संविधान, गणतंत्र और आजादी: पढ़ें सुप्रीम कोर्ट के वकील विराग गुप्ता का लेख

विराग गुप्ता, सुप्रीम कोर्ट के वकील... आज भारतीय गणतंत्र की 70वीं वर्षगांठ पर संविधान के महत्व को सही ढंग से समझने की ज्यादा जरूरत है. पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी मौजूदा आंदोलनों को लोकतंत्र के लिए शुभ मान रहे हैं, तो सत्तारूढ़ दल इन्हें विघटनकारी बता रहा है. मजेदार है कि इस बहस में शामिल सभी […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 26, 2020 4:42 AM

विराग गुप्ता, सुप्रीम कोर्ट के वकील

आज भारतीय गणतंत्र की 70वीं वर्षगांठ पर संविधान के महत्व को सही ढंग से समझने की ज्यादा जरूरत है. पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी मौजूदा आंदोलनों को लोकतंत्र के लिए शुभ मान रहे हैं, तो सत्तारूढ़ दल इन्हें विघटनकारी बता रहा है. मजेदार है कि इस बहस में शामिल सभी लोग अपने पक्ष को सही साबित करने के लिए संविधान की ही दुहाई दे रहे हैं. देश के युवा ही गणतंत्र का भविष्य हैं. संविधान की प्रस्तावना में ‘हम लोग’ यानी नागरिकों का जिक्र है, जिस पर आज सबसे ज्यादा बवाल है.
संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार ही सन 1951 में पहली और सन 1961 में दूसरी जनगणना में नागरिकों की राष्ट्रीयता के बारे में सवाल पूछे गये थे. ग्राम प्रधान से लेकर राष्ट्रपति तक के सभी पदों और उनके लिए मतदान करनेवाले वोटरों को भारत का नागरिक होना जरूरी है.
संविधान का सबसे बड़ा पहलू है लोगों को आजादी का अधिकार, जिसे अब विघटनकारी कहा जा रहा है. तीन दिन पहले राष्ट्रनायक नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जयंती थी, जिन्होंने आजादी के लिए खून की कीमत मांगी थी.
संविधान में आजादी के संवैधानिक हक के साथ जनता के लिए अनेक संवैधानिक कर्तव्यों का भी प्रावधान किया गया है. आंदोलनकारियों को विरोध का हक है, लेकिन समाज और देश के प्रति भी उनकी अनेक जिम्मेदारियां हैं. आजादी और जवाबदेही विरोधाभासी होने की बजाय पूरक हैं.
इस संतुलन को बनाये रखने के लिए जनता और सरकार दोनों की जवाबदेही है. संविधान में नागरिक और सरकार, राज्य और केंद्र, आजादी और जवाबदेही के अनेक सामंजस्य हैं, जिनके पोषण से ही भारतीय गणतंत्र दीर्घजीवी बन सकता है.
आजादी के बाद भारत ने सर्वधर्म समभाव की नीति बनायी. भारत के संविधान में सभी वर्गों और धर्म की समानता और संरक्षण के लिए पर्याप्त प्रावधान थे. इसके बावजूद आपातकाल की चुनौतियों से निपटने के लिए इंदिरा गांधी ने संविधान संशोधन से धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद को संविधान का हिस्सा बना दिया. राजनीतिक लाभ के लिए अल्पसंख्यकवाद और तुष्टीकरण को धर्मनिरपेक्षता का पर्याय बनाये जाने की प्रतिक्रिया में हिंदुत्व का राष्ट्रवाद के साथ घालमेल, वर्तमान संकट के मूल में है.
संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ राजेंद्र प्रसाद ने ढकोसलों की बजाय नागरिकों की ठोस एकता की बात कही थी. ‘एक देश एक कानून’, ‘एक देश एक चुनाव’ की संकल्पना अच्छी हो सकती है. परंतु बहुदलीय व्यवस्था में ‘एक देश एक पार्टी’ के शासन का विचार ही अलोकतांत्रिक है.
सहकारी संघवाद में मजबूत केंद्र के इंजन और राज्यों के डिब्बे की व्यवस्था बनायी गयी है. भाषा और संस्कृति के आधार पर गठित राज्यों के ऊपर निरंकुश केंद्रीकृत व्यवस्था थोपने से राष्ट्रीय एकता के साथ संवैधानिक व्यवस्था के ध्वस्त होने का खतरा बढ़ रहा है. संसद के कानून को राज्यों द्वारा चुनौती देने से संघवाद को बड़ी चुनौती मिल रही है.
राज्यों को समाप्त करने के साथ राष्ट्रपति शासन लगाने के लिए केंद्र सरकार को संवैधानिक हक है. लेकिन नागरिकता, जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) और जीएसटी जैसे मामलों पर राज्यों ने यदि केंद्र के खिलाफ सामूहिक असहयोग शुरू कर दिया, तो लोकतंत्र की ट्रेन ही संकट में पड़ सकती है.
पहले प्रधानमंत्री नेहरू के समय मंत्रिमंडल की कैबिनेट व्यवस्था में प्रधानमंत्री के नायकत्व को सरदार पटेल और आंबेडकर ने सही नहीं माना था. धीरे-धीरे अब पीएम और सीएम ही सरकार बन गये और कैबिनेट व्यवस्था अप्रासंगिक हो गयी. इस मर्ज को ठीक करने की बजाय ‘एक देश एक चुनाव’ के माध्यम से पिछले दरवाजे से राष्ट्रपति प्रणाली लाने की सोच से संसदीय प्रणाली खतरे में पड़ सकती है.
ऑक्सफैम की नयी रिपोर्ट में भारतीय समाज और अर्थव्यवस्था की बढ़ती विषमता सामने आयी है. देश की बड़ी आबादी गरीबी रेखा से नीचे है, जिनके मूल अधिकारों का संवर्धन सबसे बड़ा प्रश्न है. इस अहम सवाल पर संसद, सरकार और सुप्रीम कोर्ट की चुप्पी चिंताजनक है. समाज और अर्थव्यवस्था की गहराती विषमता की खाई को पाट कर ही संविधान में दी गयी समानता, समाजवाद और भाईचारे की अवधारणा को सही अर्थों में साकार किया जा सकता है.