Hum Bhi Akele Tum Bhi Akele Review : मजा नहीं आया कसम से…

Hum Bhi Akele Tum Bhi Akele Review : पिछले कुछ समय से हिंदी सिनेमा समलैंगिकता के मुद्दे को लगातार अपनी कहानियों में उठा रहा है खास बात है कि संवेदनशीलता के साथ फूहड़ कॉमेडी के लिए नहीं. हम भी अकेले तुम भी अकेले के ट्रेलर से भी उम्मीद जगी थी कि यह फ़िल्म समलैंगिकता के मुद्दे को एक और ठोस नज़रिए के साथ रखेगी लेकिन पर्दे पर जो कुछ भी नज़र आया

By कोरी | May 10, 2021 10:53 PM

Hum Bhi Akele Tum Bhi Akele Review:

फ़िल्म – हम भी अकेले तुम भी अकेले

प्लेटफार्म- डिज्नी प्लस हॉटस्टार

निर्देशक-हरीश व्यास

कलाकार-अंशुमान झा,ज़रीन खान,गुरफतेह पीरज़ादा,

प्रभलीन कौर, जाह्नवी रावत और अन्य

रेटिंग डेढ़

पिछले कुछ समय से हिंदी सिनेमा समलैंगिकता के मुद्दे को लगातार अपनी कहानियों में उठा रहा है खास बात है कि संवेदनशीलता के साथ फूहड़ कॉमेडी के लिए नहीं. हम भी अकेले तुम भी अकेले के ट्रेलर से भी उम्मीद जगी थी कि यह फ़िल्म समलैंगिकता के मुद्दे को एक और ठोस नज़रिए के साथ रखेगी लेकिन पर्दे पर जो कुछ भी नज़र आया है उसमें समलैंगिक ता का अहम मुद्दा ही गायब है. किरदारों की तरह कहानी भी बहुत कन्फ्यूजन भरी है और जबरदस्ती के ट्विस्ट एंड टर्न इस फ़िल्म को औऱ बोझिल बना गए हैं.

फ़िल्म की कहानी वीर( अंशुमान झा) और मानसी(ज़रीन) की है . दोनों ही समलैंगिक है और अपने अपने पार्टनर्स के साथ रहने के लिए घर से भागे हुए हैं. हालात ऐसे बनते हैं कि वीर ,मानसी को उसकी प्यार निक्की से मिलवाने के लिए दिल्ली से मैक्लोडगंज की रोड ट्रिप के ज़रिए पहुंचाता हैं लेकिन वीर के प्यार अक्षय की तरह मानसी की प्यार भी अपने परिवार और समाज के खिलाफ जा नहीं पाती है. उसके बाद क्या होता है ये आगे की कहानी है.

फ़िल्म क्लाइमेक्स में एक अजीबोगरीब ट्विस्ट की वजह अलग ही टर्न ले लेती है, जो कहानी को उसके मुद्दे से ही पूरी तरह भटका गयी है. समलैंगिक मुद्दे की इस कहानी का बैकड्रॉप रोड़ ट्रिप है और किसी भी रोड ट्रिप की फ़िल्म में अलग अलग किरदार और घटनाएं कहानी को रोचक बनाते हैं.

जब वी मेट,कारवाँ, ज़िन्दगी मिलेगी ना दोबारा, सहित कई फिल्में इसका उदाहरण हैं. इस फ़िल्म रोड ट्रिप वाली फिल्म में वो सब नदारद है. पूरी रोड ट्रिप में अंशुमान झा और ज़रीन ही नज़र आ रहे हैं. जैसे लॉक डाउन में ये जोड़ी रोड़ ट्रिप कर रही है. घटनाएं के नाम पर सिर्फ एक सीन है जिसमें ज़रीन एक ढाबे से खाना खाकर बिना पैसे दिए भाग जाती है.

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इस कमज़ोर कहानी को और कमज़ोर इसकी लंबाई बनाती है. फ़िल्म दो घंटे की ही है लेकिन इसका नरेटिव इतना स्लो है कि यह आधे घंटे छोटी होती तो शायद कम बोर करती.

अभिनय की बात करें अंशुमान झा अपने किरदार के साथ न्याय करने में कामयाब नज़र आए हैं. ज़रीन खान औसत रही हैं. उन्हें अपनी संवाद अदायगी पर थोड़ा काम करने की ज़रूरत है. बाकी के किरदारों ने अपनी सीमित स्पेस में ठीक ठाक काम किया है. फ़िल्म की सिनेमेटोग्राफी औसत है. संवाद बेहद कमजोर हैं जो इस कहानी को और उबाऊ बना जाते हैं.

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