विकास का द्वंद्व दिखाती ‘स्प्रिंग थंडर’

सुनील मिंज ‘स्प्रिंग थंडर’ जल-जंगल-जमीन के मुद्दे, विस्थापन और खनिजों की लूट पर बनी फिल्म है. इस फिल्म के डायरेक्टर श्रीराम डालटन हैं. वे खुद डाल्टनगंज के रहने वाले हैं. और यह फिल्म उन्हीं के कस्बे में फिल्मायी गयी है. उनकी पढाई बीएचयू से फाइन आर्ट्स में हुई है. ‘किसना’, ‘नो एंट्री’, ‘गोड तुस्सी ग्रेट […]

By Prabhat Khabar Print Desk | January 24, 2020 8:09 AM
सुनील मिंज
‘स्प्रिंग थंडर’ जल-जंगल-जमीन के मुद्दे, विस्थापन और खनिजों की लूट पर बनी फिल्म है. इस फिल्म के डायरेक्टर श्रीराम डालटन हैं. वे खुद डाल्टनगंज के रहने वाले हैं. और यह फिल्म उन्हीं के कस्बे में फिल्मायी गयी है. उनकी पढाई बीएचयू से फाइन आर्ट्स में हुई है. ‘किसना’, ‘नो एंट्री’, ‘गोड तुस्सी ग्रेट हो’, ‘फैमली’, ‘वक्त और मेरीडियन’ जैसी फिल्मों में अशोक मेहता के सहायक सिनेमैटोग्राफर रहे हैं.
‘द लास्ट बहरूपिया’, ‘ओ पी स्टॉप स्मेलिंग योर सॉक्स’, और नेतरहाट फिल्म इंस्टिट्यूट के द्वारा इन्होंने जल, जंगल, जमीन के मुद्दे पर 13 फिल्में बनायी हैं. उन्होंने मुंबई से लेकर झारखंड तक की लंबी यात्रा की जो उनके जंगल और जमीन के प्रति अपने जुडाव को दर्शाती है. स्प्रिंग थंडर फिल्म उन्होंने 10 वर्षों में बनायी है.
यह फिल्म आदिवासियों और सरकार के बीच विकास के द्वंद्व पर आधारित है. छोटानागपुर खनिज संपदा से भरा पड़ा है. सरकार राष्ट्रहित के नाम पर इन खनिजों का दोहन करना चाहती है लेकिन आदिवासियों की कीमत पर.
पिछले कई दशकों में आदिवासियों ने देश के विकास के लिए लाखों एकड़ जमीन दी. उनका समुचित पुनर्वास भी आज तक नहीं किया जा सका. उन्हें विकास के नाम पर छला गया. उन्हें विकास में भागीदार नहीं बनाया गया. इसलिए सरकार के विकास रूपी झुनझुने पर अब आदिवासियों का तनिक भी विश्वास नहीं रहा. अब जब भी किसी परियोजना के लिए विस्थापन की बात आती है आिदवासी समाज उसके खिलाफ जोरदार ढंग से खड़ा होता है.
फिल्म का कथानक कुछ इस प्रकार है : नेतरहाट के इलाके में एक बड़ा यूरेनियम भंडार है, जहां खनन के लिए तकरीबन 1500 वर्ग किलोमीटर के दायरे में बसे गांवों के लोगों को अपना घर-द्वार, जगह-जमीन, जंगल-पहाड़ छोड़कर अन्यत्र चले जाने की बात जिले के उपायुक्त द्वारा की जाती है. ग्रामीण दहशत में अपनी जिंदगी बिता रहे हैं.
सुरेश लकडा साधारण मजदूर है. और जंगल कटाई के विरोध में चल रहे आंदोलन के अगुआ भी. सुरेश कई बार संभावित विस्थापितों को सजग करते हैं कि अगर हम जिस तरह जंगल कटाई के खिलाफ चुप रहे, उसी तरह अगर हम यूरेनियम खनन के विरोध में चल रहे संघर्ष में भी चुप रह जायें तो यह सिस्टम हमें दो कौड़ी का बना देगा.
बीच-बीच में नेपथ्य से एक कुडुख गीत सुनायी पड़ता है- ओहरे नगपुरियर एका तरा कादर एन्देरगे राजीन सूना नंदर हो, एन्देरगे देसेन सूना नंदर. इस जागृति गीत का मायने यह है कि हे नागपुर के लोगों! किधर जा रहे हैं? अपने राज्य को सूना क्यों कर रहे हैं? क्यों अपने देश को सूना कर रहे हैं? लौटकर आओ, आप लोगों के लिए किन चीजों की कमी हो गयी?
उनके आह्वान पर सैकड़ों गांव के हजारों लोग लामबंद हो चुके हैं. इसकी वजह से खनन कार्य शुरू नहीं हो पाना कंपनी के ठेकेदार के लिए सरदर्द बन चुका है. ठेकेदार ने साम, दाम, दंड, भेद लगा दिया है. ठेकेदार के लिए चुनौती बने सुरेश को एक षड्यंत्र के तहत एक विदेशी महिला डॉक्टर के अपहरण में फंसा दिया जाता है. असल जिंदगी में भी किसी जननेता को जेल में ठूंसने के लिए सत्ता यही खेल खेलती है. कुल मिलाकर, यह झारखंड के मसलों पर एक बोल्ड फिल्म है, जिसे सिनेमाघरों में भी बोल्डली दिखाये जाने की जरूरत है.

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