जमीनी स्तर पर फुटबॉल को बनाना होगा लोकप्रिय
Football: लगभग डेढ़ लाख की आबादी वाले छोटे-से देश कुराकाओ ने फीफा विश्व कप के लिए क्वालिफाई कर लिया, जबकि करीब डेढ़ अरब की आबादी वाले और दुनिया की चौथी अर्थव्यवस्था बन चुके भारत की फीफा रैंकिंग 142वीं है. जाहिर है, फुटबॉल में आमूलचूल बदलाव की जरूरत है.
Football: फुटबॉल स्टार लियोनेल मेसी इसी महीने भारत दौरे पर आये थे. उनको लेकर कोलकाता से लेकर मुंबई और हैदराबाद तक अजीब दीवानगी देखी गयी, लेकिन भारत में फुटबॉल की मौजूदा स्थिति मेसी के प्रति जुनून से मेल नहीं खाती. बीत रहा यह साल भारतीय पुरुष फुटबॉल के लिए बहुत निराशाजनक रहा. सबसे हताश करने वाली बात यह है कि 2011 के बाद भारत पहली बार एएफसी एशियन कप (2027) नहीं खेल पायेगा. एशियन कप क्वालिफायर में भारत को बांग्लादेश और हांगकांग जैसी निचली रैंक की टीमों ने हरा दिया. बांग्लादेश के खिलाफ टीम इंडिया 22 साल में पहली बार हारी, जो भारतीय फुटबॉल में आयी गिरावट के बारे में बताती है. एशियन कप के लिए क्वालिफाई न कर पाना बेहद शर्मिंदगी भरी बात रही. भारत की फीफा रैंकिंग 142वीं है, जो जाहिर है, काफी खराब है. फुटबॉल से स्पॉन्सर पीछे हट रहे हैं, क्लबों का संचालन रुका पड़ा है, घरेलू लीग के भविष्य पर संदेह है और खिलाड़ियों का भविष्य अनिश्चित है.
ऐसे में, स्वाभाविक ही भारतीय फुटबॉल के भविष्य का मुद्दा राज्यसभा में भी उठा. एक कांग्रेसी सांसद ने कुराकाओ जैसे छोटे देश के, जिसकी आबादी मात्र 1,58,000 है, विश्व कप के लिए क्वालिफाई करने का हवाला देते हुए खेल मंत्री से इस खेल के लिए सरकार की दीर्घकालिक योजना के बारे में पूछा. हालांकि, निराशाजनक माहौल के बीच महिला और जूनियर टीमों ने उम्मीद की किरण जगायी. भारतीय महिला टीम ने इतिहास रचते हुए एएफसी विमेंस एशियन कप, 2026 के लिए सीधे क्वालिफाई किया. ऐसे ही, जूनियर स्तर पर भारत ने सैफ यू-17 चैंपियनशिप जीती और ईरान जैसी मजबूत टीम को हराकर यू-17 एशियन कप के लिए क्वालिफाई किया, लेकिन भारतीय पुरुष फुटबॉल टीम इस साल कुछ खास नहीं कर पायी. पुरुष टीम की इस बदहाली के कई कारण हैं.
पहला कारण है घरेलू टूर्नामेंट का न होना या उनके प्रति उदासीनता. एक समय संतोष ट्रॉफी फुटबॉलरों के बीच बहुत लोकप्रिय था. संतोष ट्रॉफी में अच्छा खेलने वाले खिलाड़ियों को नौकरी मिल जाती थी. आज यह स्थिति नहीं है. संतोष ट्रॉफी में खेलने वाले फुटबॉलर दस-दस साल से नौकरी के लिए भटक रहे हैं. आज जो बड़े फुटबॉलर हैं, वे संतोष ट्रॉफी में नहीं खेलते. न ही संतोष टॉफी की लोकप्रियता पहले जैसी बची है. पहले देश में सालभर तक फुटबॉल के कई टूर्नामेंट होते थे. उनमें बेहतर प्रदर्शन करने वाले खिलाड़ियों को जहां नौकरी मिल जाती थी, वहीं फुटबॉल के नये खिलाड़ी तैयार होते थे, लेकिन आज वैसे टूर्नामेंट नहीं हैं. देश की राजधानी में फुटबॉल आयोजनों की कमी खलती है. ज्यादातर सीनियर खिलाड़ी आइएसएल में खेलते हैं, क्योंकि उसमें पैसा है. वहीं हमारे ज्यादातर फुटबॉलर अटैकिंग फुटबॉल में पारंगत नहीं हैं. यह भी फुटबॉल में हमारी मौजूदा स्थिति का एक कारण है. पेशेवर रवैये की कमी का एक उदाहरण यह है कि हमारे अनेक कोच प्रोफेशनल फुटबॉलर नहीं होते. वे लाइसेंस लेकर कोचिंग शुरू कर देते हैं. जबकि विदेशों में ऐसा नहीं होता.
हालांकि सरकार की तरफ से खेलो इंडिया जैसी योजना चल रही है. लेकिन जमीनी स्तर पर अब तक इसका लाभ फुटबॉल को तो नहीं मिल पाया है. देशभर में फुटबॉल के अच्छे मैदान नहीं हैं. ज्यादातर राज्यों की फुटबॉल टीमों में मणिपुर के बच्चे खेल रहे हैं. यह बताता है कि देश में फुटबॉल का विकास कितने असमान तरीके से हो रहा है. एक समय देश के अलग-अलग क्षेत्रों में शानदार फुटबॉल टीमें थीं. पश्चिम बंगाल में मोहन बागान, ईस्ट बंगाल और मोहम्मडन स्पोर्टिंग जैसी टीमें थीं, तो पंजाब में जेसीटी फगवाड़ा, डेम्पो जैसी टीमें थीं. केरल फुटबॉल की ताकतवर जमीन था, तो गोवा में सलगांवकर जैसी टीम थी. आज वह सब जैसे अतीत की बात हो गयी है. प्रशासनिक अव्यवस्था तथा घरेलू लीग के ठप होने के चलते भी भारतीय फुटबॉल की यह स्थिति है. मैदान से बाहर भी फुटबॉल की हालत बहुत खराब है. व्यावसायिक साझेदार न मिलने के कारण इस साल अभी तक घरेलू सत्र भी शुरू नहीं हो पाया है.
एआइएफएफ नयी कमर्शियल पार्टनरशिप हासिल करने में विफल रहा, जिसके चलते आइसीएल (इंडियन सुपर लीग) का 12वां सीजन अभी तक शुरू नहीं हो पाया है, जो युवा भारतीय फुटबॉलरों के लिए चिंता की बात है. इस महीने की शुरुआत में एफएसडीएल (फुटबॉल स्पोर्ट्स डेवेलपमेंट लिमिटेड) के साथ करार खत्म होने के बाद स्पॉन्सर पीछे हटने लगे, क्लबों ने अपने ऑपरेशंस रोक दिये और खिलाड़ी भविष्य को लेकर अनिश्चितता में फंस गये. फुटबॉल में स्पॉन्सर नहीं हैं, तो इसका एक बड़ा कारण यह है कि यह खेल मात्र 90 मिनट का होता है, जो स्पॉन्सर्स के लिए बहुत लाभकारी नहीं है. इसकी तुलना में दिनभर चलने वाले क्रिकेट को वे अपने लिए ज्यादा ठीक मानते हैं. ऐसे में, फुटबॉल के प्रति सोच बदलने की आवश्यकता है. देशभर में जमीनी स्तर पर फुटबॉल को लोकप्रिय करना होगा. तभी स्पॉन्सर्स की भी इस खेल के प्रति सोच बदलेगी. मेसी को उनके भारत टूर के लिए 89 करोड़ रुपये दिये गये. इससे यही साबित होता है कि भारतीय फुटबॉल में पैसे की कमी नहीं है. कमी दरअसल फुटबॉल के प्रति जुनून और इच्छाशक्ति की है. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)
