बेटियों को मिले बराबरी का दर्जा

जहां भी बेटियों को मौका मिला है, उन्होंने कमाल कर दिखाया है. हर क्षेत्र में बेटियां आगे हैं, तो समाज के विभिन्न क्षेत्रों में उनकी भागीदारी कम क्यों है? दरअसल, उनकी शिक्षा की अनदेखी की जाती है. इस मानसिकता को बदलना होगा.

By Ashutosh Chaturvedi | July 20, 2020 2:14 AM

आशुतोष चतुर्वेदी, प्रधान संपादक, प्रभात खबर

ashutosh.chaturvedi@prabhatkhabar.in

सीबीएसइ, आइसीएससी और विभिन्न राज्यों के बोर्ड के नतीजे आ गये हैं. सब में एक समानता है कि बेटियों ने हर जगह परचम लहराया है. एक बेटी का कमाल देखिए. सीबीएसइ 12वीं बोर्ड में दिव्यांशी जैन ने 600 में 600 नंबर हासिल करके इतिहास रच दिया है. यह सफलता इसलिए भी खास है, क्योंकि दिव्यांशी विज्ञान की छात्रा नहीं हैं, जिसमें अक्सर शत-प्रतिशत नंबर आ जाते हैं. दिव्यांशी को इतिहास, अंग्रेजी, संस्कृत, भूगोल, अर्थशास्त्र और इंश्योरेंस, सभी विषयों में शत-प्रतिशत नंबर मिले हैं. सीबीएसइ की 10वीं और 12वीं, दोनों बोर्ड परीक्षाओं में लड़कियों ने बाजी मारी है. इन परीक्षाओं में लड़कों की अपेक्षा अधिक लड़कियां पास हुई हैं.

10वीं के नतीजों में कुल 93.31 प्रतिशत छात्राएं उत्तीर्ण हुई हैं, जबकि पास होने वाले लड़कों का प्रतिशत 90.14 है. लड़कों के मुकाबले 3.71 प्रतिशत अधिक लड़कियां दसवीं की परीक्षा में उत्तीर्ण हुई हैं. ऐसा ही कुछ झारखंड में भी देखने को मिला, जहां सीबीएसइ 10वीं की स्टेट टॉपर एक लड़की है. खास बात यह है कि झारखंड बनने के बाद यह पहला अवसर है, जब किसी आदिवासी समाज की लड़की ने स्टेट टॉपर बन कर नाम रोशन किया है. रांची के डीएवी हेहल की छात्रा लीजा उरांव ने दसवीं बोर्ड की परीक्षा में अंग्रेजी में 99, हिंदी में 100, गणित में 98, विज्ञान में 99, सामाजिक विज्ञान में 98 और आइटी में 100 अंक हासिल किये हैं.

सीबीएसइ की 12वीं बोर्ड परीक्षाओं के नतीजों पर नजर डालें. इसमें भी 88.78 फीसद विद्यार्थी उतीर्ण हुए हैं. इस साल भी लड़कियों ने 92.15 प्रतिशत उत्तीर्ण होने के साथ लड़कों को पछाड़ दिया है, जबकि लड़कों के पास होने का प्रतिशत 86.16 है. हाल में झारखंड बोर्ड का 12वीं का परीक्षा परिणाम जारी हुआ. कला संकाय में 90.96 प्रतिशत, वाणिज्य में 83.77 प्रतिशत और विज्ञान में 57.32 प्रतिशत विद्यार्थी सफल हुए हैं. इसमें भी लड़कियों का प्रदर्शन लड़कों से बेहतर रहा. तीनों विषयों में उन्होंने लड़कों को पछाड़ा है. सबसे बेहतर परीक्षा परिणाम कला संकाय का रहा. इसमें 93.96 प्रतिशत छात्राएं सफल हुई हैं, वहीं कॉमर्स में 89.46 और विज्ञान में 61.22 प्रतिशत छात्राओं को सफलता मिली है.

एक और सुखद खबर आयी कि रोशनी नाडर मल्होत्रा देश की प्रमुख आइटी कंपनी एचसीएल टेक्नोलॉजीज की चेयरमैन बन गयी हैं. वे किसी सूचीबद्ध भारतीय आइटी कंपनी की पहली महिला प्रमुख हैं. एचसीएल टेक्नोलॉजीज कोई छोटी-मोटी कंपनी नहीं है. यह 8.9 अरब डॉलर की कंपनी है. रोशनी की उम्र महज 38 वर्ष है. वे 2019 में फोर्ब्स वर्ल्ड की 100 सबसे शक्तिशाली महिलाओं की सूची में 54वें स्थान पर रही थीं.

कहने का आशय यह है कि जहां भी महिलाओं को मौका मिला है, उन्होंने कमाल कर दिखाया है. चाहे शहनाज हर्बल की शहनाज हुसैन हों या बायोकेम की किरण मजूमदार शां, वीएलसीसी की वंदना लूथरा, पार्क होटल की प्रिया पॉल, फैशन डिजाइनर रितु कुमार, लाइम रोड की शुचि मुखर्जी, न्याका की फाल्गुनी नायक, मोबिक्विक की उपासना ताकू, यह सूची अंतहीन है. कहने का आशय यह है कि हर क्षेत्र में बेटियां आगे हैं, तो समाज के विभिन्न क्षेत्रों में उनकी भागीदारी कम क्यों है?

दरअसल, उनकी शिक्षा की अनदेखी की जाती है. हालांकि मौजूदा दौर में लोगों में समझदारी बढ़ी है, लेकिन अब भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो यह मानते हैं कि बेटी को ज्यादा पढ़ा-लिखा देने से शादी में दिक्कत हो सकती है. ऐसे लोगों की भी बड़ी संख्या है, जो बेटी के कैरियर को ध्यान में रख कर नहीं पढ़ाते, बल्कि शादी को ध्यान में रख कर शिक्षा दिलवाते हैं, जबकि हकीकत यह है कि बेटी का कैरियर अच्छा होगा, तो शादी में भी आसानी होगी. लिहाजा, मानसिकता में तत्काल बदलाव लाने की जरूरत है.

बेटे-बेटियों में भेदभाव सिर्फ भारत में ही नहीं है, बल्कि विश्व स्तर पर भी देखने को मिलता है. इस भेदभाव की एक वजह यह है कि लड़कियों को हमेशा एक ही तरह की परंपरागत भूमिकाओं में दिखाया जाता है. बाद में यह भेदभाव सार्वजनिक जीवन में प्रकट होने लगता है. कुछ समय पहले यूनेस्को ने ग्लोबल एजुकेशन मॉनिटरिंग रिपोर्ट जारी की थी, जिसमें बताया गया था कि दुनियाभर में स्कूली किताबों में महिलाओं को कम स्थान दिया जाता है. साथ ही उन्हें कमतर पेशों में दिखाया जाता है. जैसे पुरुष डॉक्टर की भूमिका में दिखाये जाते हैं, तो महिलाएं हमेशा नर्स के रूप में नजर आती हैं. साथ ही महिलाओं को हमेशा खाने, फैशन या मनोरंजन से जुड़े विषयों में ही दिखाया जाता है.

सन् 2016 में राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीइआरटी) के जेंडर स्टडीज विभाग ने भी एक रिपोर्ट जारी की थी, जिसमें असम, बिहार, छत्तीसगढ़, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, ओड़िशा, महाराष्ट्र, मणिपुर और राजस्थान जैसे 10 राज्यों की बच्चों की किताबों का अध्ययन किया था. इस अध्ययन में भी यही निष्कर्ष निकला था कि पाठ्य पुस्तकों में महिलाओं को कमतर भूमिका में दिखाया जाता है, जबकि पुरुषों को नेतृत्व और फैसले लेने की भूमिका में रखा जाता है.

दरअसल, समस्या यह है कि हमारी सामाजिक संरचना ऐसी है, जिसमें बचपन से ही यह बात बच्चों के मन में स्थापित कर दी जाती है कि लड़का, लड़की से बेहतर है. इन बातों के मूल में यह धारणा है कि परिवार और समाज का मुखिया पुरुष है और महिलाओं को उसकी व्यवस्थाओं को पालन करना है. यह सही है कि परिस्थितियों में भारी बदलाव आया है, लेकिन अब भी ऐसे परिवारों की संख्या कम है, जिनमें बेटे और बेटी के बीच भेदभाव नहीं किया जाता है.

बेटियों के सामने चुनौती केवल अपने देश में ही नहीं है. यूनीसेफ की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में गरीब घरों की हर तीन लड़कियों में से केवल एक लड़की को स्कूल जाने का मौका नहीं मिल पाता है. गरीबी, भेदभाव, स्कूल से दूरी, बुनियादी सुविधाओं का अभाव जैसी बाधाओं के कारण गरीब घरों की बच्चियां शिक्षा से वंचित रह जाती हैं. समय-समय पर लड़कियों की सुरक्षा को लेकर भी सवाल खड़े होते रहते हैं.

उन्हें अक्सर निशाना बनाया जाता है. भारतीय परंपरा में बेटियों को उच्च स्थान दिया गया है. हर वर्ष नौ दिनों तक नारी स्वरूपा देवी उपासना की जाती है और उन्हें पूजा जाता है. कई राज्यों में कन्या जिमाने और उनके पैर पूजने की भी परंपरा है. एक तरह से यह त्योहार नारी के समाज में महत्व और सम्मान को भी रेखांकित करता है, लेकिन आदर का यह भाव समाज में केवल कुछ समय तक ही रहता है.

महिला उत्पीड़न की घटनाएं बताती हैं कि हम जल्द ही इसे भुला देते हैं. देश में बच्चियों व महिलाओं के साथ दुष्कर्म और छेड़छाड़ के बड़ी संख्या में मामले इस बात के गवाह हैं. दरअसल, यह केवल कानून व्यवस्था का मामला भर नहीं है. हमें बेटियों व महिलाओं के प्रति समाज में सम्मान की चेतना जगानी होगी. इसके लिए सामाजिक आंदोलन चलाने होंगे. सबसे बड़ी जिम्मेदारी माता-पिता की है कि वे लड़के और लड़की में भेदभाव न करें, तभी परिस्थितियों में कोई सुधार लाया जा सकता है.

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