Bihar Election 2025:”जो कल पाकिस्तान भेज रहे थे,आज मुस्लिम मुख्यमंत्री की बात कर रहे हैं!”चिराग पर तेजस्वी का पलटवार
Bihar Election 2025: बिहार की राजनीति में जो समुदाय कभी सत्ता-समीकरण तय करता था, अब उसकी हिस्सेदारी टिकट की सूचियों से गायब होती जा रही है. राज्य की 17.7% मुस्लिम आबादी आज सबसे बड़ी संख्या में मतदाता है, लेकिन सबसे कम आवाज वाली बन गई है. मुसलमानों के नाम अब सिर्फ वोट बैंक की गिनती में शामिल किए जा रहे हैं. चिराग पासवान की चुनौती और तेजस्वी यादव की तंज भले सुर्ख़ियाँ बटोरें, लेकिन असल सियासी सवाल यही है — बिहार में मुसलमान अब निर्णायक मतदाता हैं या सिर्फ खामोश दर्शक?
Bihar Election 2025: बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में चिराग पासवान ने मुस्लिम प्रतिनिधित्व के सवाल को उठाते हुए एक्स पर लिखा- 2005 में मेरे नेता पिता स्व. रामविलास पासवान जी ने मुस्लिम मुख्यमंत्री बनने के लिए अपनी पार्टी तक कुर्बान कर दी थी- तब भी आपने उनका साथ नहीं दिया. राजद 2005 में भी मुस्लिम मुख्यमंत्री के लिए तैयार नहीं था.
आज 2025 में भी न मुस्लिम मुख्यमंत्री देने को तैयार है, न उपमुख्यमंत्री अगर आप बंधुआ वोट बैंक बनकर रहेंगे, तो सम्मान और भागीदारी कैसे मिलेगी?
चिराग पासवान का जवाब देते हुए, तेजस्वी यादव ने कहा- बीजेपी ये इच्छा भी हम पूरी करेंगे – तेजस्वी
तेजस्वी यादव ने बीजेपी के नेताओं की ओर से उठाए जा रहे सवालों पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा, जिनको बीजेपी के लोग कभी पाकिस्तान भेजने की बात करते थे, अब उन्हें मुख्यमंत्री बनाने की बात करने लगे हैं. उनकी यह इच्छा भी हम लोग पूरा करेंगे.
बिहार में मुसलमानों की जनसंख्या राज्य में करीब 17.7% है, यानी लगभग हर पांचवां वोटर मुस्लिम है, लेकिन उम्मीदवारों की सूची देखिए, तो तस्वीर बिल्कुल उलट है. इस बार न बीजेपी, न जेडीयू, न ही राजद या कांग्रेस, किसी ने भी मुसलमानों को पहले जैसा प्रतिनिधित्व नहीं दिया, टिकट कम हुए हैं, उम्मीदें टूटी हैं और विधानसभा में आवाज पहले से भी कमजोर पड़ गई है.
टिकट बंटवारे में घटी मुसलमानों की हिस्सेदारी
राज्य की कुल 243 सीटों में मुसलमान उम्मीदवारों की संख्या इस बार 60 के करीब है. लेकिन दिलचस्प ये है कि गठबंधन में शामिल बड़े दलों ने ही सबसे कम टिकट दिए हैं. नीतीश कुमार की जदयू ने 101 उम्मीदवारों की लिस्ट में सिर्फ 4 मुस्लिम नाम शामिल किए हैं — जिनमें दो महिलाएं हैं. वहीं भाजपा, जो 101 सीटों पर चुनाव लड़ रही है, उसने एक भी मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट नहीं दिया. हम और रालोपा — ने एक भी मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट नहीं दिया.चिराग पासवान ने भी मुस्लिम उम्मीदवार को सिर्फ प्रतीकात्मक रूप से टिकट दिया है.
नीतीश कुमार की पार्टी ने 2020 में 10 मुस्लिम प्रत्याशी उतारे थे, मगर एक भी सीट जीत नहीं पाई थी. शायद यही कारण है कि 2025 में सीटें आधी करने का फैसला लिया गया.
राष्ट्रीय जनता दल की 143 उम्मीदवारों की सूची में सिर्फ 18 मुस्लिम नाम हैं. 2020 में यह आंकड़ा भी यही था, मगर तब पार्टी ने 8 मुस्लिम उम्मीदवार जिताने में सफलता पाई थी. कांग्रेस ने अपने 60 प्रत्याशियों में 10 मुस्लिमों को टिकट देकर थोड़ा संतुलन साधने की कोशिश की है, कम्युनिस्ट पार्टी आंफ इंडिया (माले) ने 2 मुस्लिम उम्मीदवार उतारे हैं, जबकि मुकेश सहनी की वीआईपी ने भी मुस्लिम उम्मीदवार को सिर्फ प्रतीकात्मक रूप से टिकट दिया है.
17.7% आबादी, पर विधानसभा में सिर्फ 8% प्रतिनिधित्व
साल 2023 की जातिगत जनगणना ने साफ किया था कि बिहार में मुसलमानों की संख्या 2.3 करोड़, यानी 17.7% है. यह समुदाय 50 से 70 सीटों पर निर्णायक भूमिका निभाता है. इसके बावजूद 2020 की विधानसभा में मुस्लिम विधायकों की संख्या घटकर 19 रह गई थी. उनमें 8 राजद, 5 एआईएमआईएम, 4 कांग्रेस, 1 बीएसपी और 1 सीपीआई(एमएल) से थे. यहां तक कि जदयू, जिसने 10 मुस्लिम उम्मीदवार उतारे थे, उसे एक भी जीत नहीं मिली. बिहार की लगभग 50 से 70 सीटें ऐसी हैं जहां मुस्लिम मत निर्णायक भूमिका निभाते हैं. किशनगंज, अररिया, कटिहार, सीवान, दरभंगा और पटना जैसे इलाके इसकी मिसाल हैं. बावजूद इसके, इस समुदाय को न उम्मीदवारों में जगह मिल रही है, न नेतृत्व स्तर पर बढ़त.
राजनीतिक दल उनके वोटों पर भरोसा तो जताते हैं, लेकिन सत्ता साझेदारी के वक्त यह भरोसा अक्सर टूट जाता है. यही वजह है कि चुनावी भाषणों में ‘अल्पसंख्यकों के विकास’ की चर्चा भले होती रहे, पर टिकट वितरण में उनके लिए रास्ता संकरा होता जा रहा है.
1985 से लगातार घटता प्रतिनिधित्व
90 के दशक में जब लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार की राजनीति उभार पर थी, तब “सामाजिक न्याय” के एजेंडे में मुसलमान केंद्रीय भूमिका में थे. बिहार विधानसभा में मुस्लिम प्रतिनिधित्व की कहानी अब गिरावट की कहानी बन गई है. 1985 में जब विधानसभा में 34 मुस्लिम विधायक पहुंचे थे, तब यह हिस्सा 10 प्रतिशत से ऊपर था. 2000 के बाद यह आकड़ा लगातार नीचे गया. न सिर्फ इसलिए कि उन्हें टिकट कम मिले, 2015 में 24 और 2020 में सिर्फ 19 मुस्लिम विधायक जीतकर पहुंचे. इस बार विश्लेषकों का अनुमान है कि यह संख्या इससे भी कम रह सकती है.
राजनीतिक जानकार मानते हैं कि यह गिरावट समुदाय की जनसंख्या अनुपात के कारण नहीं बल्कि दलों की रणनीति में हुए बदलाव का नतीजा है. अब अधिकांश दल जातीय समीकरण और बहुसंख्यक संतुलन को केंद्र में रखकर टिकट बांट रहे हैं, जिससे अल्पसंख्यक उम्मीदवारों की संभावना घट गई है. जिन सीटों पर उनका प्रभाव रहा, वहां अब अन्य जातियों के प्रत्याशियों को प्राथमिकता दी जा रही है.
2020 में जब जदयू-भाजपा गठबंधन बना, तो “पसमांदा मुसलमान” की चर्चा जरूर हुई, लेकिन व्यवहार में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया, जदयू ने 11 मुस्लिम चेहरों को मौका दिया, मगर नतीजा शून्य रहा. विश्लेषक मानते हैं कि तब से दलों ने यह मान लिया कि मुस्लिम उम्मीदवार अब “वोट ट्रांसफर” नहीं करा पाते. इसलिए अब पार्टियां मुस्लिम बाहुल इलाकों में भी गैर-मुस्लिम उम्मीदवार उतार रही हैं, ताकि समीकरण “क्रॉस कम्युनिटी” वोट के जरिए संभल सके.
नीतीश कुमार की राजनीति हमेशा सामाजिक संतुलन पर केंद्रित रही है. एक समय था जब जदयू ने अपने मुस्लिम चेहरों के दम पर ‘सेक्युलर इमेज’ कायम रखी थी. लेकिन एनडीए गठबंधन में आने के बाद पार्टी ने ख़ुद को नए वोट बैंक की सीमा में बांध लिया है.
इसी तरह लालू प्रसाद यादव की पार्टी — जो कभी यादव-मुस्लिम समीकरण की पहचान मानी जाती थी — अब जातीय विविधता के नाम पर टिकट बंटवारे में अदला-बदली कर रही है. यानी राजनीतिक हित बदलने के साथ-साथ वो ‘माई समीकरण’ (Muslim-Yadav) भी धीरे-धीरे इतिहास बन रहा है.
एआईएमआईएम बनी उम्मीद की एक अलग राह
असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम इस बार 25 सीटों पर चुनाव लड़ रही है और उसमें से 23 मुस्लिम चेहरे मैदान में हैं. 2020 में उसने 20 उम्मीदवार उतारे थे, जिनमें 5 विधायक जीतकर आए थे — ज्यादातर सीमांचल क्षेत्र से. यह उस दौर में एक बड़ी सफलता थी जब स्थापित दल अपने मुस्लिम उम्मीदवार तक नहीं बचा पा रहे थे. इस बार बिहार की सीमांचल बेल्ट में एआईएमआईएम ने दुबारा अपना फोकस बढ़ा दिया है, जो परंपरागत दलों के लिए नई चुनौती बन सकता है. लेकिन इस बार सीमांचल में महागठबंधन की सक्रियता और एनडीए की नई रणनीति ने एआईएमआईएम के लिए चुनौती बढ़ा दी है. फिर भी, मुस्लिम प्रतिनिधित्व के सवाल पर ओवैसी एक बार फिर अकेले खड़े हैं, बाकी दलों ने खामोशी अख़्तियार कर ली है.
वोट है, प्रतिनिधित्व नहीं
आज बिहार की राजनीति में मुस्लिम वोटर हर दल के लिए जरूरी हैं, लेकिन मुस्लिम नेता नहीं. वे हर चुनाव में बतौर वोटर गिने जाते हैं, बतौर प्रतिनिधि नहीं. बिहार के चुनावों में मुसलमान मतदाताओं का रुझान हमेशा निर्णायक रहा है. सत्ता किसी की भी बनी हो, उनकी भागीदारी ने समीकरण तय किए हैं लेकिन आज जब दलों की सूचियों में उनका नाम कम दिखाई देता है, तो सवाल यह उठता है — क्या लोकतंत्र में जनसंख्या के अनुपात की राजनीति अब अप्रासंगिक होती जा रही है?राजनीति का उद्देश्य प्रतिनिधित्व देना है, न कि सिर्फ गणना करना. यह चुनाव तय करेगा कि अल्पसंख्यक समाज अपनी भूमिका कायम रखेगा या सियासी हाशिए पर और पीछे चला जाएगा.
यह वही राज्य है, जिसने कभी अब्दुल बारी, सैयद शाहनवाज़ हुसैन और अली अनवर जैसे नेताओं को राष्ट्रीय पहचान दी थी. अब स्थिति यह है कि विधानसभा में उनकी गिनती उंगलियों पर होती है.
वोटर मौजूद है, लेकिन उसकी आवाज कमजोर है — यह बिहार की राजनीति का नया यथार्थ है.
