शक्ति, भक्ति और संस्कृति का महोत्सव है दुर्गा पूजा, पढ़ें शास्त्री कोसलेन्द्रदास का आलेख
Durga Puja : दुर्गोत्सव के तीन आधार देवी का स्नान, पूजन और हवन हैं. कलश स्थापना से लेकर प्रतिमा पूजन तक हर पूजोपचार पर जीवन दर्शन की झलक मिलती है. इसमें बिल्व वृक्ष की पूजा, नवपत्रिका का स्वागत, देवी को आभूषण और शृंगार सामग्री अर्पित की जाती है. ये उस परंपरा के प्रतीक हैं, जिसमें शक्ति और सौंदर्य को एक साथ प्रतिष्ठा दी गयी है.
-शास्त्री कोसलेन्द्रदास, अध्यक्ष, दर्शन विभाग-
(राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर)
Durga Puja : नवरात्र में होने वाली दुर्गा पूजा केवल उपासना तक सीमित नहीं है, बल्कि यह आस्था, साधना और सांस्कृतिक चेतना के विराट उत्सव के रूप में प्रतिष्ठित है. आश्विन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से आरंभ होकर नवमी तक चलने वाला दुर्गोत्सव भारतवर्ष के कोने-कोने में उल्लास पूर्वक मनाया जाता है. यह पर्व शक्ति की साधना का ऐसा अनुपम अवसर है, जब मानव समाज स्वीकार करता है कि शक्ति और करुणा के संगम से ही सृष्टि का संचालन संभव है. दुर्गा पूजा की अवधि और विधि सनातन है. इसमें नौ दिन तक पूजन का विधान है. वहीं सप्तमी से नवमी तक विशेष अनुष्ठान भी व्यवस्थित हैं. पर पूजा का मूल तत्व हर युग में समान रहता है, जिसमें भक्ति, संयम और साधना का संगम है.
दुर्गोत्सव के तीन आधार देवी का स्नान, पूजन और हवन हैं. कलश स्थापना से लेकर प्रतिमा पूजन तक हर पूजोपचार पर जीवन दर्शन की झलक मिलती है. इसमें बिल्व वृक्ष की पूजा, नवपत्रिका का स्वागत, देवी को आभूषण और शृंगार सामग्री अर्पित की जाती है. ये उस परंपरा के प्रतीक हैं, जिसमें शक्ति और सौंदर्य को एक साथ प्रतिष्ठा दी गयी है.
शास्त्रों में माता दुर्गा की महिमा का सबसे अद्भुत चित्रण मार्कंडेय पुराण में है. इसमें ‘देवी माहात्म्य’ है, जिसे ‘दुर्गा सप्तशती’ के रूप में जाना जाता है. इसमें महिषासुर के वध का प्रसंग केवल पौराणिक कथा मात्र नहीं है, बल्कि यह मानव समाज में स्थापित मूल्यों के विरोधी भावों पर विजय का संदेश है. ‘कालिका पुराण’, ‘देवी पुराण’ और ‘बृहन्नन्दिकेश्वर पुराण’ में दुर्गा पूजा की विधि का विस्तार से वर्णन है. ‘देवी पुराण’ दुर्गा पूजा को ‘महाव्रत’ कहता है, जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति का साधन है. ‘भविष्यपुराण’ तो कहता है कि अग्निहोत्र और वेदों के अध्ययन भी चंडिका पूजन के सामने तुच्छ प्रतीत होते हैं. एक प्रश्न यह है कि पूजा का समय क्या होना चाहिए? ‘समय मयूख’ ने प्रातःकाल एवं ‘निर्णयसिंधु’ ने पूजा का समय रात्रिकाल माना है, लेकिन ‘देवी पुराण’ एवं ‘कालिका पुराण’ से स्पष्ट होता है कि प्रातः, मध्याह्न एवं रात्रि, तीनों समय ठीक हैं. अतः दुर्गा पूजा कभी भी की जा सकती है.
दुर्गा पूजा का महत्व शास्त्रों तक सीमित नहीं रहा, बल्कि समाज ने इसे शास्त्रीय मान्यता के अनुसार उत्सव का रूप देकर जीवंत बना दिया है. दुर्गा पूजा ऐसा पर्व है, जिसमें जाति, वर्ग और पंथ का भेद मिटाकर सभी एक साथ सम्मिलित होते हैं. घर-घर से लोग बाहर निकलकर प्रतिमा स्थापना में भाग लेते हैं और सामूहिक भजन-कीर्तन और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में शामिल होते हैं. मित्र, संबंधी और पड़ोसी एक-दूसरे के साथ समय बिताते हैं और उत्सव का आनंद साझा करते हैं. इस तरह नवरात्र का काल केवल पूजा नहीं, बल्कि सामाजिक एकता और सामूहिकता का पर्व भी है. इसमें होने वाली दुर्गा पूजा समाज की साधना में परिवर्तित हो गयी है. नवरात्र में अष्टमी और नवमी तिथि का विशेष महत्व है. इन दिनों उपवास, कन्या पूजन और ब्राह्मणों को भोजन कराना पुरातन परंपरा का हिस्सा है.
शास्त्रों में वर्णित है कि कन्याएं देवी के स्वरूप मानी जाती हैं. जब उन्हें श्रद्धापूर्वक आमंत्रित कर भोजन कराया जाता है, तो दुर्गा पूजा पूर्णता को प्राप्त होती है. साथ ही यह प्रार्थना की जाती है कि देवी नयी ऊर्जा, चेतना और प्रेरणा प्रदान करें. शास्त्रों में दुर्गा पूजा के अनेक साक्ष्य उपलब्ध हैं. ‘महाभारत’ में कृष्णमित्र अर्जुन द्वारा किये गये दुर्गा स्तोत्र का पाठ है. गुप्तकालीन सिक्कों पर सिंहवाहिनी देवी का अंकन, कुषाणकालीन मुद्राओं में देवी की छवि और कालिदास, भवभूति एवं शूद्रक जैसे संस्कृत कवियों के साहित्य में देवी का वर्णन सिद्ध करता है कि दुर्गा की आराधना व्यापक रूप से प्रचलित रही है.
यह परंपरा कालांतर में और समृद्ध हुई एवं आज भी परिपूर्ण उत्साह से जीवित है. देवी दुर्गा के बने मिट्टी के स्वरूप में शक्ति, सौंदर्य, करुणा और न्याय हैं. यह पर्व स्मरण कराता है कि शक्ति का सही उपयोग तभी है, जब वह न्याय, करुणा और धर्म के साथ हो. इसे श्रीराम और रावण के उदाहरण से समझा जा सकता है. मर्यादाहीन रावण के पास भी शक्ति है और मर्यादावतार श्रीराम के पास भी. दोनों में भेद यही है कि पुरुषोत्तम श्रीराम ने ऊर्जा का उपयोग धर्म और मर्यादा की रक्षा के लिए किया, वहीं रावण ने अपनी पूरी शक्ति दूसरों को रुलाने में ही लगा दी. इसी से महर्षि वाल्मीकि ने ‘रामायण’ में लिखा है- ‘रावणो लोकरावण:’ यानी जो लोगों को रुलाता है, वह रावण है.
आज जब समाज कई चुनौतियों का सामना कर रहा है, तब सांस्कृतिक पर्व नवरात्र हमें यह प्रेरणा देता है कि हम अपने भीतर की दुर्बलताओं पर विजय पायें और सामूहिक शक्ति से नये मार्ग खोजें. देवी का आशीर्वाद केवल मंदिरों या प्रतिमाओं तक सीमित नहीं है, वह हमारे आचरण, विचार और कर्म में प्रकट होना चाहिए. ‘दुर्गासप्तशती’ में आया है- हे देवि! संपूर्ण विद्याएं तुम्हारे ही भिन्न-भिन्न स्वरूप हैं. जगत में जितनी स्त्रिया हैं, वे सब तुम्हारी ही मूर्तियां हैं. जगदंब! एकमात्र तुमने ही इस विश्व को व्याप्त कर रखा है. तुम्हारी स्तुति कोई क्या कर सकता है? तुम तो स्तवन करने योग्य पदार्थों से परे एवं परा वाणी हो.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)
