Indian Politics: जातीयता और परिवारवाद को बढ़ावा देते राजनीतिक दल
Indian Politics: परिवारवाद का सबसे बड़ा नुकसान यह है कि यह दल के भीतर आंतरिक लोकतंत्र को समाप्त कर देता है. जहाँ सामान्य कार्यकर्ता कड़ी मेहनत करके ऊपर उठने की उम्मीद करता है, वहीं वंशवादी नेतृत्व के तहत, 'राजा', 'राजकुमार' या 'रानी' तथा 'राजकुमारी' को बिना किसी खास सार्वजनिक योगदान या योग्यता के सर्वोच्च पद सौंप दिया जाता है. इस कारण वर्षों से कार्य कर रहे योग्य और समर्पित कार्यकर्ताओं का मनोबल टूट सा जाता है.
डॉ. राकेश कुमार पाण्डेय, सहायक प्राध्यापक/रंगकर्मी, झारखंड
Indian Politics: भारत, विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है, जो अपनी जीवंत बहुदलीय राजनीति और सामाजिक विविधता के लिए जाना जाता है. मगर इसकी राजनीतिक संरचना में दो ऐसी गंभीर खामियां गहराई तक पैठ चुकी हैं, जो इसे पथभ्रष्ट करने पर तुली हैं. इसमें एक है जातिवाद और दूसरा परिवारवाद (वंशवाद). जब ये दोनों विकृतियां एक साथ मिलकर राजनीतिक दलों को संचालित करने लगती हैं, तो परिणामस्वरूप एक ऐसा अपवित्र गठजोड़ बनता है जो योग्यता, पारदर्शिता और सच्ची लोकतांत्रिक भावना का गला घोंट देता है. ‘जाति के नाम पर परिवारवाद को बढ़ावा’ देने की यह प्रवृत्ति न केवल नैतिक रूप से गलत है, बल्कि भारतीय लोकतंत्र के भविष्य के लिए भी एक गंभीर चुनौती है.
जाति भारतीय राजनीति का एक अपरिहार्य सत्य बन चुकी है. भारतीय समाज में जाति केवल एक सामाजिक वर्गीकरण नहीं है, बल्कि सदियों से चली आ रही शक्ति, संसाधनों और पहचान की एक जटिल प्रणाली है, जो गुलामी के दौर में ज्यादा प्रभावी कर दी गई थी. राजनीति में जाति का प्रयोग एक आसान और प्रभावी ‘वोट बैंक’ की रणनीति के रूप में किया जाता रहा है. राजनीतिक दल किसी क्षेत्र विशेष में बहुसंख्यक जाति या जातियों के समूह को साधने के लिए उनके नेताओं को टिकट देते हैं, जिससे एक ‘जातीय समीकरण’ तैयार होता है और मतदाता भी अपने जातिगत प्रतिनिधि को चुनने के लिए उतावले हो जाते हैं, इसमें दबकर रह जाती है विकास की गाथाएं.
स्वतंत्रता के शुरुआती वर्षों में जाति का उपयोग सामाजिक न्याय और वंचितों के सशक्तिकरण के उपकरण के रूप में शुरू हुआ, लेकिन बदलते समय के साथ यह मात्र चुनावी गणित का हिस्सा बनकर रह गया. इसने योग्य और ईमानदार उम्मीदवारों के बजाय, उन लोगों को महत्व देना शुरू कर दिया जो अपनी जाति के वोट एकजुट करने की क्षमता रखते थे, भले उनमें शिक्षा और दृष्टि न हो. यही हाल परिवारवाद का भी रहा, जो राजनीतिक दलों को ‘निजी उद्यम’ बनाकर अपने हाथ में शक्ति रखना प्रारंभ कर दिए.
हम जानते हैं कि परिवारवाद वह प्रक्रिया है जहां राजनीतिक दल एक सार्वजनिक संस्था न रहकर, एक निजी संपत्ति की तरह व्यवहार करने लगते हैं, जिसकी बागडोर पीढ़ी-दर-पीढ़ी एक ही परिवार के सदस्यों के हाथ में रहती है. शीर्ष पदों से लेकर विधायक और सांसद के टिकट वितरण तक, वफादारी और रक्त संबंध योग्यता पर हावी हो जाते हैं. यह प्रवृत्ति राष्ट्रीय दलों से लेकर क्षेत्रीय दलों तक, हर स्तर पर व्याप्त है. भले कहीं कम तो कहीं ज्यादा हो, लेकिन है सभी जगह. आज हम भारतीय राजनीतिक दलों पर नजर दौड़ाएं तो कांग्रेस हो, भाजपा हो, सपा, बसपा, तृणमूल, लेफ्ट पार्टियां हों, या राजद, जदयू, झामुमो, शिवसेना, राष्ट्रवादी कांग्रेस या कोई और दल, सभी में परिवारवाद कमोवेश दिखाई देता है. कुछ तो परिवार द्वारा संचालित ही होती हैं तो कुछ में चुनाव के समय टिकट देने और संगठन में दायित्व देते समय में इसे साक्षात् देखा जा सकता है.
अब परिवारवाद का सबसे बड़ा नुकसान यह है कि यह दल के भीतर आंतरिक लोकतंत्र को समाप्त कर देता है. जहां सामान्य कार्यकर्ता कड़ी मेहनत करके ऊपर उठने की उम्मीद करता है, वहीं वंशवादी नेतृत्व के तहत, ‘राजा’, ‘राजकुमार’ या ‘रानी’ तथा ‘राजकुमारी’ को बिना किसी खास सार्वजनिक योगदान या योग्यता के सर्वोच्च पद सौंप दिया जाता है. इस कारण वर्षों से कार्य कर रहे योग्य और समर्पित कार्यकर्ताओं का मनोबल टूट सा जाता है.
आज लोकतंत्र में जातीयता और परिवारवाद का घातक गठजोड़ उभरकर सामने आ रहा है. यह तय है कि जब जाति और परिवारवाद मिलते हैं, तो यह समस्या कई गुना जटिल हो जाती है, जिन्हें हम अक्सर देखते हैं. जातीय प्रतिनिधि के रूप में वंशवाद का प्रभाव ऐसा हो चुका है कि कोई राजनीतिक दल किसी विशेष जाति के प्रभुत्व वाले क्षेत्र में, उस जाति के एक स्थापित या प्रभावशाली परिवार के सदस्य को टिकट देता है. इस उम्मीदवार को चुनने का प्राथमिक कारण उसकी योग्यता नहीं, बल्कि उसका पारिवारिक नाम और उस नाम से जुड़ी जातीय पहचान होती है. मतदाता अक्सर यह मान लेते हैं कि यह परिवार ही उनकी जाति का ‘वास्तविक’ हितैषी और प्रतिनिधि है, और भविष्य के प्रवाह की चिंता किए बिना उनसे भावनात्मक रूप से इससे जुड़ जाते हैं.
इसी के तहत हम यह भी देखते हैं कि कुछ निर्वाचन क्षेत्र झटपट और व्यक्ति विशेष के लिए सुरक्षित माने जाते हैं, जिसे कुछ प्रभावशाली जातीय परिवार, अपनी सामाजिक और आर्थिक शक्ति का उपयोग करके, एक निर्वाचन क्षेत्र को ‘पारिवारिक जागीर’ बना लेते हैं. वे सुनिश्चित करते हैं कि उस क्षेत्र के प्रमुख जातीय समूह के वोट पर उनकी पकड़ बनी रहे. जब ये परिवार सक्रिय राजनीति से बाहर होते हैं, तो वे अपनी विरासत को अपने बच्चों या रिश्तेदारों को सौंप देते हैं. इससे वह निर्वाचन क्षेत्र राजनीतिक रूप से ‘सुरक्षित’ बना रहता है, जहाँ केवल पारिवारिक नाम के बल पर जीत सुनिश्चित हो जाती है. इसके कई उदाहरण दिखाई देते हैं जिसमें सपा का गढ़, भाजपा का गढ़, कांग्रेस या राजद तथा झामुमो का गढ़ जैसे क्षेत्र बन जाते हैं.
जातीय और परिवारवादी राजनीति के इस मॉडल में, एक अत्यंत योग्य, सामाजिक रूप से जागरूक और समर्पित कार्यकर्ता जिसके पास कोई मजबूत जातीय या पारिवारिक पृष्ठभूमि नहीं है, उसे अक्सर टिकट या प्रमुख पद से वंचित कर दिया जाता है. इसके विपरीत, एक कमजोर और अनुभवहीन वंशज को, जो केवल अपनी जाति और परिवार के नाम पर खड़ा है, प्राथमिकता मिलती है. यह न केवल लोकतांत्रिक सिद्धांतों का उल्लंघन है, बल्कि देश को सर्वोत्तम नेतृत्व मिलने की संभावना को भी कम कर देता है.
जातीयता और परिवारवाद का लोकतंत्र और सुशासन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है. जाति और परिवारवाद से प्रेरित राजनीतिक दल सुशासन और समावेशी लोकतंत्र के लक्ष्य को प्राप्त करने में बाधक होते हैं. साथ ही प्रतिनिधित्व की गुणवत्ता में कमी के कारण वंशवादी नेता अक्सर जमीनी स्तर के संघर्षों और सार्वजनिक सेवा के वास्तविक अनुभव से दूर होते हैं. वे मतदाताओं की वास्तविक समस्याओं के बजाय, अपने पारिवारिक विरासत को बनाए रखने और व्यक्तिगत संपत्ति बढ़ाने पर अधिक ध्यान केंद्रित करते हुए देखे जा सकते हैं. जहाँ वास्तविक लोकतंत्र में नीतियां जनता की व्यापक भलाई को ध्यान में रखकर बनाई जाती हैं, वहीं परिवारवाद से प्रेरित दल ऐसी नीतियों को बढ़ावा दे सकते हैं जो उनके जातीय आधार या पारिवारिक व्यावसायिक हितों को साधती हों, न कि सम्पूर्ण समाज को. राजनीतिक दलों द्वारा प्रयोग सत्ता का केंद्रीकरण को बढ़ावा देती है. इस व्यवस्था में सत्ता कुछ चुनिंदा जातीय-पारिवारिक गुटों के हाथों में केंद्रित हो जाती है. यह आम लोगों को राजनीति से दूर कर देता है और उन्हें केवल एक मूक मतदाता तक सीमित कर देता है.
बहरहाल, हम यह कह सकते हैं कि जातिवाद और परिवारवाद को बढ़ावा देना भारतीय लोकतंत्र के लिए एक दीमक की तरह है, जो इसकी नींव को धीरे-धीरे खोखला कर रहा है. इससे बचने के लिए राजनीतिक दलों को अपनी आंतरिक संरचना में सुधार करना होगा, आंतरिक चुनाव और योग्यता को महत्व देना होगा. साथ ही जनता को भी यह समझना होगा कि मतदान केवल जातीय या भावनात्मक पहचान के आधार पर नहीं, बल्कि उम्मीदवार की योग्यता, ट्रैक रिकॉर्ड और देश के प्रति उसकी निष्ठा के आधार पर होना चाहिए. जब तक भारतीय राजनीति में जातीयता और परिवारवाद का प्रयोग एक शॉर्टकट के रूप में होता रहेगा और इसकी जड़ें मजबूत की जाती रहेंगी, तब तक भारत के समावेशी और योग्यता-आधारित लोकतंत्र का सपना अधूरा रहेगा. इस कुचक्र को तोड़ना राजनीतिक दलों, चुनाव आयोग, मीडिया और सबसे महत्वपूर्ण, जागरूक मतदाताओं की सामूहिक जिम्मेदारी है. अगर हम सब मिलकर ऐसा कर पाए तो ही लोकतंत्र सही मायने में लोकतंत्र कहलाने का अधिकारी होगा.
