Chaibasa News : इमाम हुसैन का घोड़ा जुलजनाह वफा और निष्ठा की मिसाल

कर्बला के मैदान में ज़ुलजनाह ने उन्हें अंतिम समय तक अपने ऊपर सवार रखा

By ATUL PATHAK | July 3, 2025 10:04 PM

चक्रधरपुर. कर्बला की जंग में इमाम हुसैन (र) ने जिस घोड़े पर सवार होकर यजीदी फौज का मुकाबला किये थे, उस घोड़े का नाम ज़ुलजनाह था. ज़ुलजनाह इमाम हुसैन (र) का वह पवित्र घोड़ा था, जिसने कर्बला के मैदान में उन्हें अंतिम समय तक अपने ऊपर सवार रखा. यह घोड़ा न केवल युद्ध का साथी था, बल्कि ऐसा जीव था जिसने इंसानों की तरह वफ़ा, इख़लास (निष्ठा) और मोहब्बत की मिसाल पेश की थी. जुलजनाह का अर्थ दो पंखों वाला होता है. हालांकि जुलजनाह के शारीरिक रूप में पंख नहीं थे, यह नाम प्रतीकात्मक है, जो उसकी रफ़्तार, बहादुरी और फरिश्ते जैसे किरदार को दर्शाता है.

जुलजनाह का इतिहास और परवरिश

जुलजनाह को इमाम हुसैन (र) के पिता हजरत अली (र) ने चुना था और पालने के लिए इमाम हुसैन (र) को दिया था. यह घोड़ा अरबी नस्ल का था और बचपन से इमाम हुसैन (र) के साथ पला-बढ़ा. इसलिए उस पर इमाम का गहरा स्नेह था. यह विशेष रूप से युद्ध और मुश्किल परिस्थितियों में इस्तेमाल के लिए प्रशिक्षित किया गया था.

कर्बला में जुलजनाह की भूमिका

कर्बला (680 ईस्वी / 61 हिजरी) की जंग में जब इमाम हुसैन (र) को उनके 72 साथियों के साथ यज़ीदी सेना ने घेर लिया, तो इमाम हुसैन (र) अपने अंतिम युद्ध में जुलजनाह पर सवार होकर दुश्मनों से लड़े. जुलजनाह ने अपने सवार को गिरने नहीं दिया जब तक वो जख़्मी नहीं हो गये. कर्बला का एक अत्यंत मार्मिक घटना यह है कि जब इमाम हुसैन (र) जमीन पर गिर पड़े, तब जुलजनाह ने उन्हें दुश्मनों के हाथ न पड़ने देने के लिए अपने आप को ढाल की तरह उनके पास रखा. इमाम हुसैन (र) के शहीद होने के बाद, जुलजनाह अकेले खेमे की तरफ लौटा. उसके बिना सवार और खून से सने जीन (काठी) को देखकर इमाम की बहन बीबी जेनब और बच्चों ने समझ लिया कि इमाम शहीद हो चुके हैं. उस दृश्य को आज भी मुहर्रम के जुलूसों में प्रतीकात्मक रूप से दिखाया जाता है, जिसे देखकर लोग जार-ओ-कतार (बहुत ज्यादा) रोते हैं.

जुलजनाह की वफादारी

जुलजनाह ने कभी इमाम हुसैन (र) का आदेश नहीं तोड़ा. उनके शव को दुश्मनों से बचाने की कोशिश की.

खेमे तक खबर पहुंचाने की जिम्मेदारी निभायी. कई रिवायतों के अनुसार, वह या तो घायल हो गया या दुश्मनों ने उसे मार दिया, मगर उसने इमाम की शहादत का संदेश खेमे तक पहुंचाया. इमाम हुसैन (र) से मुहब्बत करने वाले मुसलमानों में जुलजनाह की एक पवित्र और भावनात्मक छवि है. हर साल मुहर्रम की 10वीं तारीख (आशूरा) को जुलजनाह की झांकी निकाली जाती है. उस पर इमाम हुसैन (र) की पोशाक, झंडा और खून से सनी प्रतीकात्मक काठी सजायी जाती है. लोग इसे जियारत (धार्मिक दर्शन) करते हैं.

धार्मिक साहित्य में जुलजनाह

जुलजनाह पर कई नौहे (शोकगीत), मनकबत और नज़्में लिखी गयी हैं. उसे अशरफुल खयूल (सबसे अजीम घोड़ा) कहा गया है. कई शायरों ने लिखा है कि जब इंसान वफा में पीछे रह गए, तब जुलजनाह ने इमाम की मदद करके वफ़ा का पैगाम दिया. जुलजनाह वफ़ादारी, त्याग, मोहब्बत, संदेशवाहक की मिसाल है. बिना अपने सवार के ये घोड़ा शहादत की खबर देने पहुंचता है. जुलजनाह की झांकी याद-ए-हुसैन का अहम हिस्सा है. जुलजनाह एक साधारण जानवर नहीं था, बल्कि वह एक इंसानी जज़्बातों से भरा वफादार साथी था, जिसने अपने मालिक इमाम हुसैन (र) की रक्षा के लिए अंतिम सांस तक कोशिश की. उसकी कहानी आज भी हर उस इंसान के दिल को छूती है जो इंसाफ, सच्चाई और कुर्बानी पर यकीन रखता है.

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