Bihar Elections 2025: सीमांचल में ‘घुसपैठिया’ पर बहस, लेकिन मतदाता कर रहे हैं अस्मिता और हक की बात
Bihar Elections 2025: बिहार विधानसभा चुनाव के दूसरे चरण में सीमांचल की फिजा कुछ और ही कह रही है. जहां एक ओर एनडीए बार-बार “घुसपैठिया” का मुद्दा उठा रहा है, वहीं दूसरी ओर सीमांचल के अल्पसंख्यक इलाकों में यह नारा उतनी गूंज नहीं पा रहा है. यहां लोगों के बीच चर्चा ‘हक’, ‘पहचान’ और ‘विकास’ की है. चुनावी मंचों की शोरगुल के बीच सीमांचल का समाज अपनी अस्मिता को लेकर पहले से कहीं ज्यादा मुखर दिख रहा है.
Bihar Elections 2025: सीमांचल के चार जिले — किशनगंज, अररिया, कटिहार और पूर्णिया, एक बार फिर बिहार की सियासत के केंद्र में हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर भाजपा के शीर्ष नेताओं तक ने यहां की रैलियों में ‘घुसपैठिए’ का मुद्दा उठाया, लेकिन जमीनी स्तर पर कहानी कुछ और है. यहां के मतदाता धार्मिक या सांप्रदायिक नारे से ज्यादा उस “सिस्टम” की बात कर रहे हैं जो सालों से विकास के नाम पर उनकी उपेक्षा करता रहा है. सीमांचल के गांवों में इस बार चर्चा बदल गई हैं लोग सड़क, शिक्षा, रोजगार और स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली पर खुलकर बोल रहे है.
‘घुसपैठिया’ के शोर में दबती जमीन की सच्चाई
सीमांचल का इलाका देश के सबसे पिछड़े क्षेत्रों में गिना जाता है. बार-बार आने वाला बाढ़, पलायन और शिक्षा की कमी यहां की सच्चाई है. ऐसे में जब चुनावी सभाओं में “घुसपैठिए” का मुद्दा उछलता है, तो स्थानीय लोग उसे अपने जीवन की प्राथमिकताओं से जोड़ नहीं पाते.
कटिहार में बरारी के एक शिक्षक कहते हैं — “हमारे यहां स्कूल में शिक्षक नहीं, अस्पताल में डॉक्टर नहीं, लेकिन हर बार चुनाव में मुद्दा बनता है ‘घुसपैठिया’ असल में मुद्दा हमारा पेट है, पासपोर्ट नहीं.”
इस इलाके में अब एक नई सियासी चेतना आकार ले रही है जो धर्म और जाति से ऊपर होकर अधिकार और प्रतिनिधित्व की बात करती है.
एम-वाई समीकरण से ‘मुस्लिम अस्मिता’ तक का सफर
कभी कांग्रेस और राजद का एम-वाई (मुस्लिम-यादव) गठजोड़ सीमांचल की राजनीति की धुरी रहा. लेकिन पिछले कुछ वर्षों में यह समीकरण दरकने लगा है. एआईएमआईएम प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी के सीमांचल में प्रवेश ने राजनीति की नई दिशा तय कर दी है. 2020 में जब एआईएमआईएम ने यहां 5 सीटों पर अप्रत्याशित जीत दर्ज की, तो पारंपरिक दलों के समीकरण हिल गए. भले ही बाद में 4 विधायक राजद में शामिल हो गए, लेकिन उस जीत ने यह साबित कर दिया कि सीमांचल का अल्पसंख्यक समाज अब ‘मुख्यधारा बनाम मुस्लिम पार्टी’ की बहस में सक्रिय भूमिका निभाना चाहता है.
नई सियासी चेतना का उभार
‘घुसपैठिया’ के आरोपों के बीच सीमांचल के मतदाताओं में आत्ममंथन की प्रक्रिया तेज हुई है. कई युवा अब पूछ रहे हैं कि अगर वे ‘घुसपैठिए’ हैं, तो पिछले सत्तर सालों में उन्होंने सीमांचल को वोट क्यों दिए? पूर्णिया, अररिया और किशनगंज के मुस्लिम और पिछड़ा वर्ग के इलाकों में इस बार चुनावी चर्चा ‘हमारे अपने’ बनाम ‘हमारे प्रतिनिधि कौन’ के सवाल पर केंद्रित है. राजद और कांग्रेस के पुराने वोट बैंक में सेंध लगी है, जबकि एआईएमआईएम और जन सुराज जैसे दलों की सक्रियता ने चुनाव को त्रिकोणीय बना दिया है.
राजनीतिक समीकरणों में उलटफेर
2020 में सीमांचल की 24 सीटों में से एनडीए को 11, महागठबंधन को 8, और एआईएमआईएम को 5 सीटें मिली थीं. लेकिन अब तस्वीर बदली हुई है. एआईएमआईएम के साथ-साथ जन सुराज पार्टी के मैदान में उतरने से एनडीए और महागठबंधन दोनों को नुकसान की आशंका है. सीमांचल की वोटिंग अब ध्रुवीकरण नहीं, बल्कि विकल्प की तलाश की राजनीति पर आधारित है.
सीमांचल की राजनीति इस वक्त एक चौराहे पर खड़ी है. एक ओर मुख्यधारा की सियासत है, जो “विकास” और “राष्ट्रीय सुरक्षा” की बात करती है. दूसरी ओर स्थानीय नेतृत्व, जो “प्रतिनिधित्व”, “हक” और “अस्मिता” के सवाल उठा रहा है. यह वही सामाजिक उथल-पुथल है, जिसने पिछले कुछ वर्षों में सीमांचल को बिहार की राजनीति में निर्णायक बनाया है.
‘घुसपैठिए’ का नारा भले सियासी मंचों पर गूंज रहा हो, लेकिन जमीन पर लोगों की आवाज कुछ और हैं. अस्मिता, शिक्षा, रोजगार और बुनियादी जरूरतों की इस लड़ाई में सीमांचल फिर से बिहार की राजनीति का बैरोमीटर साबित हो रहा है.
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