तोड़नी होगी जाति की दीवार

तरुण विजय वरिष्ठ नेता, भाजपा tarunvijay2@yahoo.com हम यह उदाहरण देते थकते नहीं कि श्रीराम ने समाज में समता और समरसता स्थापित की, किसी से भेदभाव नहीं किया, शबरी के जूठे बेर खाये, जटायु राज से प्रेम किया, हनुमान को गले लगाया. लेकिन, श्रीराम के उपासक यह भूल जाते हैं कि आज अगर हिंदुओं को सबसे […]

By Prabhat Khabar Print Desk | December 9, 2019 7:54 AM

तरुण विजय

वरिष्ठ नेता, भाजपा

tarunvijay2@yahoo.com

हम यह उदाहरण देते थकते नहीं कि श्रीराम ने समाज में समता और समरसता स्थापित की, किसी से भेदभाव नहीं किया, शबरी के जूठे बेर खाये, जटायु राज से प्रेम किया, हनुमान को गले लगाया.

लेकिन, श्रीराम के उपासक यह भूल जाते हैं कि आज अगर हिंदुओं को सबसे बड़ा खतरा और श्रीराम के नाम का सबसे बड़ा उल्लंघन यदि किसी रूप में हो रहा है, तो वह है हिंदू समाज के ही अभिन्न अंग – जिन्हें दलित और अनुसूचित जाति का भी कहते हैं- के साथ भयानक अमानुषिक अन्याय और उन पर अत्याचार. एक समय था, जब गुरु तेग बहादुर साहब ने कश्मीरी हिंदुओं के उत्पीड़न पर मुगल सल्तनत को चुनौती दी थी, पर आज दुखी दलित, पीड़ित समाज सरकारी विभागों और नेताओं के बेरहम घड़ियाली आंसुओं के भरोसे तड़पता रहता है, लेकिन उनके अथाह दुख का कोई अंत नहीं दिखता.

पंजाब के संगरूर जिले में चंगलीवाला गांव में अनुसूचित जाति के 37 वर्षीय युवा जगमेल सिंह के साथ एक भयानक हादसा हुआ.

महज ₹दो सौ रुपये के कुछ झगड़े के कारण जगमेल सिंह को उठा लिया गया, उसे खंभे से बांधकर लोहे के सरियों से पीटा गया, चिमटे से उसकी टांग और जंघा से मांस नोचा गया, उसके नाखून प्लास से निकाले गये और इतना दर्दनाक टॉर्चर किया गया कि न शब्द मिलते हैं और न वह सब सुनने की किसी संवेदनशील व्यक्ति में क्षमता ही होगी. उसकी सहायता के लिए कोई नहीं आया. पुलिस और स्थानीय डॉक्टरों ने भी सहायता नहीं दी. जब उसे चंडीगढ़ के मेडिकल कॉलेज में भर्ती किया गया, तो उसकी दोनों टांगें काटनी पड़ीं, फिर भी उसे बचाया नहीं जा सका.

तो अब? उसके परिवार को चुप कराने के लिए कुछ पैसा दिया गया. जांच के बाद कुछ लोगों को पकड़ा भी जायेगा. और ऐसी अगली घटना होने तक सारा मामला खत्म हो जायेगा. दलितों को विश्वास नहीं है कि जो लोग खुद को ऊंची जाति का कहते हैं, वे उनके साथ न्याय करेंगे.

और ऐसे लोग सब जगह, पुलिस, न्यायपालिका, शासन-प्रशासन आदि में हैं, जो अपने भाषणों में दलितों से सहानुभूति व्यक्त करते हैं. वे भाषण देते हुए भावुक भी हो जाते हैं, लेकिन मामला वहीं का वहीं रहता है, क्योंकि बड़ी जाति वाले, बड़ी जाति वालों के सम्मेलनों में समता की बातें कहते हुए बड़ी जाति वालों की तालियां समेटते हैं और बड़ी जाति की मीडिया में फोटो छपवा लेते हैं.

दलितों में भी एकता का अभाव है. अब कोई आंबेडकर नहीं जो निस्वार्थ भाव से उनकी वेदना को लेकर चले और उसे राजनीतिक सौदेबाजी की दुकानदारी का हिस्सा ना बनाये. जो अनुसूचित जाति के महापुरुष चुनाव जीते हैं, उन्हें अपने अगले टिकट के लिए बड़ी जाति के लोगों पर निर्भर रहना पड़ता है.

आंबेडकर का नाम लेना फैशन है, लेकिन उनका नाम लेनेवाले भी उस विवेकानंद को भूल जाते हैं, जिन्होंने तथाकथित ऊंची जाति के समाज को जाति-भेद के लिए धिक्कारा था और अंधे कर्मकांड के खिलाफ निर्भीकतापूर्वक आवाज उठायी थी. आज मीडिया में भी लगभग सर्व समावेशी जातिवाद और उस पर भी बड़ी जाति का वर्चस्व है. जगमेल सिंह जैसे रोंगटे खड़े करनेवाले भयानक घटनाक्रम अब उद्वेलित नहीं करते, रोजमर्रा की घटनाओं में बहा दिये जाते हैं.

अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष रामशंकर कठेरिया से मेरी मुलाकात हुई थी. वे पूर्व सांसद हैं, संवेदनशील हैं. मैंने पूछा- कहां जा रहे हैं भाई जी. तो वे बोले- तमिलनाडु जा रहा हूं, वहां एक दीवार ढहने से 17 दलित मारे गये हैं.

इन 17 दलितों का मारा जाना इस देश के लिए सिर्फ एक रोजनामचे और एक जांच का मामला है. एकाध कोई मीडिया चैनल इस खबर को कुछ और मसाला लगाकर प्रसारित कर देगा. लेकिन, अन्य बहुत सारे राजनीतिक मुद्दे हैं, जो इन 17 लोगों की जाति विद्वेष के कारण आयोजित की गयी दीवार हत्या पर छा जायेंगे. चुनाव हैं. सुरक्षा, आतंकवाद, मंदिर, हिंदुओं पर हमले, अर्थव्यवस्था, घटती-बढ़ती सकल घरेलू आय और आर्थिक विकास, पर्यटन आदि मुद्दे.

अनुसूचित जाति के लोगों का किसी अत्याचार के कारण मरना या उनके या उनके साथ अन्याय होना, यह इतना आम, नियमित होनेवाला और लगभग स्वीकार हो चुका विषय बन गया है कि अब इस पर किसी संत-महात्मा को ऐसा नहीं लगता कि- ‘हिंदू धर्म खतरे में है’. किसी को लगता नहीं कि जो हिंदू धर्म के भीतर ही जीने और मरने का साहस दिखाते हुए विषमता और विद्वेष का शिकार हैं, उनके साथ सहानुभूति, राहत और अपनेपन का कोई रिश्ता कायम करना चाहिए. कथाएं होती रहेंगी. कथाओं पर करोड़ों रुपये न्योछावर भी होते रहेंगे, पर जाति की दीवारें हर एक भागवत कथा, हर एक मंदिर की नींव को दरकाती जायेंगी.

पच्चीस-पचास करोड़ की लागत से अयोध्या में राम मंदिर भी बन जायेगा. करोड़ों श्रद्धालु वहां आयेंगे भी, लेकिन क्या उस हिंदू समाज में होगा, जिसकी नींव जातिगत विद्वेष, अपने ही बच्चों को जाति-भेद के कारण शादी से मना करने पर उन्हें आत्महत्या पर मजबूर करने की विभत्सता और जगमेल सिंह तथा मेट्टूपल्लयम (कोयंबटूर) में जाति की दीवार तले दबकर मरे 17 हिंदू अनुसूचित जाति वालों की चीख-पुकार से अशांत है.

किसी मंदिर से बड़ा काम उस मंदिर का संरक्षण करना है, जिसमें श्री राम और सीता मैया साक्षात जीवंत विराजमान होते हैं, पर जिन्हें हर दिन जाति-भेद का अपमान सहना पड़ता है.

(यह लेखक के निजी विचार हैं.)

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