हिमालयी घटनाओं के प्रति गंभीर होने की जरूरत

Cloudburst : किश्तवाड़ के बाद कठुआ में भी बादल फटने से सात लोगों की मौत हो गयी, जिनमें बच्चे भी शामिल हैं. केंद्र सरकार ने निश्चित रूप से इन क्षेत्रों पर अपनी पैनी नजर बनाये रखी है. पर एक के बाद एक जो घटना घट रही है, वह हिमालय की बिगड़ती परिस्थितियों का स्पष्ट संकेत है. यह एक चेतावनी है कि भविष्य में बड़े पैमाने पर और भी आपदाएं हमारे सामने आ सकती हैं.

By डॉ अनिल प्रकाश जोशी | August 20, 2025 5:35 AM

Cloudburst : हाल ही में हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के बाद जम्मू-कश्मीर के किश्तवाड़ के चसोती क्षेत्र में आये जल प्रलय ने भी एक और बड़ी तबाही मचा दी. बादल फटने से यहां हजारों लोग प्रभावित हुए और लगभग 46 लोगों की जान चली गयी. दुर्भाग्य यह रहा कि जब यह घटना घटी, उस समय वहां लंगर चल रहा था और माता के दर्शन करने के लिए भारी संख्या में श्रद्धालु उपस्थित थे. लेकिन अचानक आयी बाढ़ ने सब कुछ बदल दिया. चारों ओर हाहाकार मच गया. लोग अपनी जान बचाने के लिए इधर-उधर भागने लगे.

किश्तवाड़ के बाद कठुआ में भी बादल फटने से सात लोगों की मौत हो गयी, जिनमें बच्चे भी शामिल हैं. केंद्र सरकार ने निश्चित रूप से इन क्षेत्रों पर अपनी पैनी नजर बनाये रखी है. पर एक के बाद एक जो घटना घट रही है, वह हिमालय की बिगड़ती परिस्थितियों का स्पष्ट संकेत है. यह एक चेतावनी है कि भविष्य में बड़े पैमाने पर और भी आपदाएं हमारे सामने आ सकती हैं.

प्रश्न यह है कि हम इन घटनाओं का सामना किस प्रकार करेंगे. आज, हिमालय की सबसे बड़ी पीड़ा यही है- लगातार बढ़ते प्राकृतिक संकट और उनसे निपटने की हमारी तैयारी की कमी. उत्तराखंड के धराली में जो कुछ हुआ, वह कोई नया हादसा नहीं है, और यह भी उतना ही बड़ा सच है कि यह आखिरी बार नहीं होगा. यही बात हिमाचल और जम्मू-कश्मीर पर भी लागू होती है. अब हिमालय को इस तरह की त्रासदियों का सामना करना पड़ेगा. ये घटनाएं इस बात का संकेत हैं कि हम धीरे-धीरे एक बड़े बदलाव की ओर बढ़ रहे हैं. केवल हिमालय ही नहीं, बल्कि देश के विभिन्न जलवायु क्षेत्रों को भी अलग-अलग प्रकार की आपदाओं से जूझना होगा.

यह किसी एक स्थान या देश का दोष नहीं है, बल्कि पूरी दुनिया की जीवनशैली, चाल-चलन और विलासिताएं हमारी आवश्यकताओं से बहुत आगे निकल चुकी हैं. हम न तो थोड़ी-सी गर्मी बर्दाश्त कर पाते हैं, न ही ठंड को. दोनों के लिए हमने विकल्प तैयार कर लिये. मतलब एसी या हीटर ले आये. अपनी इन इच्छाओं को पूरा करने के लिए हमने अपने घरों और शहरों की जलवायु तक बदल डाली है. इसके लिए जो अपार ऊर्जा खर्च होती है, वही आज की सबसे बड़ी समस्या है. बीते तीन दशकों में हमने जीवन का पूरा ढांचा बदल दिया है और अपनी जीवनशैली को इतना जटिल बना लिया है कि थोड़ी-सी भी असुविधा हमें विचलित कर देती है.

यह समस्या केवल हमारे देश की नहीं है- न्यूयॉर्क, लंदन जैसे बड़े शहरों में भी ऊर्जा की खपत इतनी अधिक है कि वे आज के सबसे बड़े ‘ऊर्जा दोषी’ माने जा सकते हैं.
वैज्ञानिकों का कहना है कि अब हालात इतने बिगड़ चुके हैं कि वापसी लगभग असंभव है. शायद हम अपनी मूल जलवायु का केवल पांच से दस प्रतिशत ही वापस पा सकेंगे. पृथ्वी ने मनुष्य को जन्म देने के लिए सदियों तक तैयारी की, और अपने गर्भ में पीड़ा सहते हुए हवा, पानी, जंगल और मिट्टी को जीवन के अनुकूल बनाया. पर मनुष्य के आगमन के बाद यह संतुलन बिगड़ने लगा. पंद्रहवीं सदी के बाद विज्ञान की क्रांति आयी, जिसका मुख्य उद्देश्य भोग-विलास को बढ़ाने वाले साधन जुटाना था- चाहे उद्योग हों या ढांचागत विकास. परिणामस्वरूप, मनुष्य ने खुद को एक नियंत्रक जीव में बदल लिया, जिसने राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक सभी पहलुओं पर पकड़ बना ली.

प्रकृति को किनारे कर मनुष्य ने नियंत्रण अपने हाथों में ले लिया, पर हम भूल गये कि प्रकृति पर नियंत्रण संभव ही नहीं है. इसके दुष्परिणाम अब हमारे सामने हैं- कुछ भी हमारे पूर्ण नियंत्रण में नहीं रहा. आइपीसीसी के एक अध्ययन के अनुसार, जलवायु परिवर्तन की गति तेज हो चुकी है और कई पहलुओं में स्थिति पूरी तरह बदल चुकी है. इसका सबसे गहरा असर पर्वतीय क्षेत्रों पर पड़ेगा, चाहे वह आर्कटिक हो, अंटार्कटिका हो या हिमालय. जब समुद्र का तापमान बढ़ता है, तो हवाएं अपने साथ बड़ी मात्रा में जल लेकर पहाड़ों की ओर बढ़ती हैं. तापमान के अंतर के कारण यह पानी वर्षा के रूप में गिरता है- यह प्रकृति का अपना विज्ञान है, जो संतुलन बनाने की कोशिश करता है.

हिमालय केवल आपदाओं का गढ़ नहीं है, बल्कि यह देश और दुनिया की हवा, मिट्टी एवं पानी का सबसे बड़ा स्रोत है. लगभग 18 देश यहां के जल और हवा से पोषित होते हैं. इसलिए यह केवल सरकार की चिंता का विषय नहीं, बल्कि हर आम नागरिक की भी जिम्मेदारी है कि वह हिमालय में हो रही घटनाओं के प्रति गंभीर हो. सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि इस तरह की आपदाओं पर कोई भी स्थानीय या सरकारी तंत्र पूरी तरह नियंत्रण नहीं रख सकता, क्योंकि ये हवाएं समुद्र से आती हैं, तापमान का अंतर आसमान की देन है. ऐसे में हमें यह मानना ही होगा कि इन परिस्थितियों को झेलना हमारी नियति का हिस्सा बन चुका है. यह और भी पीड़ादायक तब हो जाता है जब इनका सबसे बड़ा बोझ दूर-दराज पहाड़ों के लोगों को उठाना पड़ता है. ऐसे में हिमखंडों के नीचे की बसावटों पर विशेष ध्यान देना, हिमखंडों के झीलों में बदलने की प्रक्रिया का अध्ययन करना और हिमालय में ढांचागत विकास को विज्ञान आधारित नयी सोच से आगे बढ़ाना अत्यंत आवश्यक हो गया है. (ये लेखक के निजी विचार हैं.)