Exclusive: प्रिंट जर्नलिज्म ही ऑरिजनल, बाकी सब इंटरटेनमेंट: वरिष्ठ पत्रकार प्रभु चावला

प्रभु चावला कहते हैं : पत्रकारिता फीयर नन और फेवर नन के सिद्धांत पर चलनी चाहिए. उन्होंने यह भी कहा कि कागज के दाम बढ़ने से समाचार पत्रों की लागत बढ़ी है.

By Prabhat Khabar | April 2, 2023 5:41 AM

देश के जाने-माने पत्रकार और न्यू इंडियन एक्सप्रेस के एडिटोरियल डायरेक्टर प्रभु चावला का मानना है कि सबसे विश्वासी और प्रमाणिक प्रिंट मीडिया है. बाकी के डिजिटल मीडिया या अन्य मीडिया इंटरटेनमेंट हैं. वह मानते हैं कि मीडिया पर सरकारों का दबाव बढ़ा है. पर बीच का रास्ता निकालते हुए सही और प्रामाणिक खबरें देने से प्रिंट मीडिया के भविष्य पर कोई असर नहीं पड़ेगा. खबरें ऐसी हो, जिससे सरकार का भी ध्यान जाये.

सिस्टम पर अटैक करें, किसी व्यक्ति पर नहीं. प्रभु कहते हैं : पत्रकारिता फीयर नन और फेवर नन के सिद्धांत पर चलनी चाहिए. उन्होंने यह भी कहा कि कागज के दाम बढ़ने से समाचार पत्रों की लागत बढ़ी है. पहले जहां छह सात रुपये लागत आती थी, आज 25 से 27 रुपये की लागत आती है. ऐसे में पाठक को चार से छह रुपये में समाचार पत्र उपलब्ध कराना एक चुनौती भरा काम है. श्री चावला प्रभात खबर द्वारा आयोजित प्रभात संवाद कार्यक्रम में शामिल हुए. इस दौरान पत्रकारों के सवालों का बेबाकी से जवाब भी दिया.

सत्ता प्रतिष्ठान, सरकार की संस्थाओं का दबाव मीडिया पर बढ़ा है, समय-समय पर अपने तरीके से ये अखबारों,-चैनल्स की आर्म्स ट्विस्टिंग करते रहते हैं. कभी विज्ञापन, तो कभी दूसरे उपायों से. ऐसे में मीडिया के सामने क्या चुनौती है?

दबाव तो पड़ता है. हमारे ऊपर भी दबाव पड़ता था. दबाव कितना लेना है, यह फैसला तो पत्रकार को ही करना है. आपको उसको काउंटर करने के लिए केवल तथ्यों की खबर दिखानी होगी. केवल सच दिखायें. तथ्यों के साथ दिखायें. यह सच है कि आज कल खबरों पर रिसर्च नहीं करते. मेरे से आज तक फैक्ट मिस्टेक नहीं हुआ. इंदिरा गांधी के समय इमरजेंसी के कार्यकाल में भी दबाव रहा. खबरें लिखें, लेकिन फैक्ट हो.

इंस्टीट्यूशन का दबाव इसलिए होता है कि हम कल्पना कर लेते हैं कि हमारे ऊपर दबाव है. अब क्या है कि टीवी के अंदर तो खबर होती ही नहीं है. आप व्यूज आधारित खबरें लिखें. परंतु खबर लिखने का तरीका भी है. इस दबाव में हमें बीच का रास्ता निकलना होगा. सारी चीजें लिखें, पर ब्लेम न दें. लिखने की कला हो. आपको रियलिटी पर चलना है और निकलना है. करेंट के विरुद्ध चलने को ही ताकत कहते हैं, पर ऐसे चलना है कि आप डूब न जायें. रास्ता निकालना है.

इंटरनेट या डिजिटल मीडिया नयी पत्रकारिता के दौर में अवसर या चुनौती मानते हैं और कैसे इससे निकला जा सकता है?

इंटरनेट, ट्वीटर डिजिटल, सोशल मीडिया हो, जो लोग अखबार नहीं पढ़ते, उसमें से कुछ लोग इसका इस्तेमाल करते हैं. अखबार पढ़ना धीरे-धीरे बंद होता जा रहा है. डिजिटल मीडिया धीरे-धीरे बढ़ेगा. जिस चीज की फाउंडेशन नहीं हो , वह गिरेगी ही एक दिन. डिजिटल मीडिया हवा में लटका हुआ है. डिजिटल मीडिया इतना हाइक है, क्योंकि यह सस्ता पड़ता है. डिजिटल मीडिया इनकम का सोर्स है. वह न्यूज नहीं बेचते हैं, वे सूचना बेचते हैं. उनके पास खबर नहीं होती है.

वर्तमान दौर में क्या नो फीयर -नो फेवर वाली पत्रकारिता संकट में है? राजनीतिक पार्टियों की तरह आज मीडिया भी खेमें में बंटी दिखती है?

आज जो पत्रकारिता है, उसमें कनक्लुजिंग हेडिंग पहले बनता है, खबर बाद में बनाते हैं. पहले हमारा नारा था फीयर नन और फेवर नन. अब नारा हो गया है कि फीयर एवरीवन और फेवर एवरीवन. सबसे डरिये और सबको सपोर्ट कीजिए. यह बदलाव आया है. सवाल यह है कि आप अपने आप को पत्रकार समझते हैं कि नहीं. आप मैसेंजर हैं. ये जो नया मीडिया आया है डिजिटल, टीवी जर्नलिज्म ओटीटी मॉडल है.

आप टीवी को मीडिया मत समझिए. हम पत्रकारों ने मान लिया है कि मीडिया खराब है. बार-बार कहता हूं कि गोदी मीडिया कहते हैं, तो किसी अखबार का तो नाम दीजिए. टीवी मीडिया नहीं है. टीवी इंटरटेनमेंट है. टीवी का लिमिट नहीं है. प्रिंट जर्नलिज्म ही ऑरिजनल जर्नलिज्म है. बाकी सारा का सारा इंटरटेनमेंट है. सब पिक्चर है. आज जो डर बैठ गया है, उसे निकाल दीजिए. इसका तरीका निकाल लें.

वर्तमान में पाठकों के पास कई विकल्प हैं. क्या प्रिंट मीडिया को परंपरागत तौर-तरीके से बाहर निकलना होगा. क्या अभिनव प्रयोग किये जायें? कंटेंट से लेकर कलेवर में क्या बदलाव हो?

पहले सुबह अखबार की हेडलाइन में न्यूज आती थी. अभी टीवी की हेडलाइन आती है. हालांंकि अभी भी अखबार की सुर्खियों को टीवी अपना हेडलाइन बनाते हैं. आपको सोचना होगा कि कंटेंट क्या देना है. आपका ऑब्जेक्टिव क्या हो. सोशल मीडिया मोटिवेटेड होता है. 90 प्रतिशत लोग किसी न किसी धारा से जुड़े रहते हैं. आपके पास सोशल मीडिया से आगे निकलने के लिए बहुत कुछ है. आप ग्राउंड लेबल पर जाकर खबरें करें. आप अपने ऊपर भरोसा कीजिए. दूसरा क्या कर लेगा यह न सोचे.

न्यू मीडिया, सोशल मीडिया के दौर में सूचनाएं-खबरें और यहां तक की उसका विश्लेषण भी तेज रफ्तार से पाठकों-दर्शकों तक पहुंच रहा है. ऐसे में प्रिंट मीडिया का भविष्य क्या है?

प्रिंट मीडिया बदल नहीं रहा है. कैसे खबरें देनी है. यह बदल नहीं रहा. खबरों को किस तरह से देना है, वो अबतक बदल नहीं रहा है. डिजिटल मीडिया हर व्यक्ति का व्यू है. बिना व्यू का कुछ नहीं है. दो-दो लाख, तीन-तीन लाख व्यूअर्स आ रहे हैं. यू टयूब में लाखो कमा रहे हैं. इनके लाखों फॉलोअर्स बताये जाते हैं. कोई न कोई फोर्स काम करता है उनके लिए. मैंने सोशल मीडिया में पीएचडी कर ली है. सोशल मीडिया अपने आप में लॉबी है. कॉमर्शियल और पॉलिटिकल दोनों. आपने कभी सुना है कि सोशल मीडिया में ऐसी खबर आयी, तो उसके बाद कुछ हो गया. तो प्रिंट मीडिया को चिंता किस बात की है.

वर्तमान समय में संपादकों की भूमिका भी बदली है. उन पर रेवेन्यू का भी दबाव है. रेवेन्यू भी आये, अखबार की विश्वसनीयता भी बने रहे, कैसे हो यह?

आप देखें कि मनुष्य की सबसे बड़ी लालसा क्या है : मेरा प्रचार हो. 99 प्रतिशत सोचते हैं कि मेरे बारे में लोग जानें. डॉक्टर से लेकर सारे प्रोफेशन वाले. रेवेन्यू मॉडल महत्वपूर्ण है. हमने पहले इंडिया टुडे कॉनक्लेव किया. बाद में यह रेवेन्यू मॉडल बन गया. पर उस समय उसमें कंटेंट होता था. साउथ इंडिया, ओड़िशा में इवेंट किया. इसमें बड़े-बड़े लोग आये. कई बड़े मंत्री, राज्यों के मुख्यमंत्री और बड़े पदों वाले आये. बड़े प्राजोयक आये.

लोग आये. 50-60 लाख खर्च होते हैं, जिससे डेढ़-दो करोड़ रेवेन्यू आते हैं. इसमें कंटेट भी मिलता है. चार-पांच पेज छापते हैं. ओड़िशा में लिटरेरी फेस्टिवल प्रसिद्ध है. वहां बड़े-बड़े लेखक आते हैं. ऐसे में रेवेन्यू के लिए इवेंट करें. इवेंट में कॉस्ट कम है और रेवेन्यू ज्यादा है. अखबार विकल्प के रूप में इन रेवेन्यू मॉडल पर काम करे. इससे दबाव भी कम होगा. इवेंट में भी कंटेट होना चाहिए, यह देखना जरूरी है. लोग भी सपोर्ट करते हैं. अच्छे लोगों को लायें.

आपने देश की राजनीति को बहुत नजदीक से देखा. चार-पांच दशकों से अलग-अलग दौर की राजनीतिक दशा-दिशा देखी. आज विपक्ष का तेवर खत्म है या सत्ता ज्यादा आक्रामक है. क्या विपक्ष के खिलाफ सत्ता की संस्थाओं का दुरुपयोग हो रहा है?

सीबीआइ, इडी, लोकल एजेंसियां, पुलिस का प्रयोग पहले से ज्यादा हो रहा है. हर जगह इसका प्रयोग हो रहा है. इसमें कोई शक नहीं है. राज्य सरकारें भी कर रही हैं. कई राज्यो में हुआ. ये हो क्यों रहा है. देखिए पहले कोई खबरें छपती थी, तो पार्लियामेंट 10 दिनों तक चलती नहीं थी. आप आज कोई स्टोरी लिखें, तो कोई खड़ा भी नहीं होता है. ऐसा होता क्यों है. यह डेमोक्रेसी के चेक एंड बैलेंस के नहीं होने के कारण होता है.

आज मीडिया में आप कुछ भी छापें, आपके समर्थन में कोई भी संसद में खड़ा नहीं होता है. 1992 में नरसिंह राव की सरकार के समय हमें बजट पास होने के पहले एक -दो प्वाइंट पता चल गया. सरकार को पता चल गया कि बजट लीक हो गया, तो मैनेज करने की कोशिश हुई, पर मैं नहीं माना, तो रातो-रात बजट बदल दिया गया. फिर भी कई बातें सही साबित हुई. सरकार परेशान थी कि बजट लीक कैसे हुआ. इसी तरह बोफोर्स के मामले में तब के विदेश मंत्री माधव सिंह सोलंकी को इस्तीफा देना पड़ा. यह तब का समय था. तब के समय मीडिया के साथ पार्लियामेंट का साथ भी होता था. आप स्टोरी करें. खबरो को लिखने का तरीका निकालें. व्यक्ति पर नहीं, सिस्टम पर लिखें. खबरों को लिखने की शैली- तरीका बदलना होगा.

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