संशोधन की आड़ में लूटने की तैयारी

लक्ष्मी नारायण मुंडा सीएनटी एक्ट में संशोधन वर्ष 1929, 1938, 1947, 1969, 1996 में हो चुका है. आज फिर इसमें संशोधन किये जाने पर कई सारे तर्क दिये जा रहें हैं. बेशक इसको लेकर सीएनटी एक्ट के दायरे में आनेवाले क्षेत्र के आदिवासियों के बीच ही इसके लाभ-हानि पर बहस होनी चाहिए. उसके पश्चात 27.9.2014 […]

By Prabhat Khabar Print Desk | October 23, 2014 6:29 AM
लक्ष्मी नारायण मुंडा
सीएनटी एक्ट में संशोधन वर्ष 1929, 1938, 1947, 1969, 1996 में हो चुका है. आज फिर इसमें संशोधन किये जाने पर कई सारे तर्क दिये जा रहें हैं. बेशक इसको लेकर सीएनटी एक्ट के दायरे में आनेवाले क्षेत्र के आदिवासियों के बीच ही इसके लाभ-हानि पर बहस होनी चाहिए.
उसके पश्चात 27.9.2014 को राज्य की जनजातीय सलाहकारपरिषद (टीएसी) की बैठक में जिस तरह इसमें संशोधन का प्रस्ताव पारित कराया गया, यह पूरी तरह अनैतिक, अव्यावहारिक और गलत मंशा से किया गया है. झारखंड जैसे नवगठित आदिवासी बहुल राज्य में एकाएक संशोधन प्रस्ताव लाया जाना कहां तक उचित है.
ऐसे में टीएसी के अधिकांश सदस्य सीएनटी एक्ट कानून का उल्लंघन कर अपने ही आदिवासी भाइयों की जमीन को ठग कर अपने तथा अपने सगे संबंधियों के नाम पर खरीद लिये हैं. इसमें वर्तमान मुख्यमंत्री, मंत्री, विधायक, सांसद सभी शामिल हैं.
अंगरेजों के दौर में बनाये गये इस कानून का मूल उद्देश्य आदिवासियों की जंगल-जमीन, धार्मिक आस्था, विश्वास, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक ताना-बाना को संरक्षित करना था. इसमें संशोधन का तर्क ढूंढ़नेवाले यह क्यों भूल जाते हैं कि आज तक आदिवासी हितों के लिए बने कानून सीएनटी एक्ट, एसपीटी एक्ट आदि क्यों पूरी तरह लागू नहीं किया गया. आज सीएनटी एक्ट बनाये जाने के उद्देश्य पर चर्चा होनी चाहिए. यह क्यों, किस लिए और किनके लिए बनाया गया था.इसमें संशोधन छेड़छाड़ करनेवालों को याद रखना चाहिए कि सीएनटी एक्ट भीख-अनुदान, चाटुकारी से नहीं मिला है.
इसमें सैकड़ों आदिवासी महिला-पुरुषों की शहादत और एक लंबा संघर्ष शामिल है. मेरा मानना है कि आज जिस परिस्थिति में संशोधन की वकालत की जा रही है या फिर जो भी लोग कर रहे हैं, वे इसके दुष्परिणामों और जमीन की खुली लूट को देख-समझ नहीं पा रहे हैं. शायद ये लोग धृतराष्ट्र बने रहना चाहते हैं.
मैं पुन: जोर देकर कहना चाहूंगा कि आदिवासियों के हितों और उनके कल्याण, विकास के लिए कई रास्ते हैं. इससे पहले आदिवासी जमीन की खरीद-बिक्री को प्रतिबंधित किया जाये और आदिवासी हितों के लिए बने विशेष नियम-कानूनों को लागू कराया जाये. वहीं दूसरी ओर आदिवासियों के विकास के लिए कृषि तकनीक, वनोत्पाद, पशुपालन घरेलू उद्योगों को बढ़ावा देकर विभिन्न तरह के रोजगार मूलक तकनीकी प्रशिक्षण, सर्वागीण विकास के विकल्प तलाशे जायें.
(लेखक आदिवासी सरना धर्म-समाज, रांची से जुड़े हुए हैं और सामाजिक कार्यकर्ता हैं)

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