जरूरी है इच्छाशक्ति और जागरूकता

प्रो मंजू मोहन प्रमुख, सेंटर फॉर एटमॉस्फेरिक साइंस, आईआईटी, दिल्ली उत्तर भारत में प्रदूषण की भयावहता का कोई एक कारण नहीं है. इनमें ज्यादातर ऐसे कारण हैं, जिन्हें खुद हमने ही पैदा किया है. औद्योगिकीकरण, सड़कों पर दौड़ती गाड़ियां, ऊर्जा के संयंत्र, निर्माण कार्य और कूड़े-कचरे का कमजोर प्रबंधन आदि प्रदूषण के लिए जिम्मेदार हैं. […]

By Prabhat Khabar Print Desk | November 17, 2019 1:55 AM

प्रो मंजू मोहन

प्रमुख, सेंटर फॉर एटमॉस्फेरिक साइंस, आईआईटी, दिल्ली
उत्तर भारत में प्रदूषण की भयावहता का कोई एक कारण नहीं है. इनमें ज्यादातर ऐसे कारण हैं, जिन्हें खुद हमने ही पैदा किया है. औद्योगिकीकरण, सड़कों पर दौड़ती गाड़ियां, ऊर्जा के संयंत्र, निर्माण कार्य और कूड़े-कचरे का कमजोर प्रबंधन आदि प्रदूषण के लिए जिम्मेदार हैं. ऐसा नहीं है कि ये चीजें सिर्फ उत्तर भारत में ही हैं, पूरे देश में यह सब चल रहा है.
इसलिए सवाल उठता है कि उत्तर भारत में ही प्रदूषण का असर ज्यादा क्यों है. दरअसल, उत्तर भारत में हवाओं की गति तेज नहीं होती, जैसा दक्षिण भारत में देखने को मिलता है. अक्तूबर-नवंबर आते आते जब मौसम में नमी आ जाती है, तब वातावरण में धूल नीचे की ओर बैठने लगती है. वहीं धीमी हवाओं के कारण वातावरण की धूल कहीं दूर भी नहीं जा पाती.
इस वजह से उत्तर भारत में लगता है कि प्रदूषण की विभीषिका बड़ी है, जबकि जहां-जहां भी हमारे द्वारा निर्माण के कार्य और शहरीकरण किये जा रहे हैं, वहां वहां प्रदूषण होना तय है, क्योंकि निर्माण की हालत में या उसके बाद जो उससे अपवर्ज्य पदार्थ निकलता है, उसका प्रबंधन हमारे देश में बहुत ही लचर है. चूंकि, इन सुविधाओं की हमें जरूरत है, इसलिए ये सालों-साल चलते रहते हैं. अक्सर कहा जाता है कि विकास के लिए जरूरी है कि ज्यादा से ज्यादा उद्योग लगाये जायें और शहरीकरण को बढ़ावा दिया जाये.
यह बात जितनी सच है, उतना ही सच यह भी है कि इनसे पैदा होनेवाली अव्यवस्थाओं का प्रबंधन ठीक से नहीं होता. भौगोलिक हिसाब से देखें, तो गंगा घाटी के क्षेत्र में आनेवाले जितने भी हमारे शहर हैं, उनमें ज्यादा प्रदूषण है. गंगा घाटी उत्तर भारत में ज्यादा फैली हुई है, जहां हिमालयी फुटहिल्स अक्सर सर्दियों में हवाओं को रोकने का काम करती हैं.
इस पूरे क्षेत्र में हवाएं भी धीमी बहती हैं, जबकि दक्षिण में खूब तेज हवाएं चलती हैं. दूसरी बात यह है कि चूंकि उत्तर भारत में जनसंख्या घनत्व भी बहुत ज्यादा है, जिसकी जरूरतों के चलते प्रदूषण बढ़ता चला जाता है. किसी भी चीज का प्रबंधन उतना मुश्किल नहीं है, जितना हम सोचते हैं या फिर उसे लेकर लापरवाही बरतते हैं. मैंने अपने अध्ययनों में पाया है कि देशभर में जहां-तहां कूड़े को लोग जलाते रहते हैं.
हमें साल भर में एक बार पराली जलाने की खबर तो मिलती है, लेकिन सालभर जलाये जा रहे कचरे की खबर नहीं मिलती. आप दक्षिण में जायें, तो पायेंगे कि वहां पेड़-पौधों की अधिकता है. दक्षिण में तेज हवाओं के साथ नवंबर में भी इतना तापमान कम नहीं होता, जितना कि उत्तर भारत में. जाहिर है, जहां पेड़-पौधे कम होंगे, वहां प्रदूषण बढ़ेगा ही. उत्तर भारत के मुकाबले दक्षिण भारत में प्रदूषण के स्रोत भी कम हैं, और प्रबंधन भी बेहतर है.
यही कारण है कि सर्दियां आते ही उत्तर भारत प्रदूषण की चपेट में आ जाता है. प्रदूषण रोकने का सटीक उपाय ही है कि उसके स्रोतों को ही खत्म कर दिया जाये. लेकिन यह मुश्किल बहुत है. उपाय यह है कि जितनी जल्दी हो सके, धूल-मिट्टी को ठिकाने लगा दें. हम गाड़ियां चलायें, लेकिन यह देख लें कि उससे ज्यादा धुआं तो उत्पन्न नहीं हो रहा है.
हम कचरा पैदा करें, पर सही तरीके से उसका प्रबंधन करें और रोजाना करें, तो संभव है कि कूड़े का पहाड़ खड़ा नहीं हो पायेगा. दूसरी बात यह है कि ज्यादा से ज्यादा पेड़-पौधे लगाने के साथ ही जितने भी जलस्रोत हैं, उनको पुनर्जीवित करने की जरूरत है. हमारे जलाशय सूखते चले जा रहे हैं कि क्योंकि वर्षा जल का हम संरक्षण नहीं कर पाते. जलाशयों की बेहतरी से पेड़-पौधों का भी विस्तार हो पायेगा.
सरकारी स्तर पर तो इनकी कोशिशें होनी ही चाहिए, नागरिक स्तर पर भी ये तमाम कोशिशें होनी चाहिए. जनता सरकार के भरोसे बैठी रहती है और जनता को खामोश देख सरकार भी चुपचाप पड़ी रहती है. दोनों की गलती है. सरकार के पास इच्छाशक्ति का अभाव है, तो जनता के पास जागरूकता का. इसी वजह से आज प्रदूषण अपने विकराल रूप में हमारे सामने है.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)

Next Article

Exit mobile version