छोटे-मझोले उद्यमों की मदद जरूरी

प्रस्तावित बजट में एक प्रस्ताव आयकर कानून के सेक्शन 43बी के संशोधन का है. संशोधन में बड़ी कंपनियों को किसी भी छूट की तब तक मनाही है, जब तक छोटे व मझोले उद्यमों को वास्तव में भुगतान नहीं हो चुका है.

By अजीत रानाडे | February 21, 2023 7:47 AM

वित्तीय मामलों की संसदीय स्थायी समिति, जिसमें सभी दलों के सदस्य होते हैं, ने बीते अप्रैल में जारी अपनी रिपोर्ट में सूक्ष्म, छोटे और मझोले उद्यमों के महत्व को रेखांकित किया था. हमारे देश में ऐसे उद्यमों की अनुमानित संख्या 6.40 करोड़ है, जिनमें लगभग 99 प्रतिशत बहुत छोटे उद्यम हैं. इनमें पांच से कम लोग कार्यरत हैं तथा इनका सालाना टर्नओवर 20 लाख रुपया भी नहीं है. अर्थव्यवस्था में इनके महत्व को समिति द्वारा रेखांकित इन तथ्यों से समझा जा सकता है- छोटे व मझोले उद्यम का योगदान राष्ट्र के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 30 प्रतिशत, राष्ट्रीय मैनुफैक्चरिंग उत्पादन में 45 प्रतिशत और निर्यात में 48 प्रतिशत है.

इस क्षेत्र में 11 करोड़ लोग कार्यरत हैं, जो कुल औद्योगिक कामगारों का 42 प्रतिशत हिस्सा हैं. ऐसे आर्थिक महत्व के बावजूद बैंकों या अन्य औपचारिक स्रोतों से दिये जाने वाले कर्ज में इनका शेयर बहुत मामूली है. स्थायी समिति का कहना है कि इन उद्यमों को कर्ज के रूप में 20 से 25 लाख करोड़ रुपये कम मिल रहे हैं. इनकी वित्तीय आवश्यकता अक्सर कामकाजी पूंजी के रूप में होती है क्योंकि छोटे कारोबार मुख्य रूप से वेंडर, सप्लायर और बड़ी कंपनियों (सार्वजनिक और निजी दोनों) के सहायक होते हैं.

छोटे वेंडर और सप्लायर पूरी तरह से अपने ग्राहकों पर निर्भर होते हैं तथा इनमें से कई के पास एक या दो ग्राहक ही हैं. उदाहरण के लिए, भारतीय रेल के लगभग 10 लाख सप्लायर हैं और उनमें से अधिकतर के लिए रेल ही एकमात्र ग्राहक है. इनमें कुल्हड़, नैपकिन, तौलिया, छोटे पुर्जे या फूड पैकेट आदि के सप्लायर शामिल हैं. यही हाल ज्यादातर सूक्ष्म, छोटे और मझोले उद्यमों का है, जिनके पास ग्राहक के तौर पर एक-दो बड़े कॉरपोरेशन ही हैं. ऐसी व्यवस्था न के बराबर है, जहां सप्लायरों को कुछ अग्रिम भुगतान हो, जिसे वे कामकाजी पूंजी के रूप में इस्तेमाल कर सकें.

इन उद्यमों से संबंधित कानूनी प्रावधान के अनुसार, जब कोई सेवा या उत्पाद मुहैया कराया जाता है, तो कोई भी ग्राहक वेंडर को भुगतान करने में 45 दिन से अधिक की देरी नहीं कर सकता है. यह संरक्षणात्मक प्रावधान इन उद्यमों के वित्तीय जोखिम के कारण रखा गया है. लेकिन व्यवहार में इसका पालन न के बराबर होता है. छोटे व मझोले उद्यमों के लिए देर से होने वाला भुगतान अभिशाप है.

कानून के मुताबिक 45 दिनों में भुगतान नहीं करने पर कोई कार्रवाई न होने की वजह बिल का ठीक, भरोसेमंद या वैध नहीं होना है. ऐसे में तकनीकी रूप से भुगतान अनिश्चित काल के लिए टाला जा सकता है. एक आकलन के अनुसार, राष्ट्रीय स्तर पर देरी से होने वाले भुगतान की राशि 10 लाख करोड़ रुपये तक हो सकती है. मान लें कि अगर यह देरी 12 माह की है, तो ब्याज का खर्च ही एक लाख करोड़ रुपये हो जाता है.

यदि इसका समाधान हो जाए, तो ब्याज की रकम उत्पादक पूंजी में बदल सकती है और इसके लिए सरकार को इन उद्यमों को कोई अनुदान भी नहीं देना होगा. हम यह नहीं चाहते कि भुगतान के लिए बाध्य करने के लिए इंस्पेक्टर राज लाया जाए. इस समस्या को पहले से ही रेखांकित किया जा चुका है. वर्ष 2018 में रिजर्व बैंक ने एक ऑनलाइन प्लेटफॉर्म- ट्रेड रिसीवेबल्स डिस्काउंटिंग सिस्टम- स्थापित किया, जिसमें उधार बिल को कुछ छूट पर बेचा जा सकता है.

उदाहरण के लिए, किसी छोटे या मझोले उद्यम का किसी कॉरपोरेशन पर 100 रुपया बकाया है, तो उस बिल को कोई तीसरा पक्ष 97 रुपये में खरीद सकता है और फिर वह कॉरपोरेशन से पूरे 100 रुपये वसूलने की कोशिश करता है. इस व्यवस्था की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि बहुत सारे खरीदार (बड़ी कंपनियां) और छोटे-मझोले उद्यम इससे जुड़ें. तभी बिल डिस्काउंटिंग बिजनेस का विस्तार होगा.

अभी इस पहल को सीमित सफलता मिली है क्योंकि कई बड़े कॉरपोरेशन इस प्लेटफॉर्म से नहीं जुड़ना चाहते. यहां तक कि सार्वजनिक उपक्रम भी हिचक रहे हैं. न तो रिजर्व बैंक और न ही सरकार अनुशासन बहाल कर पा रहे हैं. तमिलनाडु में एक नया तरीका अपनाया गया है, जिसमें एक सरकारी पोर्टल पर भुगतान नहीं करने वालों का नाम प्रकाशित किया जाता है. लेकिन इसके लिए उद्यमों द्वारा शिकायत किया जाना जरूरी है. अब कोई छोटा वेंडर अपने जीवनभर के अकेले ग्राहक को इस तरह क्यों नाराज करना चाहेगा? इसलिए यह तरीका भी कारगर साबित नहीं हो रहा है.

ऐसे में वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) महत्वपूर्ण है. सच यह है कि देर से भुगतान करने के बावजूद बड़े कॉरपोरेशन वेंडरों द्वारा दिये गये लागत टैक्स क्रेडिट का फायदा उठाते हैं, जब वे अपना जीएसटी रिटर्न भरते हैं. प्रस्तावित बजट में एक प्रस्ताव आयकर कानून के सेक्शन 43बी के संशोधन का है. संशोधन में बड़ी कंपनियों को किसी भी छूट की तब तक मनाही है, जब तक छोटे व मझोले उद्यमों को वास्तव में भुगतान नहीं हो चुका है.

आप समय पर वेंडर को भुगतान नहीं करेंगे, तो टैक्स क्रेडिट का दावा भी नहीं कर सकते. यह एक बड़ा कदम है, पर इसे ठीक से लागू करने के लिए राज्य स्तर पर सहयोग जरूरी है. सबसे महत्वपूर्ण है कि जीएसटी नेटवर्क डाटा में छोटे-मझोले उद्यमों को वित्त मुहैया कराने वालों की काफी जानकारी है. अगर भुगतान में देरी हो, तो इस डाटा के आधार पर बैंक उद्यमों को कर्ज दे सकते हैं. इसमें कोई अचल परिसंपत्ति गिरवी रखने की जरूरत नहीं होती.

चूंकि बकाया बड़ी कंपनियों पर होता है, तो बैंक भुगतान के जोखिम का भी ठीक आकलन कर सकता है. जीएसटी आधारित पहल के अनेक फायदे हैं. यह उद्यमों को जीएसटी नेटवर्क में आने के लिए प्रोत्साहित करता है, पहले कई उद्यम हिचकते थे. इससे डाटा पारदर्शिता के साथ भुगतान के मामलों पर भी फोकस बढ़ेगा. इससे उद्यमों को अधिक औपचारिक वित्त और कर्ज मिलने की गुंजाइश बढ़ेगी. उद्यमों के डिजिटलाइजेशन को भी बढ़ावा मिलेगा.

ऐसा केवल खाता और भुगतान में ही नहीं, बल्कि उनके पूरे कामकाज में होगा. पूरी तरह डिजिटल होने की लागत भी विभिन्न सॉफ्टवेयर पैकेजों के सस्ते होने से घट रही है. बैंक भी अपने उद्यमी ग्राहकों को ऐसा करने के लिए कहेंगे. सूक्ष्म, छोटे और मध्यम उद्यमों को देर से होने वाले भुगतान की समस्या का समाधान करने से अर्थव्यवस्था को उत्पादकता तथा आमदनी बढ़ाने में बड़ी मदद मिल सकती है. इसमें जीएसटी नेटवर्क महत्वपूर्ण भूमिका निभायेगा.

Next Article

Exit mobile version