Bihar News: बिहार की सियासत, लालू युग ढलान पर,भाजपा का सपना चरम पर?

Bihar News: बिहार की राजनीति हमेशा से अप्रत्याशित मोड़ों, सामाजिक समीकरणों और वैचारिक टकरावों का अखाड़ा रही है. लेकिन इस चुनाव ने एक पुरानी राजनीति को समाप्त कर दिया और एक नई शक्ति संरचना की नींव रख दी, जिसका प्रभाव आने वाले वर्षों तक दिखेगा.

By Pratyush Prashant | November 18, 2025 12:45 PM

Bihar News: बिहार का यह विधानसभा चुनाव कई मायनों में ऐतिहासिक है. पहली बार भाजपा अपने सहयोगियों के साथ बहुमत में आती दिख रही है. भले ही पार्टी कुछ समय तक नीतीश कुमार को ही मुख्यमंत्री बनाए रखेगी, लेकिन यह साफ है कि बिहार में अपनी सरकार बनाने का भाजपा का वर्षों पुराना सपना अब दरवाजे पर दस्तक दे रहा है. संपूर्ण हिंदी पट्टी में बिहार ही वह आखिरी राज्य था जहां भाजपा स्वतंत्र रूप से सरकार नहीं बना सकी थी. अब यह बाधा भी टूटती दिख रही है.

बिहार की राजनीति का इतिहास यह रहा है कि यहां गांधी, लोहिया और जयप्रकाश जैसे नेताओं की वैचारिक परंपरा गहराई तक फैली रही. इसी परंपरा ने हिंदुत्व की राजनीति को कभी खुलकर फलने-फूलने नहीं दिया. भाजपा आज भी यहां आयातित चेहरों और गठबंधन की मजबूरी के भरोसे खड़ी रहती है. इसके बावजूद, इस बार पार्टी सत्ता की दहलीज तक पहुंच चुकी है.

लालू युग का अंत और तेजस्वी की सीमाएं

इस चुनाव ने यह भी साफ कर दिया कि लालू यादव का राजनीतिक प्रभाव लगभग समाप्त हो चुका है. दिलचस्प यह है कि चर्चा तेजस्वी की नहीं, बल्कि लालू के नाम की हो रही है क्योंकि तेजस्वी का स्वतंत्र राजनीतिक व्यक्तित्व आज भी विकसित नहीं हो सका है. वह लालू की भर बन कर रह गए हैं.

लालू यादव की राजनीति का सूर्यास्त दरअसल 2010 में ही दिख गया था, जब उनकी पार्टी मात्र 22 सीटों पर सिमट गई थी. 90 के दशक में मंडल राजनीति और आडवाणी की गिरफ्तारी जैसी ऐतिहासिक घटनाओं ने उन्हें राष्ट्रीय नायक बना दिया था. लेकिन इन उपलब्धियों का इस्तेमाल उन्होंने न तो सामाजिक परिवर्तन के लिए किया और न ही पिछड़ों- दलितों की नई पीढ़ी को नेतृत्व देने के लिए.

उनकी राजनीति परिवारवाद में सीमित होकर रह गई. इसका नतीजा यह हुआ कि एक समय राष्ट्रीय राजनीति की धुरी रहे लालू यादव आज फिर उसी संख्या पर लौट आए हैं जहां वे 2010 में खड़े थे.

नीतीश- मजबूरियां, उपलब्धियां और अधूरा सफर

नीतीश कुमार का व्यक्तित्व दिलचस्प विरोधाभासों से भरा है. उन्हें जोखिम से डरने वाला नेता माना जाता है, इसलिए वे बिहार से बाहर कोई बड़ी पहचान न बना सके. लेकिन यह भी सच है कि उन्होंने बिहार में सामाजिक न्याय की राजनीति को निचले तबकों, महिलाओं और कमजोर जातियों तक पहुंचाया. उनके कार्यक्रमों ने राज्य के सामाजिक ढांचे में बड़े बदलाव किए.

उनकी सबसे बड़ी समस्या है—राजनीतिक अस्थिरता और लगातार पाला बदलना. लालू यादव से गठबंधन, फिर अलग होना, फिर वापसी, फिर निकल जाना, इन उतार-चढ़ावों ने उनकी विश्वसनीयता को लगातार चोट पहुंचाई है. इसके बावजूद, इस चुनाव में वे 43 विधायकों वाली पार्टी से 85 पर पहुंचे, जबकि भाजपा केवल 15 नई सीटें जोड़ पाई. इसका मतलब साफ है कि नीतीश अभी भी बिहार की राजनीति में सबसे प्रभावी चेहरा हैं.

नीतीश के बाद क्या? भाजपा के उदय का रास्ता यहीं से खुलता है

बिहार की राजनीति का सबसे बड़ा प्रश्न अब यह है कि नीतीश कुमार के बाद उनका राजनीतिक आधार कहां जाएगा. उन्होंने अपना कोई वारिस तैयार नहीं किया है. लालू के यहां उनके समर्थकों के जाने की कोई संभावना नहीं है. ऐसे में यह पूरा आधार भाजपा में शामिल हो सकता है. यही वह कारण है जिसके चलते भाजपा धैर्य के साथ नीतीश को सत्ता में बनाए रखती है क्योंकि भविष्य में पूरा सामाजिक आधार उसी की झोली में गिरना है.

लेकिन इस प्रक्रिया में एक बुनियादी सवाल भी खड़ा होता है. नीतीश खुद को गांधी का अनुयायी बताते रहे हैं, जबकि भाजपा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को सम्मान देने वालों की राजनीति का प्रतिनिधित्व करती है. क्या नीतीश बिहार की सत्ता ऐसे वैचारिक समूह को सौंपकर इतिहास में दर्ज होना चाहेंगे?

बिहार की राजनीति का अगला अध्याय

इस चुनाव का नतीजा केवल सत्ता परिवर्तन भर नहीं, बल्कि बिहार की राजनीतिक संस्कृति में निर्णायक बदलाव का संकेत है. लालू युग खत्म हो चुका है. नीतीश का युग समाप्ति की ओर है. भाजपा अपनी पैठ मजबूत कर रही है और भविष्य में एकछत्र शासन की स्थिति में आ सकती है.

बिहार शायद पहली बार उस मोड़ पर खड़ा है जहां आने वाले वर्षों में राजनीति की दिशा पूरी तरह बदल सकती है. यह सिर्फ सत्ता का परिवर्तन नहीं, बल्कि विचारों और समाज की बदलती धारा का संकेत है.

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