देश की आत्मा और लोकतंत्र की नैतिक दिशा है संविधान

constitution : भारत जैसा विशाल, बहुभाषी, बहुधार्मिक और बहुसांस्कृतिक देश जब एक धागे में बंधा हुआ दिखाई देता है, तो उसके पीछे संविधान की दार्शनिक दृष्टि और संवेदनशील संरचना ही कार्य करती है. हमारा संविधान संवाद, संघर्ष और सहमति का अद्वितीय उदाहरण है.

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 26, 2025 8:16 AM

-सीमा जोशी, एडवोकेट, दिल्ली हाई कोर्ट-

constitution : छब्बीस नवंबर की तिथि केवल एक ऐतिहासिक क्षण का स्मरण नहीं है, बल्कि लोकतंत्र में हमारी आस्था, हमारी जिम्मेदारियों और हमारे राष्ट्रीय चरित्र की गहरी समीक्षा का अवसर भी है. वर्ष 1949 में इसी दिन संविधान सभा ने भारतीय संविधान को अपनाया—एक ऐसा दस्तावेज, जिसने विविधताओं से भरे देश में न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुता की आधारशिला रखी. वर्ष 2015 में इस दिन को औपचारिक रूप से संविधान दिवस घोषित किया गया, ताकि संविधान निर्माता डॉ भीमराव आंबेडकर के अद्वितीय योगदान को सम्मान दिया जा सके और संवैधानिक चेतना को नये आयाम मिल सकें.


संविधान केवल कानून नहीं, राष्ट्र की आत्मा है. किसी भी सभ्य राष्ट्र की असली पहचान उसका संविधान होता है. यह सिर्फ शासन की संरचना तय नहीं करता, बल्कि यह निर्धारित करता है कि राज्य और नागरिकों के बीच संबंध किस नैतिक और मानवीय आधार पर निर्मित होंगे. भारतीय संविधान दुनिया का सबसे लंबा लिखित संविधान है-इसमें मूलतः 395 अनुच्छेद, 22 भाग और आठ अनुसूचियां हैं, जो संशोधनों के बाद आज बढ़कर 470 अनुच्छेद, 25 भाग और 12 अनुसूचियां हो चुके हैं.

भारत जैसा विशाल, बहुभाषी, बहुधार्मिक और बहुसांस्कृतिक देश जब एक धागे में बंधा हुआ दिखाई देता है, तो उसके पीछे संविधान की दार्शनिक दृष्टि और संवेदनशील संरचना ही कार्य करती है. हमारा संविधान संवाद, संघर्ष और सहमति का अद्वितीय उदाहरण है. संविधान सभा का गठन नौ दिसंबर, 1946 को हुआ था. प्रारंभ में सभा के सदस्यों की संख्या 389 थी, जो विभाजन के बाद घटकर 299 रह गयी. ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष डॉ बीआर आंबेडकर और संविधान निर्माताओं ने लगभग दो वर्ष, 11 महीने, 18 दिन तक अथक परिश्रम किया. इस अवधि में 2,000 से अधिक संशोधन, लंबी बहसें, असहमति और वैचारिक मतभेद सामने आये. इन सबके बीच अंततः ऐसा संविधान तैयार हुआ, जिसने लाखों-करोड़ों भारतीयों की उम्मीदों को आवाज दी. यह प्रक्रिया हमें सिखाती है कि राष्ट्र निर्माण बहस से जन्म लेता है, न कि एकमत थोपने से.


संविधान की प्रस्तावना हमारे राष्ट्रीय स्वप्न की घोषणा है. यह प्रस्तावना लक्षित करती है कि भारत एक ‘संपूर्ण प्रभुसत्ता संपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य की स्थापना के लिए प्रतिबद्ध है, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास और उपासना की स्वतंत्रता, अवसरों की समानता, और बंधुता, जो राष्ट्र की एकता और अखंडता को सुदृढ़ बनाती है, सुनिश्चित करता है. ये चार आधार-यानी न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुता-भारतीय लोकतंत्र के नैतिक स्तंभ हैं. संविधान ने हर नागरिक को ऐसे अधिकार प्रदान किये हैं, जो लोकतंत्र की आत्मा हैं. इनमें समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण से संरक्षण, धार्मिक स्वतंत्रता, सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार तथा संवैधानिक उपचार का अधिकार शामिल हैं. परंतु लोकतंत्र केवल अधिकारों से संचालित नहीं होता.

बयालीसवें संविधान संशोधन (1976) में नागरिकों को 10 मौलिक कर्तव्य दिये गये, जिन्हें बाद में बढ़ाकर 11 किया गया. संदेश स्पष्ट है कि अधिकार और कर्तव्य, दोनों का संतुलन ही लोकतंत्र को सशक्त बनाता है. भारतीय संविधान केवल प्रशासनिक दस्तावेज नहीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन का माध्यम है. आरक्षण व्यवस्था, शिक्षा और रोजगार में विशेष प्रावधान, महिलाओं, बच्चों, दलितों, आदिवासियों और कमजोर वर्गों की सुरक्षा-ये सब इसी संवैधानिक दृष्टि के प्रतीक हैं.

डॉ आंबेडकर ने चेताया था : ‘राजनीतिक लोकतंत्र तभी टिकेगा, जब सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र की नींव मजबूत होगी.’ इस चेतावनी की ध्वनि आज भी उतनी ही प्रासंगिक है, जितनी 75 वर्ष पहले थी. भारतीय संविधान में समय के साथ बदलने की क्षमता है. अब तक इसमें 100 से अधिक संशोधन किये जा चुके हैं. यदि संविधान कठोर होता, तो वह आज अप्रासंगिक हो चुका होता; यदि अत्यधिक परिवर्तनशील होता, तो स्थिरता खो देता. परंतु इसकी सुंदरता इसके संतुलन में निहित है. आज भारत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, डिजिटल निजता, सांप्रदायिक तनाव, सामाजिक ध्रुवीकरण और नागरिक अधिकारों पर बहसों के दौर से गुजर रहा है. ऐसे समय में संविधान केवल कानूनी सहारा नहीं, बल्कि नैतिक दिशा प्रदान करता है. यह हमें सिखाता है कि असहमति लोकतंत्र की शक्ति है, कमजोरी नहीं. नागरिक अधिकारों का अर्थ नागरिक जिम्मेदारी भी है.


डॉ आंबेडकर ने चेतावनी दी थी कि संविधान उतना ही अच्छा या बुरा होगा, जितने अच्छे या बुरे लोग उसे लागू करेंगे. यह वाक्य आज हर नागरिक, हर प्रतिनिधि, हर संस्था के लिए एक आईना है. संविधान दिवस केवल उत्सव नहीं, आत्ममंथन का अवसर है. संविधान दिवस हमें सोचने का अवसर देता है कि क्या हम समानता और न्याय के मूल्यों को जीवित रख पा रहे हैं? क्या युवा पीढ़ी संविधान को पढ़ रही है-या केवल प्रतियोगी परीक्षा के लिए रट रही है? संविधान को पढ़ना ही पर्याप्त नहीं, उसे जीना आवश्यक है.
(ये लेखिका के निजी विचार हैं.)