वैचारिक तापमान का पता

आजकल विचार को लेकर हम खतरे में हैं. अपने स्वतंत्र विचारों को लेकर हमें कहीं न कहीं बरतने का संदेश दिया जा रहा है. ऐसे में कहानीकार अखिलेश के संपादन में सस्ता साहित्य मंडल से प्रकाशित ‘विचारों का जनतंत्र’ को पढ़ना एक गौरतलब अनुभव है. तद्भव के संवेदनशील पाठक इन लेखों को पहले ही पढ़ […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | May 6, 2018 8:00 AM
आजकल विचार को लेकर हम खतरे में हैं. अपने स्वतंत्र विचारों को लेकर हमें कहीं न कहीं बरतने का संदेश दिया जा रहा है. ऐसे में कहानीकार अखिलेश के संपादन में सस्ता साहित्य मंडल से प्रकाशित ‘विचारों का जनतंत्र’ को पढ़ना एक गौरतलब अनुभव है. तद्भव के संवेदनशील पाठक इन लेखों को पहले ही पढ़ चुके होंगे. इस पुस्तक में एकत्र रूप में चौबीस लेख और एक साक्षात्कार को पढ़ना सघन-विमर्श के लिए जरूरी है. साक्षात्कार आधुनिक हिंदी आलोचना के दो शीर्षस्थ आलोचक डॉ रामविलास शर्मा और नामवर सिंह के बीच है, बातचीत में उत्प्रेरक की भूमिका में कवि मंगलेश डबराल हैं.
नामवर सिंह द्वारा यह प्रश्न पूछे जाने पर कि आप भविष्य को किस रूप में देख रहे हैं, डॉ शर्मा कहते हैं- ‘हम साम्राज्यवाद का कितना विरोध करते हैं, हम विदेशी पूंजी को निर्मूल करने में सफल होते हैं या नहीं, यहां बहुराष्ट्रीय कंपनियों का माल बिकता है, विदेशों से कर्ज पाया जाता है, हम सूद चुका पायेंगे या नहीं, हमें इन प्रश्नों पर संघर्ष करना होगा. यह प्रक्रिया जब तक रोकी नहीं जायेगी, तब तक भाषा और साहित्य का विकास असंभव है.’
हिंदी में समाज विज्ञान को लेकर विपन्नता रही है, जबकि इस बाधा को पार किये बिना कोई भाषा सार्थकता नहीं पा सकती. सुधीर चंद्र, आदित्य निगम, सुवीरा जायसवाल, हिलाल अहमद और चारु गुप्ता ने सारगर्भित लेख लिखे हैं.
आदित्य निगम संविधान पर लिखे लेख में इस जनधारणा का खंडन करते हैं कि आंबेडकर संविधान निर्माता हैं. इसके लिए वे राज्यसभा में 3 सितंबर, 1953 के बहस में बाबा साहेब के बोले शब्द को रखते हैं.
भारतीय राष्ट्रवाद, उपनिवेशवाद और रबींद्र नाथ टैगोर को लेकर जीतेंद्र गुप्ता ने एक लेख लिखा है. चौथीराम यादव ‘अवतारवाद का समाजशास्त्र और लोकधर्म’ लेख के अंत में निष्कर्ष स्वरूप जो कहते हैं, वह आज के संदर्भ में एकदम सटीक हैं- ‘लोक और लोकमत के समाजशास्त्रीय आधार की उपेक्षा कर अवतारवाद के पौराणिक प्रतिमानों से समूचे भक्तिकाव्य का मूल्यांकन हमें प्रतिरोध की संस्कृति के विरुद्ध वर्चस्ववादी संस्कृति के संरक्षण की ओर ही ले जाता है, समन्वय के नाम पर दलीलें चाहे जितनी भी क्यों न दी जायें.
बीते दो-ढाई दशक में विचारों की दुनिया में उथल-पुथल और वैचारिक आलोड़न को समझने के लिए यह एक जरूरी किताब है.
– मनोज मोहन