर्तिकार को धैर्यवान और दृढ़ होना चाहिए, और अपने काम को पूरा करने के लिए प्रतिबद्ध होना चाहिए.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)
