दिल्ली चुनाव में टूटीं मर्यादाएं

आशुतोष चतुर्वेदी प्रधान संपादक, प्रभात खबर ashutosh.chaturvedi @prabhatkhabar.in दिल्ली अब बहुत ज्यादा दूर नहीं है. मंगलवार को चुनाव नतीजे आ जायेंगे. एग्जिट पोल की मानें, तो दिल्ली में आम आदमी पार्टी की वापसी हो रही है और भाजपा को एक बार फिर मतदाताओं ने नकार दिया है. कांग्रेस का खाता भी दिल्ली में खुलने नहीं […]

By Prabhat Khabar Print Desk | February 10, 2020 6:45 AM
आशुतोष चतुर्वेदी
प्रधान संपादक, प्रभात खबर
ashutosh.chaturvedi
@prabhatkhabar.in
दिल्ली अब बहुत ज्यादा दूर नहीं है. मंगलवार को चुनाव नतीजे आ जायेंगे. एग्जिट पोल की मानें, तो दिल्ली में आम आदमी पार्टी की वापसी हो रही है और भाजपा को एक बार फिर मतदाताओं ने नकार दिया है. कांग्रेस का खाता भी दिल्ली में खुलने नहीं जा रहा है. दिल्ली विधानसभा हैसियत एक नगर निगम जितनी है. दिल्ली के हिस्से में केवल सात लोकसभा सीटें हैं. दिल्ली विधानसभा में केवल 70 सीटें हैं.
दिल्ली सरकार के अंतर्गत दिल्ली पुलिस भी नहीं आती. दिल्ली सरकार के अधिकार सीमित हैं. चूंकि यह राजधानी है, इस कारण दिल्ली विधानसभा की अहमियत बढ़ जाती है. दिल्ली चुनाव प्रचार के दौरान जिस तरह की उग्र भाषा का इस्तेमाल हुआ, वह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है.
इस चुनाव को अपने विरोधियों को सबसे ज्यादा अपशब्द कहने के लिए याद किया जायेगा. छोटे नेताओं को तो छोड़िए, बड़े नेताओं ने भी मर्यादा की सारी सीमाएं तोड़ दीं. चुनावों के दौरान आरोप-प्रत्यारोप और टीका-टिप्पणियां सामान्य बात है. चुनावी गर्मी में तल्ख टिप्पणियां भी हो जाती हैं, लेकिन इस चुनाव में मर्यादा की लक्ष्मण रेखा बार-बार पार की गयीं. चिंताजनक बात यह है कि देश की राजधानी में जब इस तरह की भाषा का प्रयोग होता है, तो इसकी प्रतिध्वनि दूर तक सुनाई देती है. देश के नेताओं को समझना होगा कि जब तल्खी कटुता में बदल जाए, तो चुनाव बाद भी रिश्ते आसानी से सामान्य नहीं होने वाले होते हैं.
खबरें आयीं कि केंद्रीय वित्त राज्यमंत्री अनुराग ठाकुर ने एक सभा में भीड़ से हिंसक नारे लगवाये. हालांकि उनका दावा है कि उन्होंने तो सिर्फ नारे का पहला हिस्सा कहा था, जिसमें गद्दारों का जिक्र था. गोली मारने वाला दूसरा हिस्सा भीड़ ने अपनी मर्जी से कहा. उच्च पदों पर आसीन लोगों को समझना होगा कि उनके समर्थक उनके एक-एक शब्द को बेहद गंभीरता से लेते हैं. ऐसे बयानों से हिंसा की आशंका पैदा होती है, जो किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए शुभ नहीं है.
चुनाव प्रचार के अंतिम दिन गृह मंत्री अमित शाह जब एक सभा को संबोधित कर रहे थे, तो वहां मौजूद कुछ लोग गोली मारो के आपत्तिजनक नारे लगाने लगे. यह सुनते ही शाह नाराज हो गये. उन्होंने भीड़ से शांत होने और बेवकूफी भरे नारे बंद करने को कहा. हालांकि इसके पहले उन्होंने भी कहा था कि दिल्ली के मतदाता इस तरह इवीएम का बटन दबाएं कि प्रदर्शन करने वालों को करंट लगे.
भाजपा के दिल्ली से सांसद प्रवेश वर्मा तो एक कदम और आगे निकल गये. उन्होंने शाहीनबाग के प्रदर्शनकारियों के बारे में कहा कि ‘ये लोग आपके घरों में घुसेंगे, आपकी बहन-बेटियों को उठायेंगे…’ इसके बाद चुनाव आयोग ने अनुराग ठाकुर और प्रवेश वर्मा को भाजपा के स्टार प्रचारकों की सूची से बाहर करने का निर्देश दिया था. साथ ही उन्हें कारण बताओ नोटिस भी जारी किया था. प्रवेश वर्मा तो इस पर भी नहीं रुके. संसद में गांधीजी की मूर्ति के पास प्लेकार्ड लेकर बैठ गये, जिसमें लिखा था कि आतंकी है केजरीवाल.
इस पर चुनाव आयोग ने उन पर 24 घंटे के लिए प्रचार के लिये रोक लगा दी थी. इसके पहले भाजपा प्रत्याशी कपिल मिश्रा को भी विवादित ट्वीट करने पर आयोग 48 घंटे के लिए चुनाव प्रचार करने से प्रतिबंधित कर दिया था. दूसरी ओर केजरीवाल ने एक टीवी चैनल के कार्यक्रम में खुद को कट्टर हनुमान भक्त बताया. उन्होंने हनुमान चालीसा पढ़ कर अपने आपको हिंदू प्रचारित करने की कोशिश भी की. केजरीवाल का यह हिंदू अवतार ठीक वैसा ही था, जैसे राहुल गांधी ने गुजरात विधानसभा चुनाव के समय मंदिर-मंदिर जाना शुरू किया था और जनेऊ दिखा कर अपने हिंदू होने का परिचय दिया था.
ऐसे विवादित बयानों और कामों के मद्देनजर चुनाव आयोग ने दिशा-निर्देश भी जारी करने पड़े थे. आयोग ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों को धार्मिक स्थलों का चुनाव प्रचार में जिक्र करने से बचना चाहिए. आयोग ने कहा कि राजनीतिक नेताओं को विरोधी दलों के कामों की आलोचना के लिए अपुष्ट आरोपों से भी बचना चाहिए. हमें याद रखना चाहिए कि किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में मर्यादित तरीके से विरोध का अधिकार हर शख्स को है. अगर किसी मुद्दे पर विरोध हो रहा है, तो इसका यह अर्थ नहीं कि वह देश का दुश्मन है. ऐसा नहीं है कि दिल्ली चुनाव में भाजपा नेताओं की जुबान फिसली हो.
पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने पीएम नरेंद्र मोदी को लेकर बेहद आपत्तिजनक बात कही. रोजगार के मुद्दे पर केंद्र सरकार को घेरते हुए राहुल गांधी मर्यादा भूल बैठे और कहा- ‘ये जो नरेंद्र मोदी भाषण दे रहा है, 6 महीने बाद यह घर से बाहर नहीं निकल पायेगा. हिंदुस्तान के युवा इसको ऐसा डंडा मारेंगे, इसको समझा देंगे कि हिंदुस्तान के युवा को रोजगार दिये बिना ये देश आगे नहीं बढ़ सकता.’ पीएम ने इसका जवाब लोकसभा में दिया था.
दिलचस्प तथ्य यह है कि 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में दिल्ली की सभी सातों सीटें पर भाजपा जीती थी, लेकिन 2015 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को केवल तीन सीटें मिली थीं. पिछले कुछ विधानसभा चुनावों में भाजपा को लगातार हार का मुंह देखना पड़ा है.
झारखंड, राजस्थान, छत्तीसगढ़,मध्य प्रदेश और पंजाब में इसे शिकस्त मिली, जबकि महाराष्ट्र में सबसे बड़ी पार्टी बनने के बावजूद वह सरकार नहीं बना सकी. यदि केजरीवाल एक बार फिर दिल्ली में सरकार बना लेते हैं, तो इसका मुख्य कारण उनकी सरकार का कामकाज होगा.
अगर आप गौर करें, तो पायेंगे कि सत्ता के शुरुआती दौर में केजरीवाल ने काम पर ध्यान कम दिया था और वह बेवजह रोजाना प्रधानमंत्री मोदी से उलझते रहते थे. दिल्ली के लेफ्टिनेंट गवर्नर के साथ भी उनके टकराव की स्थिति कई बार बनी. फरवरी, 2016 में सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार के बीच जिम्मेदारियों को स्पष्ट कर दिया. इसके बाद केजरीवाल ने अपनी रणनीति बदली. उसके बाद उन्होंने काम पर ज्यादा ध्यान दिया. इन चुनावों में आम आदमी पार्टी लगातार अपनी सरकार मोहल्ला क्लीनिक, बेहतर शिक्षा व्यवस्था, सस्ती बिजली, हर मोहल्ले में अच्छी गलियां बनवाने जैसी कामों को गिना रही थी, जबकि भाजपा का प्रचार राष्ट्रीय मुद्दों पर केंद्रित था.
वह नागरिकता कानून के विरोध में शाहीनबाग के धरने पर केंद्रित था. जो सूचनाएं हैं, उनके अनुसार दिल्ली के लोग इस बात को स्वीकार करते हैं कि दिल्ली में स्वास्थ्य, बिजली, पानी की बेहतर हुई है और शिक्षा का स्तर सुधरा है. यह चुनाव इसलिए भी अहम है, क्योंकि यह स्पष्ट करेगा कि क्या मतदाता राज्य और राष्ट्रीय चुनावों में अंतर करता है. साथ ही यह भी साफ होगा कि नागरिकता (संशोधन) कानून और उसके विरोध का विधानसभा चुनाव नतीजों पर कितना असर पड़ता है.

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