पटना : पहले लालू ने लड़ाया, फिर हराया, अब लालटेन लेकर मधेपुरा पहुंचे शरद

मिथिलेश... पटना : रोम पोप का-मधेपुरा गोप का, यह नारा न सिर्फ मधेपुरा बल्कि संपूर्ण कोसी इलाके में चुनावों में गूंजता रहा है. 1962 के आम चुनाव में जब मधेपुरा लोकसभा सीट के रूप में अस्तित्व में भी नहीं आ पाया था, इस नारे की गूंज पहली बार सुनायी पड़ी थी. उत्साही नौजवानों ने चुनाव […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | April 8, 2019 5:10 AM

मिथिलेश

पटना : रोम पोप का-मधेपुरा गोप का, यह नारा न सिर्फ मधेपुरा बल्कि संपूर्ण कोसी इलाके में चुनावों में गूंजता रहा है. 1962 के आम चुनाव में जब मधेपुरा लोकसभा सीट के रूप में अस्तित्व में भी नहीं आ पाया था, इस नारे की गूंज पहली बार सुनायी पड़ी थी.

उत्साही नौजवानों ने चुनाव में रोम पोप का-सहरसा गोप का नारा लगाया था. उन दिनों मधेपुरा के इलाके सहरसा लोकसभा सीट के तहत आते थे. सहरसा लोकसभा सीट पर सोशलिस्ट पार्टी की टिकट पर खड़े भूपेंद्र नारायण मंडल ने कांग्रेस के दिग्गज ललित नारायण मिश्र को पराजित कर दिया था. कांग्रेस ने आरोप लगाया कि जातिवादी सूचक वाले इस नारे के कारण जातीय गोलबंदी हुई और उसकी पराजय हुई.

यह मामला अदालत तक पहुंचा. ललित नारायण मिश्र के अनुज और राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री डॉ जगनाथ मिश्र कहते हैं यह देश के चुनावी इतिहास की पहली और आखिरी घटना है जिसमे सुप्रीम कोर्ट ने जातिवादी नारा को आधार मानते हुए चुनाव रद्द कर दिया था. समाजवादियों की उर्वर भूमि रही कोसी के कछार में आज भी यह नारा उतना ही प्रभावी है. मधेपुरा लोकसभा का अस्तित्व 1967 में आया. पहली बार सांसद बने बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल.

एक नजर

मधेपुरा संसदीय क्षेत्र मे छह विधानसभा की सीटें हैं. इनमें तीन आलमनगर, बिहारीगंज और सोनबरसा जदयू के पास है. जबकि, तीन मधेपुरा, सहरसा और महिषी में राजद के विधायक हैं.

बदल गया है समीकरण

इस बार जदयू से अलग हुए शरद यादव को लालू प्रसाद का सहारा मिला है. कल तक जदयू कार्यकर्ताओं के सिरमौर रहे शरद का मुकाबला उनके ही करीबी रहे दिनेश चंद्र यादव से है. पिछली दफा जिस पप्पू यादव से वह चुनाव हार गये थे, वह भी उनके खिलाफ इस बार चुनाव मैदान में हैं.

तब शरद के खिलाफ खड़े थे आनंद मोहन

शरद यादव की मधेपुरा में इंट्री लालू प्रसाद के माध्यम से हुई. 1991 के लोकसभा चुनाव में शरद यादव पहली बार मधेपुरा पहुंचे तो वह जनता दल के उम्मीदवार थे. उनके मुकाबले खड़े थे आनंद मोहन. बिहार की राजनीति में लालू प्रसाद उस समय चमकते सितारे के रूप में उभर चुके थे. यादव हार्टलैंड में शरद का खुब सत्कार हुआ और वे चुनाव जीत गये. दूसरी बार 1996 के चुनाव में भी उन्होेंने आनंद मोहन को पटखनी दी.

…और शरद हार गये : 1998 में मध्यावधि चुनाव हुआ तो इस बार मधेपुरा से लालू प्रसाद ने खुद चुनाव लड़ने की ठानी. लालू का पूरा कुनबा मधेपुरा पहुंचा. दोनों ओर से जबरदस्त तैयारी थी. देश दुनिया की निगाहें मधेपुरा की ओर लगी थीं. चुनाव परिणाम जब सामने आया तो शरद यादव पराजित हो गये. मगर, लालू प्रसाद की यह खुशी अधिक दिनों तक नहीं टिक सकी.

लालू ने छोड़ी सीट, तो पप्पू हुए निर्वाचित

देश की राजनीति ने करवट बदली. अगले साल फिर मध्यावधि चुनाव हुए. एक बार फिर मधेपुरा सुर्खियों में आ गया, जब लालू प्रसाद और शरद यादव एक दूसरे के खिलाफ खड़े हुए. इस बार मतदाताओं ने शरद को आशीर्वाद दिया.

लालू पराजित हो गये. लालू प्रसाद ने इस हार का बदला पांच साल बाद हुए 2004 के आम चुनाव में लिया. दोनों नेता एक-दूसरे के खिलाफ खड़े हुए. इस बार लालू प्रसाद ने मधेपुरा के अलावा छपरा सीट से भी नामांकन का पर्चा भरा. लालू दोनों ही जगहों से चुनाव जीत गये. मधेपुरा में शरद को शिकस्त मिली.

लालू ने जीत के बाद मधेपुरा की सीट छोड़ दी. इसके बाद हुए उप चुनाव में पप्पू यादव मधेपुरा के सांसद निर्वाचित हुए. 2009 के आम चुनाव में शरद यादव फिर एक बार जीत गये और लोकसभापहुंचे. 2014 के चुनाव में उन्हें हार का सामना करना पड़ा.