Story of the Day: हिम्मत की मिसाल, इन्होंने अपनी दिव्यांगता को बनायी ताकत
Story of the Day: तीन दिसंबर को ‘अंतरराष्ट्रीय दिव्यांग दिवस’ है. इस विशेष अवसर पर हम पटना की उन महिलाओं और बेटियों से रूबरू करा रहे हैं, जिन्होंने अपनी दिव्यांगता को शक्ति में बदलकर समाज के सामने एक नयी मिसाल पेश की हैं.
Story of the Day, रिपोर्ट- जुही स्मिता: दिव्यांगता कमजोरी नहीं, बल्कि इंसान के अदम्य साहस और क्षमताओं की पहचान है. चुनौती तब नहीं होती जब शरीर सीमित हो, बल्कि तब होती है जब समाज संकीर्ण दृष्टि से किसी की क्षमता को आंकता है. अपने शहर में कई ऐसे लोग हैं, जो ऐसी सोच से ऊपर उठकर अपने हुनर, आत्मविश्वास और लगन से खुद राहें बनायी हैं. तीन दिसंबर को ‘अंतरराष्ट्रीय दिव्यांग दिवस’ है. इस विशेष अवसर पर हम पटना की उन महिलाओं और बेटियों से रूबरू करा रहे हैं, जिन्होंने अपनी दिव्यांगता को शक्ति में बदलकर समाज के सामने एक नयी मिसाल पेश की हैं.
फूड डिलीवरी के साथ-साथ खेल जगत में रोशन कर रही नाम
राधा कुमारी, पटना के दानापुर तकिया की रहने वाली, जन्म से पोलियोग्रस्त हैं. पिता के निधन के बाद परिवार की पूरी जिम्मेदारी उनके कंधों पर आ गयी, लेकिन शारीरिक अक्षमता के कारण नौकरी के कई इंटरव्यू में उन्हें निराशा झेलनी पड़ी. पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और अपने दम पर फूड डिलीवरी का काम शुरू किया. आज राधा पटना की सबसे भरोसेमंद और प्रेरणादायक डिलीवरी पार्टनर्स में गिनी जाती हैं. कॉलेज समय से ही स्पोर्ट्स में रुचि रखने वाली राधा ने शॉटपुट, डिस्कस थ्रो और रग्बी में राष्ट्रीय स्तर पर कई मेडल जीते हैं. हाल ही में वे पारा स्विमिंग प्रतियोगिता में भी हिस्सा लेकर लौटी हैं. राधा का सपना है कि फूड डिलीवरी के साथ-साथ खेल जगत में भी बिहार का नाम रोशन करें.
आत्मविश्वास के साथ अपनी सारी जिम्मेदारियां निभा रही हैं
मधुबनी की रूपा कुमारी बचपन में पोलियो से ग्रसित हुईं, लेकिन इंडियन आर्मी में कार्यरत अपने पिता से उन्होंने कभी हार न मानने का जज्बा सीखा. पढ़ाई में उत्कृष्ट रूपा ने देहरादून से एमबीए किया और जमशेदपुर की एक कंपनी में एचआर पद पर नियुक्त हुईं. फिर 2018 में बिहार सरकार के कला, संस्कृति एवं युवा विभाग में रिक्तियां निकलीं, तो उन्होंने आवेदन किया और आज मिथिला चित्रकला संस्थान, मधुबनी में असिस्टेंट पद पर कार्यरत हैं. रूपा कहती हैं कि दिव्यांगता अभिशाप नहीं, बल्कि जीवन को नये नजरिये से देखने का अवसर है. कुछ काम कठिन जरूर होते हैं, पर हौसले और निरंतर प्रयास से उन्होंने हर चुनौती को अवसर में बदला और आज आत्मविश्वास के साथ-साथ अपनी सभी जिम्मेदारियां निभा रही हैं.
पोलियो होने पर भी आर्थिक स्वावलंबन की राह खुद बनायी
कंकड़बाग की मंजू कुमारी सिन्हा को चार वर्ष की आयु में पोलियो हुआ, लेकिन उन्होंने अपनी आर्थिक स्वावलंबन की राह खुद बनायी. ग्रेजुएशन के बाद उन्होंने कपड़ों का छोटा सा स्टॉल लगाया. स्टॉल के पास मंदिर में जमा होने वाले बेकार फूलों का ढेर देखकर उन्हें पर्यावरण और अवसर- दोनों की चिंता हुई. वे कहती हैं- मैंने इंटरनेट से जानकारी लेकर इन फूलों से प्राकृतिक गुलाल बनाना शुरू किया, जिसे पहली बार आर्मी के लोगों ने खरीदा. यहीं से इस पहल को गति मिली. महिला उद्योग संघ की सहायता से मैंने गुलाल, अगरबत्ती, धूप और फेसपैक जैसे उत्पादों का विस्तार किया. भारत सरकार की जीविका योजना के तहत उन्हें मशीन भी मिली. आज मंजु का एक पूरा यूनिट है, जिसमें कई एनजीओ और संस्थान जुड़े हैं, और वे रोज 2-4 क्विंटल फूलों का उपयोग कर पर्यावरण और अर्थव्यवस्था दोनों में योगदान दे रही हैं.
मुक-बधिर होकर भी राष्ट्रीय स्तर की बन चुकी हैं खिलाड़ी
वेस्ट लोहानीपुर की अमीषा प्रकाश जन्म से मूक-बधिर हैं, लेकिन उनकी प्रतिभा ने कभी खामोशी को उनकी पहचान नहीं बनने दिया. पिता वेद प्रकाश ने उन्हें साइन लैंग्वेज सिखाई और पढ़ाई में सहयोग किया, जिससे उन्होंने 12वीं तक की शिक्षा पूरी की. खेलों में रुचि होने के कारण वे जिमनास्टिकऑफ पटना के कोच संदीप कुमार मिश्रा के मार्गदर्शन में एथलीट बनीं. अमीषा क्रिकेट, फुटबॉल और टेनिस खेलती हैं तथा देश-विदेश में आयोजित विभिन्न राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में कई पदक जीत चुकी हैं. अपनी प्रैक्टिस के साथ-साथ अब वे बच्चों को भी एथलेटिक्स की ट्रेनिंग देती हैं, ताकि उनकी तरह कोई और भी सीमाओं से ऊपर उठकर अपनी पहचान बना सके. अमीषा की यात्रा बताती है कि हिम्मत किसी आवाज की नहीं, आत्मविश्वास की मोहताज होती है.
समर्पण से स्पेशल बच्चों को शिक्षा देने वाली बनी शिक्षिका
पटना सिटी की रीता कुमारी बारह वर्ष की उम्र में पोलियो से ग्रसित हुईं, लेकिन जीवन की गति नहीं रुकी. इंटर पास करने के बाद उन्होंने आसपास के बच्चों को पढ़ाना शुरू किया और धीरे-धीरे शिक्षण को अपने उद्देश्य के रूप में अपनाया. समर्पण स्कूल के संस्थापक शिवाजी से मिलकर उन्होंने स्पेशल बच्चों को कला और प्रारंभिक शिक्षा देने का निर्णय लिया. बच्चों से बेहतर संपर्क और समझ के लिए उन्होंने बेउर, पटना से साइन लैंग्वेज का कोर्स भी किया. आज रीता स्पेशल बच्चों को पढ़ाने को अपना कर्तव्य मानती हैं और बिना किसी विराम के रोज स्कूल पहुंचकर बच्चों का मार्गदर्शन करती हैं. उनका समर्पण बताता है कि दिव्यांगता नहीं, बल्कि संवेदना और समर्पण ही किसी व्यक्ति को सच्चा शिक्षक बनाते हैं.
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