..तभी नया साल शुभ हो सकता है

अब समय आ गया है राजनीति से इतर अर्थव्यवस्था की दशा-दिशा और सामाजिक फूट व सुलह के विषय में खुले दिमाग से सोचने का. यह काम किसी एक अकेले इंसान या दल के वश का नहीं. इन विषयों पर हर एक को सोचना होगा. दिसंबर का आखिरी सप्ताह हर साल मन को खट्टी-मीठी यादों से […]

By Prabhat Khabar Print Desk | December 29, 2014 5:32 AM

अब समय आ गया है राजनीति से इतर अर्थव्यवस्था की दशा-दिशा और सामाजिक फूट व सुलह के विषय में खुले दिमाग से सोचने का. यह काम किसी एक अकेले इंसान या दल के वश का नहीं. इन विषयों पर हर एक को सोचना होगा.

दिसंबर का आखिरी सप्ताह हर साल मन को खट्टी-मीठी यादों से भर देता है- एक तरफ नये साल से बहुत सारी आशाएं होती हैं, तो दूसरी ओर विदा ले रहे वर्ष का बोझ भी पीठ पर लदा महसूस होता है. यह आशंका नाजायज नहीं कि क्या आनेवाले वर्ष का अंत भी इसी तरह की मायूसी के साथ होगा, कि इस साल कितने सारे काम अधूरे ही नहीं छूटे, वरन् बिगड़ भी गये!

आम चुनाव में नरेंद्र मोदी और भाजपा की बड़ी जीत की वजह से 2014 की अलग पहचान बन गयी. एक अनोखी शुरुआत धमाकेदार तरीके से दर्ज करायी गयी. मोदी ने यह संदेश दिया कि वह विकास को प्राथमिकता देते हैं और सभी का विश्वास जीत कर, उन्हें साथ लेकर चलने का इरादा रखते हैं. लोकसभा चुनावों के बाद अनेक राज्यों में मोदी लहर की कामयाबी ने भी यह उम्मीद पैदा की थी कि देश की राजनीति में निर्णायक बदलाव देखने को मिल सकता है. जहां मोदी के आलोचक यह चेतावनी देते नहीं थकते थे कि उनका छुपा एजेंडा कुछ और है, वह देश को दूसरे विभाजन की कगार तक पहुंचाने का ही काम कर सकते हैं, वहीं लगभग सभी नौजवान जाति-धरम के विभाजन को भुला कर उन्हें और भाजपा को एक मौका देने को तैयार दिखाई दे रहे थे. मोदी ने कौशल के साथ जो विदेश यात्रएं कीं, उनसे उनकी तथा भारत की छवि नाटकीय ढंग से निखरी- इसमें भी दो राय नहीं हो सकती.

यहां यह जोड़ने की जरूरत है कि नरेंद्र मोदी के करिश्मे की तुलना की जाती रही है मनमोहन सिंह के श्रीहीन कार्यकाल से- राहुल गांधी के बड़बोले बचपने से. इसलिए बीत रहे साल का लेखा-जोखा तैयार करते वक्त दलगत पक्षधरता से हट कर सोचने की जरूरत है.

दुर्भाग्य यह है कि भले ही मोदी खुद किसी विवाद में नहीं घिरे और न ही अब तक उनका कोई कदम भारत सरकार के लिए असमंजस पैदा करनेवाला साबित हुआ, लेकिन उनके नाम का सहारा लेकर संघ के संयुक्त परिवार के कई सदस्यों ने ‘सबका साथ’ वाले नारे पर सवालिया निशान लगा दिये. सबसे जटिल चुनौती ‘धर्म परिवर्तन’ वाली है, जिसे ‘घर वापसी’ का नाम दिया जा रहा है. जो लोग अन्य धर्मावलंबियों को घर लौटाने को व्याकुल हैं, वे यह बताने की जहमत नहीं उठाते कि यह संतानें अपना घर छोड़ कर जाने को मजबूर ही क्यों हुई थीं? दलित, आदिवासी, वंचित तबका यदि शोषित, उपेक्षित, उत्पीड़ित नहीं होता, तो क्यों अपनी हिंदू पहचान को ठुकराता? बड़ा सवाल यह भी है कि जिस घर में उन सबको वापस लाया जा रहा है या बुलावा दिया जा रहा है, उस घर की खस्ता हालत से हम सब कब तक नजर चुराते रहेंगे? क्या यह सच नहीं कि भारत में गरीबी की सीमा रेखा से नीचे जिंदगी बसर करनेवालों की हालत अफ्रीका के दरिद्रों से बदतर है? क्यों कुपोषण और शैशव में ही मृत्यु के मुख में प्रवेश करनेवालों की संख्या भी यहां सबसे ज्यादा है? हालात के मद्देनजर विकास पर नजर टिकाये रखने में ही भलाई है. घर खुशहाल हो, तो मेजबान हो या मेहमान, परिवार का सदस्य हो या आश्रित, तनाव मुक्त जीवन की संभावना बढ़ती है.

साल के अंतिम चरण में असम में जातीय संघर्ष ने रक्तरंजित रूप ले लिया है. बोडो दहशतगर्दो ने आदिवासियों एवं अल्पसंख्यकों को फिर से निशाना बनाया है. करीब 80 निदरेष मारे गये हैं. इस सूबे में राज कांग्रेस का है, पर यहां भी केंद्र को कहीं न कहीं जिम्मेवार ठहराया जा रहा है. यह दोहराने की जरूरत है कि दलगत राजनीति से उबरना परम आवश्यक है. सच यह है कि यह संकट बरसों से चला आ रहा है और किसी एक पक्ष के तुष्टीकरण ने इसे विस्फोटक बनाया है. कुछ ऐसा ही कश्मीर घाटी में भी देखने को मिलता है. जब तक ये संवेदनशील इलाके मात्र सामरिक कारणों से महत्वपूर्ण समङो जाते रहेंगे, किसी सार्थक रचनात्मक पहल की सफलता की उम्मीद नहीं की जा सकती.

देश में अब तक महंगाई कमरतोड़ नहीं हुई है, तो सिर्फ इसलिए कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की गिरती कीमतों ने मोदी सरकार को राहत के लम्हे मुहैया कराये हैं. लेकिन असली अग्निपरीक्षा तो बजट बनाते वक्त आयेगी. जो उद्यमी कल तक कोरस में मोदी का स्तुतिगान करते थे, अब अगर-मगर लगा कर बात करने लगे हैं. विदेशी पूंजी निवेश उस तरह नहीं हुआ है, जिसकी आशा की जा रही थी. संसद में विपक्ष के एकजुट होने के बाद महत्वपूर्ण नीतिगत फैसले लागू करने के लिए सरकार को अध्यादेश वाला रास्ता अपनाना पड़ा है, जिसे किसी भी रूप में जनतांत्रिक कदम नहीं कह सकते. हां, यह स्वीकार करना ही पड़ेगा कि कांग्रेस समेत अनेक दलों ने उन विधेयकों को भी पारित नहीं होने दिया, जिनको वे स्वयं भी लानेवाले थे. कुल मिला कर भारतीय जनतंत्र के लिये नये साल में आसार बहुत अच्छे नहीं लगते.

कुछ लोग इस बात से भी निराश हैं, कि अपने साथी समर्थकों पर अंकुश लगाने में मोदी असमर्थ लगते हैं. हिंदू महासभा वाले हों या बजरंग दल के सिपाही, योगी आदित्यनाथ हों या कोई साध्वी- नुकसान की भरपाई गैरजिम्मेवार बयानों के बाद नाम मात्र की माफी से नहीं हो सकती. मोदी इन लोगों को संयम बरतने की राय तो देते हैं, पर यह बात गले के नीचे नहीं उतरती कि मंत्रिमंडल का कोई सदस्य प्रधानमंत्री के अनुशासन की बारंबार अवहेलना कर सकता है.

भ्रष्टाचार के राक्षस के वध का उत्सव देखने के लिए जो लालायित थे, वे भी निराश हैं. किसी नाटकीय अभियान की बात करना तो नादानी ही समझा जाना चाहिए, लेकिन कानून अपना काम अपनी गति से ही करता है, यही बात दोहरायी जाती रहेगी, तो असंतोष बढ़ेगा ही!

इस साल भी महिलाओं के खिलाफ जघन्य अपराधों में कोई कमी नहीं आयी है और इस कारण भी यह धारणा व्याप्त हो रही है कि अराजकता की कगार से अभी देश वापस नहीं लौटा है.

इस तरह नया साल आशंकाओं से घिरा है, पर ऐसा भी नहीं कि काले-घने बादलों के बीच कोई सुनहरी किरण नजर ही नहीं आती. कुनबापरस्ती वाले सामंती राजकाज का दौर निश्चय ही खत्म हो चुका है. धर्मनिरपेक्षता या प्रगतिशीलता का परचम लहरा कर अब कुनबापरस्ती को बचाया नहीं जा सकता. जो विधानसभा चुनाव निर्णायक समङो जा रहे थे, वे भी संपन्न हो चुके हैं. अब समय आ गया है राजनीति से इतर अर्थव्यवस्था की दशा-दिशा और सामाजिक फूट व सुलह के विषय में खुले दिमाग से सोचने का. यह काम किसी एक अकेले इंसान या दल के वश का नहीं. इन विषयों पर अपनी भूमिका के बारे में हर एक को सोचने की जरूरत है. तभी नया साल शुभ हो सकता है!

पुष्पेश पंत

वरिष्ठ स्तंभकार

pushpeshpant@gmail.com

Next Article

Exit mobile version