एच-1बी वीजा से जुड़ी चिंता और चुनौतियां, पढ़ें जगदीश रतनानी का आलेख

H-1B visa : ट्रंप प्रशासन के इस फैसले का खामियाजा तो सबसे अधिक भारत को भुगतना पड़ेगा, पर असलियत यह है कि मौजूदा समस्या के पीछे अमेरिकी कंपनियों का हाथ है, जिन्होंने लाभ कमाने के लिए कम वेतन पर आइटी नौकरियों को न सिर्फ आउटसोर्स किया, बल्कि विदेशी कर्मचारियों के लिए वीजा का प्रबंध भी वे करती रहीं.

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 25, 2025 6:07 AM

-जगदीश रतनानी-

H-1B visa : एच1-बी वीजा की इंट्री फी को एक लाख डॉलर करने संबंधी ट्रंप प्रशासन की घोषणा उस भारत-अमेरिका संबंधों पर एक और हमला है, जो कुछ महीनों पहले तक भी बेहद मजबूत नजर आता था. इस विकट चुनौती को भारत बहादुरी दिखाने या आत्मनिर्भरता का राग अलाप कर छिपा भी नहीं सकता. यह इतना बड़ा झटका है, जिसमें भारत के सबसे बड़े नियोक्ताओं- यानी आइटी क्षेत्र को पटरी से उतार देने की क्षमता है. इससे भारतीय अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाला भीषण असर भी बड़ी चिंता का कारण है.


वर्ष 2019 का एक अध्ययन बताता है कि 30 सितंबर, 2019 तक अमेरिका में एच-1बी वीजाधारकों की संख्या 5,83,420 थी. अनुमान यह है कि अब अमेरिका में परिवारों और आश्रितों समेत एच-1बी वीजाधारकों की संख्या 10 लाख से ज्यादा है. इन वीजाधारकों में तीन चौथाई चूंकि भारतीय हैं, ऐसे में, इसका भारत पर पड़ने वाले असर के बारे में आसानी से समझा जा सकता है. हालांकि ट्रंप प्रशासन द्वारा बाद में किये गये खुलासे से थोड़ी राहत मिली कि बढ़ी हुई फीस नये वीजा पर लागू होगी. इसके बावजूद अनिश्चय का माहौल तो बना ही हुआ है. भारतीय विदेश मंत्रालय ने ठीक ही यह रेखांकित किया है कि ट्रंप प्रशासन के इस फैसले से अमेरिका में भारतीय कर्मचारियों और उनके परिवारों के लिए गहन मानवीय संकट उत्पन्न हो जायेगा.

भले ही पहले से अमेरिका में काम कर रहे लोग फिलहाल इससे प्रभावित न हो रहे हों, लेकिन उनका भविष्य तो अनिश्चित है ही, क्योंकि हर तीन साल में उनके एच-1बी वीजा का नवीकरण होता है. आने वाले दिनों में ट्रंप प्रशासन इससे संबंधित कोई घोषणा अचानक करता है, तो अमेरिका में काम कर रहे भारतीयों के वहां से निकलने का सिलसिला शुरू हो जायेगा, और उन लोगों को अनिश्चित और अभूतपूर्व परिस्थितियों का सामना करना पड़ेगा. दरअसल एच-1बी वीजा के मुद्दे पर अमेरिका में पिछले काफी समय से डेमोक्रेट्स और रिपब्लिकन्स में असंतोष उमड़ रहा था. उनका मानना था कि एच-1बी वीजा का इस्तेमाल दरअसल वेतन में कटौती के लिए किया जा रहा है, और इसके तहत अमेरिकी कर्माचरियों की जगह दूसरे देशों से आये कर्मचारियों को रखा जा रहा है. जबकि इस वीजा का मूल उद्देश्य प्रतिभाओं को आकर्षित करना था. तथ्य यह है कि 2023 में पूर्व राष्ट्रपति बाइडन के कार्यकाल में ही दोनों पार्टियों के सीनेटर एच-1बी वीजा में सुधार के लिए द्विदलीय कानून ले आये थे.

उसका लक्ष्य था : अपने कर्मचारियों के हितों की रक्षा करना और अमेरिकी नौकरियों की आउटसोर्सिंग बंद करना. एच-1बी वीजा की फीस में भारी वृद्धि से संबंधित राष्ट्रपति ट्रंप के आदेश में अमेरिकियों के गुस्से की झलक दिखती है. इसमें कहा गया है, ‘चूंकि इस प्रोग्राम के तहत वेतन काफी कम रखा गया है, लिहाजा इसका लाभ उठाने के लिए अमेरिकी कंपनियों ने अपने आइटी विभाग बंद किये, अमेरिकी कर्मचारियों को बाहर निकाला तथा आइटी नौकरियां कम वेतन पाने वाले विदेशी कर्मचारियों को दीं… आगे एच-1बी वीजा प्रोग्राम का ऐसा दुरुपयोग किया गया कि अमेरिकी कॉलेज के ग्रेजुएट्स के लिए आइटी क्षेत्र में नौकरी पाना बड़ी समस्या बन गया.’


ट्रंप प्रशासन के इस फैसले का खामियाजा तो सबसे अधिक भारत को भुगतना पड़ेगा, पर असलियत यह है कि मौजूदा समस्या के पीछे अमेरिकी कंपनियों का हाथ है, जिन्होंने लाभ कमाने के लिए कम वेतन पर आइटी नौकरियों को न सिर्फ आउटसोर्स किया, बल्कि विदेशी कर्मचारियों के लिए वीजा का प्रबंध भी वे करती रहीं. जहां तक अमेरिका स्थित भारतीय कंपनियों की बात है, तो हाल के वर्षों में उन्होंने एच1-बी वीजा पर अपनी निर्भरता कम कर दी है और वे अमेरिकी कर्मचारियों को हायर करने लगे हैं. इसलिए उन कंपनियों के लिए एच-1बी वीजा की बढ़ी हुई फीस उतना बड़ा मुद्दा नहीं है. लेकिन बदला हुआ माहौल तो पूरे आइटी क्षेत्र को ही नकारात्मक रूप से प्रभावित करने वाला है. आंकड़ों के अनुसार, 2010 से 2025 तक की अवधि में टीसीएस, कॉग्निजेंट, इंफोसिस, विप्रो जैसी अमेरिका स्थित भारतीय आइटी कंपनियां एच-1बी वीजाधारकों को हायर करने वाली शीर्ष कंपनियों में से थीं.

लेकिन 2025 के प्रथमार्ध में सबसे ज्यादा एच-1बी वीजाधारकों को हायर करने वाली भारतीय कंपनियों में सिर्फ टीसीएस ही थी. बाकी सभी जैसे- एमेजॉन, माइक्रोसॉफ्ट, मेटा, एप्पल, गूगल, जेपी मॉर्गन चेस, वॉलमार्ट, डेलॉयट कंसल्टिंग आदि अमेरिकी आइटी कंपनियां ही थीं. यह पूरा परिदृश्य बताता है कि समस्या वर्षों से बन रही थी, और अमेरिका स्थित भारतीय कंपनियों ने अपने स्तर पर इसका समाधान निकाल लिया, लेकिन ट्रंप प्रशासन के फैसले से जो तूफान आया है, उसका बड़ा खामियाजा भारतीयों को भुगतना पड़ेगा. अमेरिका में आप्रवासी विरोधी माहौल के तेजी से आकार लेने, ट्रंप की ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ की राजनीति और स्थानीय अमेरिकियों के रोजगार के मुद्दे पर दोनों राजनीतिक पार्टियों के रुख का नतीजा एच-1बी वीजा की फीस में भारी वृद्धि के रूप में सामने आया है.


भारतीय आइटी और सॉफ्टवेयर सेवाओं से जुड़े दिग्गजों पर लंबे समय से यह आरोप लगता रहा है कि एच-1बी वीजा कार्यक्रम को उन्होंने मुनाफे के उपकरण में बदल दिया है. जबकि भारतीय आइटी कंपनियों का जवाब होता था कि वे कम वेतन वाले कर्मचारियों को नौकरी नहीं देते, बल्कि प्रतिभाओं को नौकरी पर रखते हैं. जाहिर है कि आरोप भी सही था, और हाल के दौर को देखें, तो आइटी कंपनियों के जवाब में भी कमोबेश सच्चाई है. लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि पिछले करीब तीन दशकों में भारतीय आइटी कंपनियों का जोर नवाचार की बजाय मुनाफा कमाने पर ही ज्यादा रहा. भारतीय आइटी सर्विस सेक्टर कर्मचारियों का शोषण करने, लंबे समय तक काम कराने और उन्हें हायर करने की लागत पर सख्त नियंत्रण रखने के लिए कुख्यात रहा है. मुद्रास्फीति बढ़ने के बावजूद आइटी कर्मचारियों के वेतन में लंबे समय तक बदलाव नहीं किया गया. आइटी क्षेत्र में काम करने वाले असंख्य युवा इसी उम्मीद में शोषण सहते रहे कि एक दिन उनके अमेरिका जाने और अमीर होने का सपना साकार होगा. जो एच-1बी वीजा एक अवसर था, आखिरकार वह एक जाल बन गया. भारतीयों ने दूसरों की अच्छी सेवा की. लेकिन वे अब हमें नहीं चाहते और हमें नहीं मालूम कि कहां जायें. इस बीच एआइ क्रांति से दुनिया में तूफान आ गया है. हमारी सरकार बेशक एच-1बी वीजा से निपटने की कोशिश कर रही है, लेकिन यह बड़ी चिंता की बात तो है ही. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)