कर्नाटक के कलह में भारी पड़े सिद्धरमैया
Siddaramaiah : सिद्धरमैया दरअसल पिछड़ी जाति से आते हैं, जबकि डीके शिवकुमार अगड़े वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं. कांग्रेस के कुल जमा तीन राज्यों में से दो अन्य में पहले से ही अगड़ी जाति के मुख्यमंत्री विराजमान हैं.
Siddaramaiah : शनिवार की सुबह कर्नाटक की राजनीति शीर्षासन की स्थिति में थी. एक दिन पहले तक कांग्रेस के आसमान में संकट के जो काले-काले बादल नजर आ रहे थे, वहां अब शांति के सफेद कपोत उड़ रहे थे. मुख्यमंत्री सिद्धरमैया और उपमुख्यमंत्री डीके शिवकुमार ने मुख्यमंत्री आवास में साथ बैठकर नाश्ता किया और फिर पत्रकारों के सवालों के जवाब देकर मानो खुद को ही आश्वस्त करना चाहा कि उनकी पार्टी में चहुंओर ‘शांति’ है. तो क्या सप्ताह भर पहले तक ढाई-ढाई साल के कथित फॉर्मूले के आधार पर मुख्यमंत्री की कुर्सी की मांग से डीके शिवकुमार पीछे हट गये हैं?
फिलहाल लगता तो ऐसा ही है. इस बात को मानने की कई ठोस वजहें भी हैं. इसका एक कारण तो जातिगत समीकरण ही है. सिद्धरमैया दरअसल पिछड़ी जाति से आते हैं, जबकि डीके शिवकुमार अगड़े वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं. कांग्रेस के कुल जमा तीन राज्यों में से दो अन्य में पहले से ही अगड़ी जाति के मुख्यमंत्री विराजमान हैं. ऐसे में कांग्रेस हाईकमान इस स्थिति में बिल्कुल नहीं है कि वह सिद्धरमैया को हटाकर उनकी जगह डीके शिवकुमार को कर्नाटक का मुख्यमंत्री बना दे, क्योंकि इससे पिछड़ों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व देने की राहुल गांधी की राजनीति कमजोर पड़ती है.
अलबत्ता, यह बात भी स्वीकार करनी होगी कि सिद्धरमैया को मुख्यमंत्री पद से न हटाये जाने की एक बड़ी वजह उनकी स्वयं की शख्सियत और जमीनी सियासत है. इसमें भला क्या संदेह कि धन-जायदाद से संपन्न डीके शिवकुमार के आर्थिक संसाधनों का कांग्रेस पिछले कई चुनावों से भरपूर उपयोग करते आ रही है और इस वजह से पार्टी उनके आर्थिक एहसानों के तले दबी हुई भी है. लेकिन यह भी ध्यान रखना चाहिए कि सिद्धरमैया की गिनती कांग्रेस के दरबारी राजनेताओं में नहीं होती है. वह जनता पार्टी और फिर जनता दल से जमीनी और सधी हुई राजनीति करके कांग्रेस में आये हैं. इसलिए वह न डीके शिवकुमार हैं, न अशोक गहलोत और न ही कमलनाथ.
यही कारण है कि सिद्धरमैया को कभी दिल्ली तलब नहीं किया जाता. पिछले ढाई साल में यह देखने में आया है कि जब उन्हें प्रधानमंत्री से मिलना होता है या फिर नीति आयोग की बैठक में शामिल होना होता है, सिर्फ तभी वह दिल्ली आते हैं और केवल औपचारिकतावश कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे से मिलते हैं या कभी नहीं भी मिलते हैं. दूसरे पार्टी क्षत्रपों की तरह राहुल गांधी से मिलने के लिए भी वह कोई बहुत ज्यादा आतुर नहीं रहते. सिद्धरमैया की यही सियासी दबंगई उन्हें कर्नाटक में अपनी पार्टी से इतर अपना स्वयं का कल्ट बनाने में मदद करती है.
इसके अतिरिक्त कांग्रेस के विधायकों के बीच भी सिद्धरमैया की पकड़ बेहद मजबूत है. अगर विधायकों के बीच रायशुमारी करवायी जाये, जो 2023 में भी नहीं करवायी गयी थी, तो सिद्धरमैया अपने प्रतिद्वंद्वी से कहीं आगे नजर आयेंगे. लोकप्रियता के मानकों पर भी वह कांग्रेस के लिए एक अपरिहार्य नेता बने हुए हैं. इसलिए यह तो तय है कि सिद्धरमैया की मर्जी के बगैर उन्हें उनके पद से नहीं हटाया जा सकता और शायद इसीलिए डीके शिवकुमार के पास प्रतीक्षा करने के सिवाय और कोई चारा नहीं है. फिर शिवकुमार की गांधी परिवार के प्रति वफादारी भी मुख्यमंत्री बनने की राह में आड़े आ रही है, जो यह कह चुके हैं कि वह 2029 में राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनते हुए देखना चाहते हैं.
इसलिए उनसे कहा जा रहा है कि अगर वह राहुल गांधी को प्रधानमंत्री के पद पर देखने के आकांक्षी हैं, तो फिर उन्हें फिलहाल के लिए अपनी महत्वाकांक्षाओं को किनारे करना होगा और 2028 के राज्य विधानसभा चुनाव तक रुकना होगा. इस समय यह सवाल भी पूछा जा रहा है, और कांग्रेस के कुछ हलकों में यह स्वाभाविक आशंका भी है कि जो स्थिति बन रही है, उसमें शिवकुमार कांग्रेस के लिए कहीं दूसरे ज्योतिरादित्य सिंधिया या हिमंता विस्वा सरमा तो नहीं बन जायेंगे? यह तथ्य है कि शिवकुमार से विपक्ष के अनेक नेता संपर्क में हैं. लेकिन उनके बारे में यह कहा जाता है कि उनका गांधी परिवार से एक पर्सनल रैपो रहा है. प्रियंका तो उन्हें मुख्यमंत्री बनाने के पक्ष में ही हैं. ऐसे में वह कांग्रेस से तुरंत कोई बगावत करेंगे, इस बात की आशंका कम ही है. एक फॉर्मूला यह सामने आ रहा है कि कांग्रेस हाईकमान, और उसमें भी खुद सोनिया गांधी सिद्धरमैया से यह कहें कि वह राज्य का बजट प्रस्तुत करने तक मुख्यमंत्री के पद पर रहें और इसके बाद स्वेच्छा से कुर्सी छोड़ दें.
फिर उनकी जगह शिवकुमार को मुख्यमंत्री बनाया जाये. लेकिन कर्नाटक में कांग्रेस के साथ एक समस्या यह भी है कि जहां अन्य कई राज्यों में पार्टी के पास क्षेत्रीय क्षत्रपों का अकाल है, वहीं कर्नाटक में मुख्यमंत्री पद के दावेदारों की कतार लगी है. सिद्धरमैया के मुख्यमंत्री पद से हटने की स्थिति में राज्य के गृह मंत्री जी परमेश्वर सहित कई लोग मुख्यमंत्री पद पर दावा करने के लिए तैयार बैठे हैं. कहा तो यह भी जा रहा है कि मौका मिलने पर स्वयं मल्लिकार्जुन खरगे भी मुख्यमंत्री पद लेना चाहेंगे. कर्नाटक का मुख्यमंत्री न बन पाने की कसक वह जब-तब व्यक्त कर चुके हैं.
देखा जाये, तो इस पूरी समस्या की जड़ में है गांधी परिवार का अपने रणनीतिकारों पर हद से ज्यादा आश्रित रहना. सोनिया गांधी की कामयाबी में बड़ी भूमिका अहमद पटेल ने निभायी थी. लेकिन अगर आज राहुल गांधी विफल हो रहे हैं, तो यह उनके रणनीतिकारों केसी वेणुगोपाल और रणदीप सुरजेवाला की भी विफलता है. राहुल गांधी के साथ दिक्कत यह है कि वह वेणुगोपाल या रणदीप सुरजेवाला की लगातार नाकामयाबियों के बाद भी उन्हें ढोये जा रहे हैं.
इंदिरा और राहुल गांधी में दरअसल यही बुनियादी अंतर है. इंदिरा गांधी न केवल अपने रणनीतिकारों में समय-समय पर फेरबदल किया करती थीं, बल्कि वह उनकी जवाबदेही भी तय किया करती थीं. किंतु राहुल गांधी के किसी भी मैनेजर की कोई जवाबदेही नहीं है और बार-बार की चुनावी विफलताओं के बाद भी वे अपने पदों पर जमे हुए हैं. इसका परिणाम यह है कि पार्टी नेताओं में आत्मसमीक्षा और पुनर्गठन की संस्कृति लगभग लुप्त हो चुकी है. ऐसा संभवत: पहली बार ही हुआ है कि बिहार की इतनी बड़ी चुनावी हार के बाद भी नतीजों की समीक्षा के लिए कोई कमेटी तक गठित नहीं की गयी है और पराजय का पूरा जिम्मा चुनाव आयोग के मत्थे डाल दिया गया है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)
